कौन सा उदाहरण पेश करना चाह रहे मूर्ति दंपति, क्या जनगणना प्रक्रिया से भी बाहर रहेंगे!
यह हमारी शिक्षा व्यवस्था के उन नकारात्मक पहलुओं को भी सामने लाता है, जो किसी हद तक विशेषज्ञता तो जरूर प्रदान करती हैं, लेकिन न सिर्फ देश की जमीनी हकीकत से बहुत दूर है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक असमानता की खाई को बढ़ावा देने का काम करती हैं।

कर्नाटका राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा 22 सितंबर से शुरू होकर 31 अक्तूबर को समाप्त होने वाले सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक सर्वेक्षण की आलोचना करने वालों में कुछ बड़े नाम सामने आए हैं। इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति और लेखिका-शिक्षक-समाजसेवी के तौर पर चर्चित उनकी पत्नी सुधा मूर्ति कथित तौर पर यह कहकर सर्वेक्षण टीम को अपने घर से वापस करने के लिए सुर्खियों में हैं कि ‘वह लोग किसी पिछड़ी जाति से नहीं आते’ हैं।
मूर्ति दंपति द्वारा सर्वेक्षण से अलग रहने के इस विवाद से समाज में विशेषाधिकार जमाने की प्रवृति और इससे जनित गाहे-बगाहे सामने आने वाले अहंकार का ही संकेत मिलता है। यह विज्ञान और इंजीनियरिंग जैसी हमारी विशिष्ट शिक्षा व्यवस्था के उन नकारात्मक पहलुओं को भी सामने लाता है, जो किसी हद तक विशेषज्ञता तो प्रदान करती हैं, लेकिन देश की जमीनी हकीकत से कटी हुई है और सामाजिक और आर्थिक असमानता की खाई को बढ़ाने का काम करती हैं।
यह विश्वदृष्टि सकारात्मक कार्रवाई को सार्वजनिक धन की बर्बादी मानती है और इसके मुख्य शब्द- ‘योग्यता’, ‘दक्षता’ आदि जिस शब्दकोश से आते हैं, उसे ‘विशेषाधिकार’ कहते हैं। ‘योग्यता-आधारित’ व्यवस्था की उनकी वकालत को अक्सर ‘मुफ्त की चीजों’ की तलाश में रहने वाले आलसी लोगों के खिलाफ लड़ाई के तौर पर पेश किया जाता है। संभव है किसी दिन उन्हें समझ में आ जाए कि ‘योग्यता’ हासिल करने के लिए ‘अवसर’ की जरूरत होती है, और जिससे भारत में गहरी जड़ें जमाए जातिगत पदानुक्रम और अन्य प्रकार के भेदभाव आबादी के एक बड़े हिस्से को सायास वंचित रखते हैं।
सेलिब्रिटी के समर्थन या विरोध की ताकत से पूरी तरह वाकिफ कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने मूर्ति दंपति द्वारा सर्वेक्षण में भाग लेने से इनकार पर तीखी प्रतिक्रिया जताई है। मुख्यमंत्री ने कहा: “समझना जरूरी है कि यह सर्वेक्षण सिर्फ पिछड़े समुदायों के लिए नहीं है... वह इंफोसिस से हैं, इसका मतलब यह नहीं हो जाता कि वे सर्वज्ञ हैं।”
दरअसल, हम भारतीयों में आईआईटी/ आईआईएम जैसे विशिष्ट संस्थानों, और कतिपय ज्ञान धाराओं या व्यवसाय में पहुंच गए कुछ लोगों के प्रति जैसी ‘श्रद्धा’ और ‘विस्मय’ भाव दिखता है, उसे बदलने की जरूरत है। सिद्धारमैया बिल्कुल सही कह रहे हैं: आईआईटी/आईआईएम की डिग्री आपको सर्वज्ञ नहीं बनाती, न ही कोई बड़ी कंपनी चलाने से आपको यह गुण मिल जाता है।
यह तो सर्वविदित सत्य है कि मूल्य-रहित वैज्ञानिक या तकनीकी ज्ञान लाभ ज्यादा नुकसान पहुंचाता है, क्योंकि निष्पक्षता, सामाजिक न्याय और नैतिकता जैसे मुद्दों से इसका दूर का भी वास्ता नहीं होता। यहां 2001 के एनरॉन पतन की कहानी याद कर लेना बेहतर होगा, जो उस समय तक अमेरिकी दिवालियापन का सबसे बड़ा मामला था। कंपनी में उच्चकोटि के इंजीनियर, पीएचडी धारक और एमबीए की अच्छी-खासी फौज तैनात थी; और ‘कमरे में बंद रहने वाले यही चतुर सुजान’ थे, जो एनरॉन का भट्ठा बैठाने के लिए जिम्मेदार थे।
बेशक, मूर्ति परिवार को अपनी जाति या आर्थिक स्थिति के बारे में कोई भी जानकारी देने या न देने का अधिकार हासिल है क्योंकि सर्वेक्षण में भाग लेना स्वैच्छिक है। लेकिन भारतीय आईटी सेवाओं में शुरुआती प्रगति से लाभान्वित होने वाले सॉफ्टवेयर इंजीनियरों के रूप में, वे पिछड़े वर्ग के लिए नीतियां बनाने और उन्हें सेवाएं प्रदान करने में मजबूत भूमिका निभाने वाले मौजूदा आंकड़ों के महत्व को जरूर समझेंगे।
मूर्ति दंपति का सर्वेक्षण में भाग लेने से इनकार करना, क्योंकि वह स्वयं को इसके दायरे से बाहर समझते हैं, एक प्रकार से उनके अंदर मौजूद तिरस्कार भाव का प्रकटीकरण तो है ही, साथ ही यह भी कि अपने होने के अहसास, जीवन में अपने स्थान, अपनी पहचान और जाति तथा वर्गीय पदानुक्रम में अपनी स्थिति को लेकर वह किस अतिरंजित सोच का शिकार हैं, इसका भी परिचायक है।
जैसा कि कई रिपोर्टों में बताया गया है, सुधा मूर्ति ने कथित तौर पर सर्वेक्षण फॉर्म पर लिखा: “हम किसी पिछड़े समुदाय से नहीं आते हैं। इसलिए, हम ‘ऐसे समूहों’ के लिए आयोजित किसी सरकारी सर्वेक्षण में शामिल नहीं होंगे।’ दूसरे शब्दों में कहा जाए तो एक ऐसी दुनिया भी है जो हमें ‘ऐसे समूहों’ से अलग करती है।
मूर्ति दंपति को पता होना चाहिए कि केन्द्र सरकार भी अगली जनगणना में जातियों की गणना करने पर सहमत हो गई है, और कहा है कि इससे केन्द्र सरकार की “राष्ट्र और समाज के समग्र हितों और मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता” प्रदर्शित होगी। अब, जैसा कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने पूछा भी है कि क्या मूर्ति दंपति राष्ट्रीय जनगणना प्रक्रिया में भाग लेने से भी इनकार कर देंगे?
जाति सर्वेक्षण को लेकर एक लक्षित आरोप है कि यह कल्याणकारी उपायों के रूप में तुष्टिकरण या ‘मुफ्त सुविधाओं’ के लिए जमीन तैयार करता है। दरअसल, इस मामले में स्पष्ट तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर अध्ययन की जरूरत है, क्योंकि यह मौजूदा केन्द्र सरकार ही है जिसने वस्तुगत सब्सिडी के बजाय बिना शर्त नकद हस्तांतरण (यूसीटी) की नीति को प्राथमिकता दी है।
हाल ही में जारी एक रिपोर्ट (प्रोजेक्ट डीईईपी द्वारा ‘भारत में बिना शर्त नकद हस्तांतरण: राह की तलाश और भविष्य की रूपरेखा’) में तर्क दिया गया है कि किस तरह यूसीटी महिलाओं की वित्तीय भागीदारी और समावेशिता को बढ़ावा देने का एक जरिया बन गए हैं, जिससे उनकी पहुंच आसान हुई है और मुश्किलें दूर हो गई हैं।
केन्द्र सरकार द्वारा यूसीटी में पिछले कुछ वर्षों में आठ गुना वृद्धि हुई है: 2015-16 में 8,560 करोड़ रुपये से 2023-24 में 70,860 करोड़ रुपये तक। अगर हम केन्द्रीय और राज्य यूसीटी को मिला दें, तो यह आंकड़ा 2015-16 में 12,190 करोड़ रुपये और 2024-25 में 280,780 करोड़ रुपये (बजट अनुमान) हो जाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस बात पर आम सहमति है कि ‘यूसीटी को राज्य के आवश्यक कार्यों की जगह नहीं लेनी चाहिए, बल्कि इसे समानता बढ़ाने, अनिश्चितता कम करने और कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच में सुधार के लिए रणनीतिक उपकरण के रूप में काम करना चाहिए।’
रिपोर्ट में यह भी तर्क दिया गया है कि सरकार को अब भी सड़कों, स्कूलों और अस्पतालों जैसी गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक वस्तुओं में निवेश करना चाहिए ताकि नागरिक यूसीटी के पैसे का इस्तेमाल अपना जीवन स्तर सुधारने के लिए कर सकें। साथ ही, चेतावनी भी दी गई है कि: ‘यूसीटी को छिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं के लिए किसी बैंड-एड की तरह नहीं होना चाहिए।’
यह तर्क विकास कार्यों की प्रकृति की जटिलताओं की ओर इशारा करता है। यह कमजोरों के समर्थन और सेवाओं के निर्माण के बीच चुनाव का मामला नहीं है; दोनों को मिलकर काम करना होगा। जिस तरह हमें लक्षित कल्याण की जरूरत है, उसी तरह हमें सार्वजनिक निधि के प्रत्येक रुपये का अधिकतम मूल्य प्राप्त करने की भी जरूरत है। इसका मतलब है बेहतर क्रियान्वयन और निगरानी, दूसरे शब्दों में कहें तो बेहतर शासन। बेहतर शासन के लिए बेहतर आंकड़ों की जरूरत होती है, और जब विशेषाधिकार प्राप्त और शक्तिशाली लोग आंकड़ा-संग्रह की प्रक्रिया में बाधा डालते हैं, जैसा कि कर्नाटक में मूर्ति दंपति ने किया, तो वे संदेह, विभाजन और पूर्वाग्रह का बीज बो रहे होते हैं।
(जगदीश रतनानी पत्रकार और एसपीजेआईएमआर में संकाय सदस्य हैं। यह लेख द बिलियन प्रेस के सौजन्य से)
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