आकार पटेल / गाज़ा और इज़रायल-ईरान पर हम सिर्फ दिखावा ही कर रहे हैं...

हम उन चर्चाओं से क्यों दूर भागते हैं जिन्हें हम भागीदार के रूप में प्रभावित कर सकते हैं, मसलन एससीओ, इसके बजाय उन सम्मेलनों में हंसी-ठिठोली करते हैं जहांं हम महज़ दर्शक के रूप में शामिल होते हैं, जैसे कि (जी7)?

कनाडा में हुए जी-7 शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
कनाडा में हुए जी-7 शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
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आकार पटेल

Making much of not doing anything at all

Why do we run away from discussions we can influence as participants (SCO) and instead attend those where we are spectators (G7)?

Aakar Patel

इसी महीने सरकार ने ऐलान किया कि भारत ने ग्लोबल साउथ यानी वैश्विक दक्षिण की आवाज़ को विश्व मंच पर लाने की जिम्मेदारी ली है। जैसा कि एक अख़बार की हेडलाइन में लिखा गया है: ‘मौजूदगी का एहसास कराने का वक्त, वैश्विक दक्षिण के लिए भारत की आवाज़: जी7 से पहले एस. जयशंकर’।

संयोगवश, भारत बीते तीन साल से वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट (वैश्विक दक्षिण की आवाज पर शिखर सम्मेलन) की मेजबानी कर रहा है, जिसे सरकार ने लघु संज्ञा में वीओजीएसएस कर दिया है।

हमारी जिम्मेदारी की घोषणा करने के लिए फौरी वजह जी-7 में हमारा जाना था, जिसका भारत सदस्य ही नहीं है, अलबत्ता मैक्सिको, ब्राजील, कोमोरोस और कुक आइलैंड्स जैसे अन्य देशों के साथ-साथ पर्यवेक्षकों के रूप में नामित किया गया है, यानी महज एक दर्शक भर। भारत की कोई वास्तविक भूमिका नहीं है, हालांकि कभी-कभी गले मिलना और हंसी-मजाक करने की इजाजत मिल जाती है।

जी-7 दरअसल अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली और जापान का संगठन है। जी-7 ने एक बयान जारी कर इज़रायल पर ईरान के हमले की निंदा की। बयान में उस बमबारी का जिक्र करते हुए इज़रायल की सुरक्षा का समर्थन करने की बात दोहराई गई जिसमें तेहरान और अन्य जगहों पर वैज्ञानिकों और नागरिकों की मौत हुई है। इस बयान में जोर देकर कहा गया कि इज़रायल को अपनी रक्षा करने का अधिकार है और ईरान इस क्षेत्र में अस्थिरता और आतंक का मुख्य स्त्रोत है।

इस बयान पर वीओजीएस का कोई मत नहीं है, भले ही हमारे प्रधानमंत्री ने शिखर सम्मेलन को निहारा भर और यह कि ‘हमारी मौजूदगी का एहसास कराने का समय है’, कहने के बावजूद वीओजीएस मौन ही रहा। यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर हम ऐसे सम्मेलनों या बैठकों में जाते ही क्यों हैं जहां हमारी कोई बात ही नहीं होती, लेकिन फिर ताकतवर शक्तियों से कौन सवाल कर सकता है? उनके पास अपने कारण हैं। हकीकत तो यह है कि, यह समय था कि हम अपनी उपस्थिति को कहीं और महसूस कराएं।

शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) - जिसका वीओजीएस सदस्य है और वास्तव में इसमें अपनी बात रखता है - उसने भी इसी बाबत एक बयान जारी किया। एससीओ में नौ देश हैं: चीन, भारत, ईरान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, पाकिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान। इन नौ देशों की आबादी दुनिया की आबाद की करीब 42 फीसदी है, यानी वैश्विक दक्षिण का बहुमत है। एससीओ का चार्टर  कहता है कि इसका काम 'एक नई लोकतांत्रिक, निष्पक्ष और तर्कसंगत अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बढ़ावा देना' है। इसका मतलब है कि यह कमज़ोर और गरीब देशों के अधिकारों के लिए खड़ा होगा।

एससीओ ने बयान जारी कर ‘इज़रायल द्वारा किए गए सैन्य हमले की कड़ी निंदा की’ और कहा कि ‘नागरिकों को निशाना बनाने वाली, ऊर्जा और परिवहन सुविधाओं पर ऐसी आक्रामक कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लंघन हैं।‘

इसी दिन (14 जून को शनिवार के दिन) भारत ने एक जवाबी बयान जारी कर एससीओ द्वारा जारी किए गए बयान से खुद को अलग कर लिया है और स्पष्ट किया कि, ‘भारत एससीओ द्वारा उल्लिखित बयान को लेकर की गई चर्चा में शामिल नहीं हुआ था।’

इस तरह देखें तो फिर सामने आता है कि हम ऐसी चर्चा से भी भाग खड़े हुए जहां हम एक भागीदार होने के नाते अपनी बात रख सकते थे, बजाए इसके हम सिर्फ एक मूक दर्शक बन कर रह गए। वैसे भी वीओजीएस काफी रहस्यात्मक तरीके से काम करता है।

14 जून के अखबार में एक हेडलाइन थी, ‘गाजा के साथ युद्ध विराम के लिए लाए संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से भारत ने किनारा किया, 149 देशों ने समर्थन किया’। इस प्रस्ताव में ‘भूखमरी और जरूरी मदद से इनकार करने को युद्ध की रणनीति के तौर पर इस्तेमाल’ करने की निंदा की गई थी और इज़रायल से गाजा के लिए जाने वाली मदद के रास्ते में लगाए गए अवरोध हटाने की मांग की गई थी। सभी दक्षिण एशियाई देशों ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया जबकि वीओजीएस इससे दूर रहा।

इसका कारण यह बताया गया: ‘भारत का इस बात पर विश्वास था कि विवादों को सुलझाने के लिए बातचीत और कूटनीति के अलावा कोई और रास्ता नहीं है’ और ‘हमारा संयुक्त प्रयास दोनों पक्षों को करीब लाने की दिशा में होना चाहिए’।

निश्चित ही ऐसा होना चाहिए, हमें हमलावर और हमले के शिकार देशों को साथ लाना ही चाहिए।

इससे क्रिकेट की वह बात याद आती है, जिसमें कुछ भी न करने को अहमियत देने को ‘शोल्डरिंग आर्म्स’ यानी कंधे पर हाथ रखना कहा जाता है।

विदेश मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक भारत ने 14 अगस्त 2024 को तीसरे वीओजीएस शिखर सम्मेलन की मेजबानी की थी। इसमें कहा गया है, 'यह अनूठी पहल प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के "सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास" के दृष्टिकोण के विस्तार के रूप में शुरू हुई, और यह भारत के वसुधैव कुटुम्बकम के दर्शन पर आधारित है। इसमें वैश्विक दक्षिण के देशों को एक मंच पर अपने दृष्टिकोण और प्राथमिकताओं को साझा करने के लिए एक साथ लाने की परिकल्पना की गई है।'

8 मई को, रोहिंग्या शरणार्थियों के हालात और निर्वासन से संबंधित एक मामले में, उसी भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह न तो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी शरणार्थी कार्ड को मान्यता देती है और न ही रोहिंग्याओं को शरणार्थी के रूप में मान्यता देती है क्योंकि भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है और इसलिए वह शरणार्थियों को कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करता है। जाहिर है कि वीओजीएस और वैश्विक परिवार के बारे में इसकी शेखी बघारने के साथ कई नियम और शर्तें जुड़ी हुई हैं।

यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन का समर्थन न करना लोगों को ख़तरे, उत्पीड़न और बिन देश का व्यक्ति बनाने की स्थिति में धकेलने का बहाना नहीं हो सकता। प्रचलित अंतरराष्ट्रीय कानून में 'गैर-वापसी' के सिद्धांत के तहत, भारत को अभी भी लोगों को उन जगहों पर वापस जाने के लिए मजबूर करने से बचना चाहिए जहां उन्हें गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है। यह नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्र के तहत एक विशिष्ट कानूनी दायित्व भी है जिसमें भारत भी एक पक्ष है।

लेकिन हम आखिर क्यों परवाह करें? और हमें वैश्विक दक्षिण और हमारी साझा मानवता के बारे में बड़े-बड़े भाषण देने से कौन ही रोक रहा है, जबकि हम इसके बिलकुल विपरीत तरीके से काम कर रहे हैं? कुछ भी नहीं, और इसलिए यह दिखावा जारी रहेगा।

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