आकार पटेल / हमने दुनिया के साथ बना लिया है सिर्फ लेन-देन वाला रिश्ता
हमारी विदेश नीति, अच्छी है, बुरी है या फिर तटस्थ है, यह पाठक खुद तय कर सकते हैं, लेकिन आभास तो यही हो रहा है कि हमारा दुनिया के साथ रिश्ता सिर्फ लेन-देन वाला रह गया है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने गाजा में तत्काल, बिना शर्त और स्थायी युद्ध विराम की मांग करते हुए 12 जून को एक प्रस्ताव पारित किया। इसमें युद्ध के हथियार के रूप में भुखमरी को इजरायल द्वारा इस्तेमाल को रोकने की बात कही गई। कुल 149 देशों ने इसके पक्ष में मतदान किया। अमेरिका और इजरायल ने इसका विरोध किया, लेकिन भारत ने मतदान से खुद को अलग रखते हुए मोदी शासनकाल के दौरान अपनाए गए रवैये को ही दोहराया। भारत के इस रुक से कुछ भारतीयों को निराशा हुई, क्योंकि यह फिलिस्तीन और फिलिस्तीनियों पर भारत की लंबे समय से चली आ रही स्थिति से अलग रुख था। लेकिन भारत का यह रुख बीजेपी की हिंदुत्व विचारधारा के एकदम अनुरूप है।
दुनिया ने पाकिस्तान के साथ हमारे हाल के संघर्ष को जिस तरह से निष्पक्षता से लिया है, उससे सरकार के समर्थक परेशान हैं । लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम देशों को अपने पक्ष में नहीं कर सकते, हालांकि इसे स्वीकारना थोड़ा कठिन है।
इस लेख में हम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति की आलोचना नहीं कर रहे हैं – बल्कि यह इसे समझाने की एक कोशिश भर है। शुरुआत से ही, यानी 1950 के दशक में जनसंघ के अवतार के दौरान ही, बीजेपी के घोषणापत्रों में विदेश नीति सिद्धांत के संदर्भ में कुछ खास नहीं रहा है। हालांकि, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अपने लेखों में अपने विचार रखे हैं, जो निश्चित रूप से हमें यह समझने में मदद करते हैं कि भारत दुनिया में क्या करने का प्रयास कर रहा है।
एस जयशंकर, जिनकी पहली किताब 2020 में ट्रंप की हार से कुछ वक्त पहले ही प्रकाशित हुई थी, उसमें उनका मानना है कि मौजूदा समय में अमेरिका और यूरोप में कुछ सिकुड़न होगी यानी वे भीतर की ओर देखेंगे, जबकि चीन का उदय जारी रहेगा। इससे भारत जैसे देशों के लिए दुनिया के साथ अपने जुड़ाव में अवसरवादी होने की गुंजाइश खुलेगी और -यही मुख्य बात है-इसके लिए उन्हें निरंतरता की आवश्यकता नहीं है।
भारत एक ‘बहु-ध्रुवीय एशिया’ चाहता था - जिसका अर्थ है कि भारत चीन के साथ बराबरी का दावा कर सकता था। शब्दाडंबर का सहारा लेते हुए, जयशंकर लिखते हैं कि कई मुद्दों को हवा में ही रखना होगा, जिन्हें भारत कुशलता से संभाल लेगा। यह दरअसल अवसरवाद है, लेकिन ठीक है, क्योंकि अवसरवादके बारे में जयशंकर बताते हैं कि यह तो भारत की संस्कृति में है।
यह अद्भुत अंतर्दृष्टि शायद हमें यह समझने में मदद करेगी कि हमने इजरायल द्वारा जारी नरसंहार और बच्चों को भूख से मारने के खिलाफ मतदान से भारत ने परहेज क्यों किया।
जयशंकर कहते हैं कि महाभारत हमें छल और अनैतिकता से हमें ‘नियमों के मुताबिक न खेलने’ की सीख देती है। द्रोण द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांगना, इंद्र द्वारा कर्ण का कवच हड़पना, अर्जुन द्वारा शिखंडी को मानव ढाल के रूप में इस्तेमाल करना - ये सब ‘प्रथाएं और परंपराएं’ थीं।
नीति में असंगति न केवल ठीक थी बल्कि आवश्यक भी थी क्योंकि बदलते हालात में ‘स्थिरता के बारे में जुनूनी होने’ का कोई तुक नहीं है। ऐसे सिद्धांत को क्या कहा जा सकता है? अपने भाषण में, जिसमें उन्होंने पहली बार अवसरवाद और असंगति के इस सिद्धांत को सामने रखा था, जयशंकर ने कहा था कि इसे कोई नाम देना मुश्किल है।
वे जुमलों और मुहावरों को अपनाते हैं और फिर त्यागते हैं – मल्टी अलाइनमेंट यानी 'बहु-संरेखण' ('बहुत अवसरवादी लगता है') और 'इंडिया फर्स्ट' ('स्व-केंद्रित लगता है')। वे अपनी बात 'समृद्धि और प्रभाव को आगे बढ़ाने' की वकालत करते हुए आगे ले जाते हैं, और कहते हैं कि यह सटीक तो है लेकिन अधिक आकर्षक नहीं है। उनका मानना है कि यदि लंबे समय तक प्रयास किया जाए, तो अंततः कोई नाम सामने आएगा, क्योंकि चुनौती का एक हिस्सा यह है कि हम अभी भी एक बड़े बदलाव के शुरुआती चरण में हैं।
विरोधी इस बात पर जोर देंगे कि यह कोई वास्तविक विदेश नीति नहीं थी। यह तो महज एक आवरण थै, जो पहले से चल रही बातों के ऊपर डाल दिया गया था। जिस चीज में मोदी की दिलचस्पी थी – वह थी असंगत और दिखावटी औपचारिकता, जिसे एक सार्थक सोच के रूप में पेश किया जा रहा था। विरोधी यह भी पूछेंगे कि जयशंकर का सिद्धांत बीजेपी द्वारा पेश की गई बयानबाजी से अलग क्यों है। सच कहा जाए तो भारत की उस सभ्यतागत इकाई में कोई भूमिका नहीं है, जिसे नेहरू से लेकर बीजेपी तक के राष्ट्रवादियों ने इतना महत्व दिया है। इसमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ शैली की कोई रूमानियत या विश्वगुरु-शैली का दिखावा नहीं है। जयशंकर के नामहीन सिद्धांत में नैतिकता और आचार-विचार के सभी रूपों को नकार दिया गया है। यह भारत का बहुलवाद के बल पर दुनिया से जुड़ना नहीं है।
सच तो यह है कि दुनिया एक लेन-देन वाली जगह है और भारत को इसका फ़ायदा उठाने के लिए पर्याप्त रूप से कुशल होना चाहिए। इस सोच का एक महत्वपूर्ण तत्व यूक्रेन में युद्ध का फ़ायदा उठाना और सस्ता रूसी तेल खरीदना होता। ईंधन के लिए रूस पर निर्भर यूरोप, शायद ही दूसरे देशों को रूस से खरीदारी करने पर कुछ कह पाता। भारत ने और चीन ने भी, ऐसा ही किया।
यह कितना सस्ता सौदा था? अप्रैल-दिसंबर 2022 के दौरान आयातित कच्चे तेल की औसत कीमत 99.2 डॉलर प्रति बैरल थी। अगर रूस से खरीदे तेल को अलग कर दें, तो औसत कीमत 101.2 डॉलर थी, जिसमें प्रति बैरल 2 डॉलर की बचत है। यह पैसा भारतीय नागरिकों के पास वापस नहीं आया - इसके बजाय इससे निजी रिफाइनरियों को मुनाफा मिला।
जयशंकर ने यह अनुमान नहीं लगाया था कि उनका यह सिद्धांत दो-तरफा काम करता है। जिस दुनिया की उन्होंने कल्पना की थी, उसमें दूसरे लोग भी भारत का फ़ायदा उठाने की कोशिश करेंगे और उसके साथ भी अवसरवादी तरीके से पेश आएंगे। इससे यह समझने में मदद मिल सकती है कि हमारे आखिर दुनिया को अपने पक्ष में करने की कोशिशों पर दुनिया की इतनी ठंडी प्रतिक्रिया हमें क्यों मिली है।
जैसा कि संयुक्त राष्ट्र में अहम मुद्दों पर हमारे वोटिंग रवैये से जाहिर हो चुका है, हमने दुनिया के साथ लेन-देन वाला विकल्प चुना है। प्रमुख शक्तियांइसे समझती हैं और स्वीकार करती हैं और बदले में वे हमारे साथ लेन-देन करेंगी भी। यह अच्छी, बुरी या उदासीन विदेश नीति है या नहीं, यह तो पाठक ही तय करें।
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