पाकिस्तान पर हमले के बाद कूटनीति के आकलन में कहां और कैसे हुई चूक!

कूटनीतिक स्तर पर भारत की पहल का कोई फायदा नहीं हुआ। कई प्रतिनिधिमंडल किसी भी बड़े नेता तक से मिल नहीं सके।

भारतीय मिसाइलों ने पाकिस्तान के मुरीदके में कई इमारतों को जमींदोज कर दिया
भारतीय मिसाइलों ने पाकिस्तान के मुरीदके में कई इमारतों को जमींदोज कर दिया
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अशोक स्वैन

पहलगाम में 22 अप्रैल को आतंकवादी हमले के बाद भारत ने फौरन इसकी जिम्मेदारी पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूहों पर डाली और सिंधु जल संधि को निलंबित कर दिया, पाकिस्तानी राजनयिकों को निष्कासित कर दिया और पाकिस्तानी यात्रियों का वीजा रद्द कर दिया। मोदी सरकार ने इन कदमों को आतंकवाद विरोधी साहसिक सिद्धांत के हिस्से के रूप में पेश करते हुए दावा किया कि ये एक नए तरह के रणनीतिक संकल्प का उदाहरण है। लेकिन भारत ने जो कदम अपनी दृढ़ता और ताकत को दिखाने के लिए उठाए थे, वही बड़ी रणनीतिक और कूटनीतिक हार में बदलते दिख रहे हैं। 

7 मई को नियंत्रण रेखा के उस पार भारत के हवाई हमले अपनी ताकत को दिखाते हुए संदेश देने के लिए किए गए थे कि पाकिस्तान की ओर से आतंकी नेटवर्क के जरिये छद्म युद्ध को अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और अगर ऐसा हुआ तो उसे सख्ती के साथ बलपूर्वक कुचला जाएगा। नई दिल्ली की कार्रवाई के फौरन बाद पाकिस्तान ने भी पलटवार किया। संघर्ष के पहले चंद घंटे के भीतर ही शायद भारत ने कथित तौर पर लड़ाकू जेट खो दिया। 

स्थिति को और भी बदतर बना दिया भारतीय सेना के बेहद नुकसानदेह कबूलनामे ने। सिंगापुर में शांगरी-ला डायलॉग के दौरान ब्लूमबर्ग टीवी को दिए इंटरव्यू में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ ने माना कि पाकिस्तान के जवाबी हमलों के बाद भारतीय वायु सेना लगभग दो दिनों तक प्रभावी रूप से जमीन पर ही रही। वायुशक्ति अक्षमता की इस असाधारण स्वीकारोक्ति ने भारत की ताकत और नियंत्रण के नैरेटिव को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया।

फिर संघर्ष विराम हुआ, जो द्विपक्षीय संकट प्रबंधन चैनलों के जरिये न होकर अमेरिकी हस्तक्षेप से होता है। 10 मई को राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने घोषणा की कि भारत और पाकिस्तान संघर्ष रोकने पर राजी हो गए हैं और इसी के साथ उन्होंने संभावित परमाणु टकराव को रोकने का श्रेय अमेरिकी कूटनीति को दिया। ट्रंप प्रशासन ने संघर्ष विराम को इस तरह सार्वजनिक किया जिससे यह धारणा मजबूत होती है कि भारत और पाकिस्तान- दोनों ही परमाणु-शक्ति संपन्न ताकतों को अस्थिर कर रहे हैं और इसके लिए बाहरी निगरानी जरूरी है। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर ट्रंप के बार-बार किए जा रहे इस दावे कि उनकी मध्यस्थता ने परमाणु युद्ध को टाला, को खारिज करना तो दूर, इसे ठोस चुनौती भी न दे सके। चूंकि भारत की ओर से कोई खंडन नहीं हुआ, जल्दी ही यह बात फैल गई कि मोदी सरकार ने एक सुपर पावर मध्यस्थ को अपनी रणनीतिक स्वायत्तता सौंप दी, एक ऐसी धारणा जिसने न केवल भारतीय रणनीतिक विचारकों को परेशान किया, बल्कि इस्लामाबाद के नागरिक-सैन्य अभिजात वर्ग को प्रोत्साहित किया है। 


नैरेटिव में यह उलटफेर भारत के लिए इससे बुरे समय में नहीं आ सकता था। पाकिस्तान को रोकने या अपनी प्रभुता स्थापित करने से एकदम उलट मोदी ने जो सैन्य जुआ खेला, उससे अनजाने में ही पाकिस्तान के सैन्य महकमे को एक अप्रत्याशित राजनीतिक फायदा हो गया। इस उलटफेर का सबसे ज्यादा फायदा जिसे हुआ, वह कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल असीम मुनीर थे। मई से पहले तक की स्थिति यह थी कि मुनीर 1971 के युद्ध के बाद के शायद सबसे ज्यादा बदनाम पाकिस्तानी सेना प्रमुख थे।

उन्हें पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय राजनीतिक नेता इमरान खान के खिलाफ कार्रवाई और खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) को किसी भी तरह सत्ता से बाहर रखने के लिए तैयार की गई राजनीतिक स्थितियों के मास्टरमाइंड के रूप में देखा जाता था। पाकिस्तानी युवाओं से लेकर विदेशी प्रवासियों तक मुनीर को सिविल सोसाइटी के लिए जगह खत्म करने, राजनीतिक विरोधियों को जेल में डालने और लोकतंत्र-बाद के परिदृश्य में एक व्यवस्था बनाने में भूमिका के लिए जिम्मेदार मानते थे। 

हालांकि भारत की सैन्य कार्रवाई ने मुनीर को राजनीतिक तौर पर न केवल जीवित किया, बल्कि उन्हें अच्छा-खासा मजबूत भी कर दिया। उन्होंने भारत पर जवाबी सैन्य प्रतिक्रिया की कमान संभाली और सरकारी मीडिया और डिजिटल प्लेटफार्मों के माध्यम से खुद को राष्ट्रीय संप्रभुता के एक निडर संरक्षक के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने खुद को फील्ड मार्शल की दुर्लभ पांच सितारा रैंक से सम्मानित कराया, प्रतीकात्मक रूप से अपने सर्वोच्च सैन्य अधिकार का दावा किया। 

पाकिस्तानी जनता, खास तौर पर पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा में, इस बदलाव को बेहद उत्साह के साथ अपनाया। जिन शहरों में कभी मुनीर के पोस्टरों पर कालिख पोती जाती थी, वहां अब रैलियों, देशभक्ति संगीत और यहां तक ​​कि नमाज के दौरान की जाने वाली तकरीर में उन्हें हीरो बताया जा रहा है। मुनीर ने खुद को ऐसे दीवार के तौर पर पेश किया जो मोदी के हमलों और धमकियों के सामने डटा रहा। 

नैरेटिव के मामले में भारत कमजोर साबित हुआ। जहां अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने शुरू में पहलगाम हमले के पीड़ितों के प्रति सहानुभूति जताई थी, उसका ध्यान जल्द ही आतंकवाद से हटकर संघर्ष प्रबंधन और परमाणु स्थिरता पर केंद्रित हो गया।


मोदी के आक्रामक संकेतों, रणनीतिक कूटनीति की निरंतरता के अभाव ने संघर्ष के तेज होने की आशंकाओं को बढ़ा दिया है। एक बार जब ट्रंप ने सार्वजनिक रूप से संघर्षविराम की घोषणा की, तो भारत को आतंकवाद का पीड़ित नहीं बल्कि उकसावे और प्रतिशोध के अस्थिर क्षेत्रीय चक्र में समान भागीदार के रूप में देखा जाने लगा।

रणनीतिक मौके को भांपते हुए पाकिस्तान ने भारत की कूटनीतिक निष्क्रियता का फायदा उठाया। चीन का मजबूत समर्थन प्राप्त पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने हाई-प्रोफाइल कूटनीतिक आक्रमण शुरू किया जिसमें कश्मीर मुद्दे को पर्यावरणीय गिरावट, जल अधिकार और क्षेत्रीय समानता जैसी व्यापक चिंताओं से जोड़ दिया गया। दुशांबे में ग्लेशियर संरक्षण पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में उन्होंने तर्क दिया कि भारत का सिंधु जल संधि को निलंबित करना दोनों देशों के साझा संसाधन का खतरनाक औजार की तरह इस्तेमाल करना है। 

शरीफ की तुर्की, ईरान, अजरबैजान और ताजिकिस्तान की यात्राएं कूटनीतिक पहलकदमी को दिखाती हैं। लाचिन त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन में कश्मीर मुद्दे को नागोर्नो-करबाख और उत्तरी साइप्रस जैसे पुराने मुद्दों के साथ जोड़ दिया गया। तुर्की और अजरबैजान ने पाकिस्तान की ‘नपी-तुली’ प्रतिक्रिया का खुला समर्थन किया और रक्षा सहयोग बढ़ाने की प्रतिबद्धता जताई। ईरान ने सांकेतिक रूप से पाकिस्तान का समर्थन किया और भारत की आक्रामकता की निंदा की।

जबकि भारत का कूटनीतिक प्रयास उलझाऊ और अप्रभावी रहा है। विदेश मंत्रालय ने जल्दबाजी में 59 नेताओं के संसदीय प्रतिनिधिमंडलों को 30 से अधिक देशों के लिए रवाना किया। इसे पक्ष-विपक्ष की एकता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया, जबकि दल में शामिल नेताओं के नाम पर विपक्षी दलों से बात तक नहीं की गई। इसके अलावा ये प्रतिनिधिमंडल कहीं भी किसी वरिष्ठ अधिकारी से मिलने में नाकामयाब रहे। कई दल जूनियर राजनयिकों, प्रवासी समूहों या थिंक टैंकों के साथ ही बातचीत कर पाए। शशि थरूर के नेतृत्व में अमेरिका गया बहुचर्चित दल किसी वरिष्ठ सीनेटर से नहीं मिल सका। यह वाशिंगटन में भारत की घटती ताकत की बानगी है।

इधर देश में मोदी ने दिखावे का सहारा लिया: सार्वजनिक संबोधन, रोड शो और आक्रामक सोशल मीडिया अभियान। फिर भी ये प्रतीकात्मक कदम किसी भी ठोस कूटनीतिक सफलता या सार्थक सैन्य निरोध हासिल न होने की बात नहीं छिपा सके। नाटकीय राष्ट्रवाद और रणनीतिक सुसंगतता के बीच का अंतर पहले कभी इतना स्पष्ट नहीं था। 

शायद सबसे स्थायी नुकसान संकट के दीर्घकालिक निहितार्थों में छिपा है। मोदी की कार्रवाई ने पाकिस्तान को अपने प्रॉक्सी नेटवर्क का उपयोग जारी रखने से नहीं रोका। इसने इस्लामाबाद को अपनी सैन्य ताकत और राजनीतिक संकल्प दिखाने में मदद की। इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि इससे एक बेहद अलोकप्रिय सेना प्रमुख हीरो बन गया और उसे पाकिस्तान की राजनीतिक और सैन्य संस्थाओं पर अभूतपूर्व नियंत्रण मिल गया।


मोदी की हकीकत से ज्यादा दिखावे पर निर्भरता, दूरदर्शिता से ज्यादा ताकत और रणनीतिक गठबंधन से ज्यादा अकेले काम करने की प्रवृत्ति ने भारत के दीर्घकालिक हितों को कमजोर किया है। अगर भारत को रणनीतिक विश्वसनीयता हासिल करनी है, तो मोदी को मजबूत राष्ट्रवाद के नाटक को छोड़ना होगा और रणनीतिक दूरदर्शिता पर आधारित एक मजबूत कूटनीतिक ढांचा तैयार करना होगा।

नैरेटिव को नियंत्रित किए बिना आतंकवाद विरोधी अभियान सफल नहीं हो सकता और नैरेटिव नियंत्रण स्मार्ट कूटनीति के बिना नहीं हो सकता। जब तक भारत यह सबक नहीं सीखता, हर सीमा पार हमला निरोध नहीं बल्कि रणनीतिक शर्मिंदगी और वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ने का एक और चक्र शुरू करेगा। 

(अशोक स्वैन स्वीडन के उप्सला विश्वविद्यालय में ‘पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट रिसर्च’ के प्रोफेसर हैं।)

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