हमने महज लोकतंत्र को मृत्यु से बचाया है, यह अब भी आईसीयू में ही है!

हम वास्तव में नहीं जीते हैं। लोकतांत्रिक संस्थाएं अब भी अपहृत हैं, मीडिया अब भी बिका हुआ है, कॉरपोरेट अब भी मैदान में हैं, और यह देखना चिंताजनक है कि बीजेपी को शहरी भारत में अब भी समर्थन हासिल है।

फोटो : Getty Images
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नवजीवन डेस्क

सच कहूं तो, चुनाव शुरू होने के बाद से ही सड़क पर जनता के बीच उतरे मेरे राजनीतिक पत्रकार मित्रों की कुछ रिपोर्ट और मेरे पिता जो भी कहते रहे, उसके बावजूद, मुझे लग रहा था कि नफरत की जीत हो गई है। हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के उत्साह ने मेरे प्यारे देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और हमें तब तक अपना सिर झुकाकर इसके लिए कड़ी मशक्कत करते रहने की जरूरत है जब तक हम मीडिया-मोदी संयोग से बहुत अच्छी तरह से वित्त पोषित, संगठित और फासीवादी गठजोड़ को उखाड़ फेंकने में सफल नहीं हो जाते। 

लेकिन मैं इसे उन आशावादियों पर छोड़ रही हूं जो अन्यथा सोच रहे थे।

मैंने वाकई भारत जोड़ो यात्रा से लेकर पीडीए (पिछड़े-दलित-अल्पसंख्यक) के रूप में लाखों लोगों की भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के लिए इंडिया गठबंधन के काम की तारीफ की। जन आंदोलनों से जुड़े लोगों ने बहुत मेहनत की। साथी पर्चे बांट रहे थे, यूनियन के लोग रैलियां निकाल रहे थे और स्वयंसेवक मतदाताओं का हिसाब-किताब रख रहे थे। यह वास्तव में श्रमिक, दलित, आदिवासी, बहुजन, मुस्लिम, हाशिये पर रहने वाले लोग हैं जिन्होंने पूरे देश को यह भरोसा दिलाया है कि इस धरती पर कोई भी ‘दैवीय’ या ‘अवतार’ नहीं है। कोई भी नेता अजेय-अपराजेय नहीं है। और मैं उन उत्साही यूट्यूबर्स को कैसे भूल सकती हूं जो लगातार होने वाले अनर्गल प्रचार का प्रतिकार भी कर रहे थे, सच को आम जन तक पहुंचा रहे थे।

विपक्ष जो लड़ाई लड़ रहा था, अत्यंत कठिन थी। असंभव सी दिखने वाली बाधाओं के सामने- चुनावी बॉण्ड को याद कीजिए, चुनाव आयोग का घोर पक्षपातपूर्ण आचरण, बिका हुआ मीडिया, याचक बनी न्यायपालिका, बीजेपी आईटी सेल के झूठ और नफरती बातें, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के बारे में सोचिए। नागरिक समाज पर हमलों, कांग्रेस के बैंक खाते सीज करने का मामला, स्वयं प्रधानमंत्री के नफरती भाषणों को याद कीजिए... लेकिन यह तो संविधान में लोगों का भरोसा था जिसने बीजेपी और उसके समर्थकों को बड़ी विनम्रता से परे धकेल दिया। कल्पना कीजिए कि चुनाव अगर वाकई स्वतंत्र और निष्पक्ष होते तो आज नजारा कैसा दिखता।

मेरा हमेशा से मानना ​​रहा है कि हर ‘जालिम’ का अंत आता है, लेकिन मुझे नहीं पता था कि मोदी-शाह की बीजेपी इसे इतनी जल्दी देख लेगी। 

जो बात सबसे ज्यादा आश्वस्त करने वाली थी, वह यह कि विपक्ष ने इस चुनाव में बीजेपी को अपना कोई राजनीतिक आख्यान गढ़ने का मौका ही नहीं दिया, इसने उन्हें नफरत फैलाकर मतदाताओं को विभाजित करने का अवसर नहीं दिया। वे अपनी विचारधारा पर मजबूती से कायम रहे और आम लोगों की रोजमर्रा की चिंताओं जैसे महंगाई और बेरोजगारी को उजागर करते रहे; संविधान पर बीजेपी के हमलों के बारे में लोगों को बताते रहे। उसकी रक्षा कैसे हो, इसके प्रति सचेत करते रहे। मैंने राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और कुछ अन्य लोगों के भाषण सुने और उनके समाजवादी सोच और कौशल से प्रभावित हुई। यह चुनावी जनादेश लोक कल्याण के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता की भी जीत है।


किसी ने पूछा कि जब मोदी प्रधानमंत्री बने ही रहेंगे तो फिर हम जश्न क्यों मना रहे हैं! सच है कि ‘गुब्बारा तो रहेगा लेकिन इतना तो हुआ ही है कि उसकी हवा निकल गई है’। सर्वोच्च नेता को अब ‘गठबंधन धर्म’ का पालन करना सीखना होगा जो वैसे तानाशाहों के लिए आसान नहीं होता जिन्होंने खुद को लेकर दैवीय उत्पत्ति और अजेय-अपराजेय होने जैसा भ्रम पालना शुरू कर दिया था। लोग अब बोलने से नहीं डरेंगे। आप लोगों के घर ढहा देते हैं, आप हमारे राष्ट्रीय संसाधन सांठगांठ वाले कारोबारियों को सौंप देते हैं जबकि गरीब और गरीब होता गया है और उनके लिए गुजारा असंभव होता जा रहा है... यह सोचना कितना बड़ा धोखा है कि यह सब अनंतकाल तक जारी रह सकता है।

मेरा मानना है कि लोकतंत्र में किसी भी एक पार्टी को कभी भी बहुमत नहीं मिलना चाहिए। मजबूत विपक्ष वाली गठबंधन सरकार में नियंत्रण और संतुलन बना रहता है। भारत के लोग एक मजबूत विपक्ष को चुनकर लोकतंत्र की रक्षा करने में कामयाब रहे जो उम्मीद है कि सत्तारूढ़ गठबंधन को जवाबदेह बनाए रखेगा।

इस जनादेश ने कुछ सुखद अहसास कराने वाली जीत भी दी हैं। अयोध्या से बीजेपी के निष्कासन के बाद नास्तिक भी राम-भक्त बन सकते हैं। यह सब कितना सुखद है! उन्होंने अभेद्य किला माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में बीजेपी को परास्त कर दिया। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के लोगों ने भी उन्हें बताया कि उन्होंने हमारे किसानों के साथ जैसा व्यवहार किया, उससे वे खुश नहीं हैं। कितना सुखद था आदिवासी राजकुमार रोत को उस बांसवाड़ा से जीतते हुए देखना जहां मोदी ने इस्लामोफोबिक नफरत भरे भाषण का एक नया मानदंड ही स्थापित कर दिया। अहंकारी स्मृति ईरानी को किशोरी लाल शर्मा से, वह भी इतनी बुरी तरह हारते देखना अच्छा लगा। क्राउडफंडिंग अभियान चलाने वाली महिला जेनीबेन ठाकोर को गुजरात में बीजेपी के खिलाफ जीतते देखना कुछ अलग ही अहसास दे रहा था।

मैं उत्साहित हूं कि संसद में इस बार कुछ अविश्वसनीय रूप से मुखर सांसद होंगे जो पहली बार चुने गए। मैं इकरा चौधरी, शशिकांत सेंथिल, चन्द्रशेखर आजाद, संजना ठाकुर, गनीबेन, राजकुमार रोत और हमारे कई अन्य साथियों को सुनने के लिए और ज्यादा इंतजार नहीं कर सकती। गर्व है कि इनमें से कुछ मेरे  मित्र हैं। जरा उन सवालों के बारे में सोचिए जो वे संसद में पूछेंगे!

4 जून को जैसे ही नतीजे आने शुरू हुए, एग्ज़िट पोल का फर्जीवाड़ा खुलने लगा, न्यूज एंकरों के उदास चेहरे देखने लायक थे! उन गिद्धों की आंखों में उतरा असमंजस और उदासी का भाव आनंद दे रहा था। या क्या हमें यह कहना चाहिए कि ये भुनगे  हमारे लोकतंत्र के अंतिम अवशेषों को खा रहे हैं?


लेकिन यह भी कहना होगा कि यह नफरत पर प्यार की जीत नहीं है। यह जनता के मुद्दों की जीत है। लोगों ने सत्तारूढ़ पार्टी के इस्लामोफोबिया के खिलाफ वोट नहीं दिया; उन्होंने अन्य मुद्दों  पर मतदान किया और यह काम कर गया। हमें अब भी नफरत से लड़ने की जरूरत है।

क्या हम यह उम्मीद करने का साहस कर सकते हैं कि न्यायपालिका अब ज्यादा आजाद होगी, अधिक स्वतंत्र होकर कार्य करेगी? कि विपक्ष उमर खालिद, खालिद सैफी, गुलफिशा और अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई की मांग करेगा।

हम वास्तव में नहीं जीते हैं। लोकतांत्रिक संस्थाएं अब भी अपहृत हैं, मीडिया अब भी बिका हुआ है, कॉरपोरेट अब भी मैदान में हैं, और यह देखना चिंताजनक है कि बीजेपी को शहरी भारत में अब भी समर्थन हासिल है।

हमने महज लोकतंत्र को मृत्यु से बचाया है- है तो यह अब भी आईसीयू में!

इस लेख की लेखिका सबिका अब्बास हैं। सबिका कवि, संगठनकर्ता और शिक्षक हैं।

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