स्वागत 2019: मौका भी है, दस्तूर भी है, फिर भी क्या कहना सही होगा हैप्पी न्यू ईयर !

मौजूदा सर्दियों से लेकर गर्मियों की आहट तक पूरा देश किसी रियलिटी टीवी की तरह एक पीड़ादायक राजनीतिक घमासान से दोचार होने वाला है, इसके लिए किसी ज्योतिषी की जरूरत नहीं है।इस सबके बाद क्या होगा, यह भी को भविष्यवक्ता नहीं बता सकता।

फोटो : सोशल मीडिया
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रमन स्वामी

जो लोग अनिश्चितता पर फलते-फूलते हैं और आरजकनता की लालसा रखते हैं, उन लोगों को मनोवैज्ञानिक नीड फॉर ड्रामा सिंडरोम से पीड़ित यानी नाटकीयता आकांक्षी कहते हैं।

ऐसे लोग जो इस नाटकीयता के आकांक्षी हैं, उनके लिए तो वर्ष 2019 हैप्पी न्यू ईयर होगा। यह फार्मूला तो दुनिया भर के लोगों पर लागू होता है, और खास तौर से भारतवासी तो इसके आदी हैं।

अब से शुरु होकर अगले पांच महीने तक यानी आम चुनावों तक तो देश में राजनीति के धारावाहिक का सीधा प्रसारण होने वाला है, और इसमें तमाम किस्म के चरित्र अपनी पूरी शिद्दत के साथ सामने आने वाले हैं।

भावनाएं अपना जोर मारेंगी, रोज-रोज गुस्से के किस्से सामने आएंगे, गाली-गलौज का माहौल भी बनेगा, फेक न्यूज बनाने वालों की चांदी होगी, कभी खुशी, कभी गम और कभी निराशा और कभी भय का माहौल होगा। इन सबको अगर कोई चीज़ आपस में जोड़ेगी, तो वह होगी अनिश्चितता, अस्थिरता और पीड़ा।

मौजूदा सर्दियों से लेकर गर्मियों की आहट तक पूरा देश किसी रियलिटी टीवी की तरह एक पीड़ादायक राजनीतिक घमासान से दोचार होने वाला है, इसके लिए किसी ज्योतिषी की जरूरत नहीं है।इस सबके बाद क्या होगा, यह भी को भविष्यवक्ता नहीं बता सकता। उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद कुछ देर की शांति होगी, क्योंकि जो जीतेंगे वह सरकार बनाने की कवायद में जुट जाएंगे और जो हारेंगे वह अपने जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश में खुद ही सन्नाटे में चले जाएंगे।

लेकिन इस क्षणिक शांति की भी कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि अगर नतीजों ने त्रिशंकू लोकसभा सामने रख दी या फिर बड़े पैमाने पर चुनावों में धांधली सामने आ गई, या फिर प्रचार के दौरान ही हिंसा भड़क उठी या कुछ ऐसा घटित हो गया जिसकी कल्पना तक अभी नहीं की जा सकती, तो यह शांति भंग होगी। कुछ भी हो सकता है, किसी भी अनहोनी से इनकार नहीं किया जा सकता।

कुछ भी हो, चुनाव का नतीजा कुछ भी, कोई अगले पांच साल तक देश चलाने के लिए जनादेश हासिल करे, देश के हालात सामान्य होने की संभावना गौण ही दिखती है।

नई सरकार या नए प्रधानमंत्री के लिए परंपरागत रूप से मिलने वाला हनीमून पीरियड भी शायद ही होगा। शोरशराबे से मुक्ति नहीं मिलने वाली, जनाक्रोश और असहमति की आवाज़े खत्म नहीं होने वाली, आम लोगों को होने वाली तकलीफों और परेशानियों का की हल नहीं निकलने वाला।

अगले छह महीने शांति या सुकून के या उम्मीद और विश्वास के नहीं होंगे। इस दौरान बेचैनी बढ़ेगी, चुनावी वादे तुरंत पूरे करने की मांग उठेगी और इसके लिए कोई तर्क या वजह कोई नहीं सुनने वाला।

हर देश को परेशानियों और दिक्कतों से हर दौर में दो-चार होना पड़ता है, और किसी को यह दावा नहीं करना चाहिए कि अगले 12 महीने देश के लिए आजादी के बाद के सबसे तकलीदेह महीने होंगे। वैसे भी एतिहासिक तुलनाएं नागवार और व्यक्तिनिष्ठ होती हैं। लेकिन, यह कहना सबसे सुरक्षित होगा कि अबसे दिसंबर 2019 तक समस्याओं, दिक्कतों और परेशानियों से देश की नाक में दम हो जाएगा।

आम तौर पर गुजरते साल और आते हुए साल के मौके पर उम्मीद और आशा की बातें करने की परंपरा रही है। लेकिन, जो हाल है आज उसमें भी हम उम्मीद और आशा की बातें करेंगे तो शायद यह हकीकत से दूर और बेईमानी होगी।

राजनीति पाताल में जा चुकी है। राजनेता बिना किसी शर्म के अश्लील शब्दों का प्रयोग कर रहे। अर्थव्यवस्था बेहद बुरे दौर में जा चुकी है, बेरोज़गार युवाओं की फौज नौकरी और काम के लिए तरस रही है, गुस्साए किसान अपनी फसल की वाजिब कीमत मांग रहे हैं, इंसाफ की मांग करते दलितों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है, अल्पसंख्यक असुरक्षा के दौर से गुज़र रहे हैं और धार्मिक उन्मादी हाशिए से उठकर समाज के केंद्र बिंदु बन गए हैं।

बीते चार साल में समाज का तानाबाना इतनी बुरी तरह छिन्न भिन्न हुआ है कि इससे उभरे घावों को भरने में समय के साथ ही बेहद कठिन प्रयास भी करने होंगे। लोकतांत्रिक संस्थाओं की साख सबसे निचले पायदान पर पहुंच चुकी है। कार्पोरेट और शहरी उच्च वर्ग अपने ही बनाए कोष्ठों में हैं, दबे-कुचले, निराश और प्रताड़ित आमजनों की आवाज सुनाई ही नहीं दे रही उन्हें।

जब साल बदल रहा है तो यह कड़वी हकीकत हमारे सामने है। लेकिन, 2019 की शुरुआत में शायद यही सबसे अच्छा समय होगा जब हम परंपरागत रूप से नए साल का स्वागत करें और एक दूसरे से कहें हैप्पी न्यू ईयर।

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