'आपको राममंदिर निर्माण का श्रेय लेने का क्या अधिकार है भला?'
संघ के तत्कालीन प्रमुख बालासाहब देवरस ने अशोक सिंघल से कहा था कि राम मंदिर तो देश में बहुत हैं, अयोध्या में एक और बन गया तो क्या हो जाएगा? इसलिए हमें उसके लिए जारी आंदोलन के जरिये हिंदुओं में आ रही चेतना का लाभ उठाना और देश की सत्ता पर कब्जा करना चाहिए।

गत मंगलवार की बात है- 25 नवम्बर की। 22 जनवरी, 2024 को जिस अर्धनिर्मित राममन्दिर में गाजे-बाजे के साथ कहें या बेहिसीभरी ढिठाई से 'प्राण-प्रतिष्ठा' कर गये थे, पूर्ण निर्मित होने पर उसके शिखर पर 'धर्म-ध्वजा' फहराने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के अनेक अन्य सदस्यों के साथ अयोध्या में थे तो प्रशासनिक पाबन्दियों और बन्दिशों के चलते घरों में रहने को मजबूर मुझ जैसे अनेक अयोध्यावासी अपनी ऊब कहें या खीझ मिटाने का कोई उपाय नहीं ढूंढ पा रहे थे।
लाचारी में बहुत देर तक उद्विग्न रहने के बाद 'मरता क्या न करता' की तर्ज पर मैंने अपने घर से थोड़ी ही दूर स्थित नवाब शुजाउद्दौला के 'ग़ुलाबबाड़ी' नाम से प्रसिद्ध मकबरे की ओर कदम बढ़ाये तो वहां पहुंचने पर पाया कि मेरे ही जैसे मर्ज के कई और शिकार पहले से पहुंचे हुए हैं। उनमें कोई किसान है तो कोई मजदूर। कोई अध्यापक तो कोई प्रिंसिपल या प्रोफेसर। कोई वकील तो कोई नौकरीपेशा। कोई लेखक, पत्रकार तो कोई बेरोजगार। कोई नेता तो, कोई कार्यकर्ता। एक दो व्यवसायी भी। हां, कोई अल्पसंख्यक, तो कोई बहुसंख्यक। कुल मिलाकर ऐसा जमावड़ा कि कहने का मन हो: साईं या संसार में भांति-भांति के लोग।
उनमें से एक ने मेरे पहुंचते ही बरबस विह्वल से होकर जमावड़े से निकलकर मेरी दाहिनी बांह आ पकड़ी और कहा, 'अब जब राममंदिर का निर्माण पूरा हो गया है और प्रधानमंत्री ने उसके शिखर पर धर्म-ध्वजा फहरा दी है, आइये, मिलकर प्रार्थना करें कि अब उन्हें अयोध्यावासियों पर तरस आये, रहम करें वे और बार-बार हमारी सांसत करने से बाज आयें।'
मैं कुछ कहता, इससे पहले ही दूसरे सज्जन बोल पड़े, 'ये लो जी, इनसे मिलो। इनको लगता है कि इन्होंने प्रार्थना शुरू की नहीं कि प्रधानमंत्री को तरस आया और उन्होंने रहम करते हुए इनको सांसत से निजात दिलाई! अरे भलेमानुष, वे इतना ही रहम करते या ऐसे ही प्रार्थनाओं की भाषा समझते और उन्हें स्वीकार करते तो जहां आज हैं, वहां होते? और वहां बने रहने के लिए जो कुछ कर रहे हैं, वह करते? क्या उन्हें पता नहीं है कि वे जो कुछ कर रहे हैं, उससे धर्म की नहीं अधर्म की ही ध्वजा ऊंची हो रही है?'
चूंकि मैं ऐसी किसी 'बहस' के लिए तैयार नहीं था, इसलिए पहले तो असहज हो उठा, फिर संभलकर कुछ कहना चाहा तो उसका मौका नहीं मिला। तीसरा शख्स बोल पड़ा, 'वाह, क्या चालीस सेर बात कही है! छल और फरेब से धर्म की ध्वजा ऊंची भी कैसे हो सकती है भला?'
छल और फरेब! इतनी देर में खुद को अलग-थलग महसूस करने लगे एक पीले गमछे वाले बुजुर्ग ने सुना तो तिलमिला कर रह गये। इसलिए और कि कहने वाले ने 'मन की बात' कहने से जानबूझकर परहेज किया और 'चालीस सेर बात' शब्द इस्तेमाल किया था। आहत से होकर वे बोले, 'यह क्या कि जो भी मुंह में आ रहा है, बोले जा रहे हो! कौन-सा छल किया है उन्होंने भाई और कौन-सा फरेब रचा है, बताओ तो जरा। राममंदिर बनवाना छल या फरेब करना है?'
वे चुप हुए तो इतने कान्फीडेंस में थे कि उन्हें लग रहा था कि तीसरे शख्स को कोई जवाब नहीं सूझेगा और वह झुंझलाने और बगलें झांकने लगेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उस शख्स ने बेहद शांत भाव से कहा, 'मैंने राममंदिर बनवाने को लेकर ऐसा कुछ कब कहा भाई? लेकिन जो मंदिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उससे जुड़े विवाद के अंतिम निपटारे के फलस्वरूप उसी के आदेश से बना, उसे बार-बार अपना बनवाया बताना छल के सिवा क्या है भला? फिर प्रधानमंत्री ने छलिया बनकर हमें बार-बार यह झांसा देने के लिए कौन-सा फरेब नहीं रचा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों भारतीय जनता पार्टी, उसकी सरकारों और विश्व हिंदू परिषद वगैरह ने जी-जान न लगाया होता, तो मन्दिर बनता ही नहीं!'
सुनकर गमछे वाले बुजुर्ग, जो अब उल्टे खुद ही तिलमिला उठे थे, बोले, 'तो क्या इन सबने मन्दिर निर्माण के लिए जी-जान नहीं लगाये?' तीसरा शख्स हंसने लगा। पेट में बल पड़ गए तो बोला, 'राममंदिर आंदोलन का इतिहास तो इसकी गवाही नहीं देता। बताता है कि मंदिर का तो उन्होंने नाम भर लिया और सारी कवायदें राजनीतिक लाभ के लिए कीं। मंदिर को हिंदुओं की आस्था का सवाल भी उन्होंने इस लाभ को लगातार बढ़ाने के लिए ही बनाया।'
बुजुर्ग को तत्काल कोई प्रतिवाद नहीं सूझा। लेकिन माहौल में चुप्पी छा जाती, इससे पहले ही नेता बोल उठा, 'बात तो सही है। 1984 से पहले राममंदिर निर्माण इनमें से किसी एक के भी एजेंडे में नहीं था, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1925 में और उसका राजनीतिक बाजू भारतीय जनसंघ 1951 में गठित हो चुके थे। भारतीय जनसंघ को यावतजीवन, तो संघ को 1977 में भारतीय जनसंघ के जनता पार्टी में विलय और बीजेपी के रूप में ‘पुनर्जन्म’ के बाद तक बाबरी मस्जिद में ‘तालों में बंद भगवान राम की मुक्ति’ या वहां राम मंदिर निर्माण की याद नहीं आई थी। संघ के संस्थापक डाॅ. केशवराव बलिराम हेडगेवार और 1940 से 1973 तक उसके सरसंघचालक रहे माधव सदाशिव गोलवलकर को भी नहीं।'
नेता का इतना कहना था कि जैसे बर्र के छत्ते में हाथ चला गया। बुजुर्ग बिफरने लगे तो उन्हें चुप कराते हुए वकील ने कहा, '1977 में केंद्र में सत्तारूढ़ हुई जनता पार्टी में टूट-फूट, मोरारजी और चरण सिंह की सरकारों के पतन और 1980 के लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में करारी हार के बाद भारतीय जनसंघ ने जनता पार्टी से अलग होकर बीजेपी का रूप धारण किया तो भी उसके पांच आधारभूत सिद्धांतों में राममंदिर की बाबत कुछ नहीं था।
उसके सिद्धांत थे: राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय एकता, लोकतंत्र, सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता, गांधीवादी समाजवाद और मूल्यों पर आधारित साफ-सुथरी राजनीति। अलबत्ता, इसके बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जैसे भी बने, बीजेपी का राजनीतिक आधार बढ़ाने के लिए विश्व हिन्दू परिषद को आगे कर दिया तो उसने 7-8 अप्रैल, 1984 को दिल्ली में पहली धर्म-संसद आयोजित की और उसमें ‘राम जन्मभूमि की मुक्ति’ की योजना बनाई। फिर 25 सितंबर, 1984 को सीतामढ़ी से रामजानकी रथयात्रा निकाली गई और 6 अक्टूबर, 1984 को सरयू के किनारे रामजन्मभूमि की मुक्ति की शपथ ली गई।'
वकील ने पल भर को रुककर गहरी सांस ली और फिर शुरू हो गया, 'तदुपरांत ‘ताला खोलो पदयात्रा’ भी निकलनी थी, लेकिन वह 31 अक्टूबर, 1984 को हुई तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत की भेंट हो गई। बीजेपी को 1984 का लोकसभा चुनाव उनकी शहादत की छाया में लड़ना पड़ा तो उसको कुल दो सीटें मिलीं और प्रेक्षकों ने लिखा कि वह गांधीवादी समाजवाद के घाट पर आत्महत्या करते-करते बची।'
फिर? किसी ओर से आवाज आई तो वकील के बजाय बात को एक डिग्री कालेज में हिंदी पढ़ाने वाले प्रोफेसर ने आगे बढ़ाया, 'वकील साहब बिल्कुल सही कह रहे हैं। यही वह मोड़ था, जहां अपने राजनीतिक भविष्य के लिए व्यग्र बीजेपी समेत प्रायः सारे संघ परिवार को ‘भगवान राम की मुक्ति’ की शिद्दत से जरूरत महसूस होने लगी। तब इसके लिए उनके आंदोलन का नारा था- आगे बढ़ो जोर से बोलो, जन्मभूमि का ताला खोलो। इसी क्रम में 18 अक्टूबर, 1985 को रामजन्मभूमि न्यास बना और जनवरी, 1986 में अयोध्या में संत-सम्मेलन किया गया। इसको लेकर राजनीतिक लाभ की होड़ तब और तेज हो गई, जब फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज कृष्णमोहन पांडे ने एक वकील की अर्जी पर एक फरवरी 1986 को दूसरे पक्ष को सुने बिना बाबरी मस्जिद में 22-23 दिसंबर, 1949 को मूर्तियां रख दिए जाने के बाद से ही बंद ताले खोल देने का आदेश दे दिया।
अब तक इस संबंधी राजनीति का तवा खासा गरम हो चुका था। सो, जून 1989 में बीजेपी अपनी पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) की बैठक में पहली बार मामले को अपने खुले एजेंडा पर ले आई। जाहिर है चुनावी फायदे के लिए, जो 1989 के लोकसभा चुनाव में उसे मिला भी- उसकी सीटें दो से बढ़कर 85 हो गईं। फिर तो उसे इसका चस्का-सा लग गया, जो 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा, 23 अक्टूबर को बिहार में उनकी गिरफ्तारी, बीजेपी द्वारा वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापसी, विहिप द्वारा अयोध्या में 30 अक्टूबर, 1990 की ‘कारसेवा’ और उसके कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग तक जा पहुंचा। तब भरपूर राजनीतिक लाभ की आशा में मई, 1991 के लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में बीजेपी पहली बार इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में लाई।'
घोषणा पत्र में क्या लिखा उसने? किसी ने पूछा तो जवाब आया, 'यह कि जन्मस्थान पर श्रीराम मंदिर का निर्माण हमारी सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक है और पार्टी वहां मौजूद ढांचे को ससम्मान अन्यत्र स्थानांतरित करके ‘वहीं’ श्रीराम मंदिर बनवाने के लिए प्रतिबद्ध है। इस ‘प्रतिबद्धता’ ने उसे लोकसभा की 120 सीटें तो दिलाईं ही, साथ ही हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में पहली बार पूर्ण बहुमत का ‘उपहार’ भी दिया।'
तब तक पत्रकार बोल उठा, 'हां, इसके बाद कल्याण सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और 6 दिसंबर, 1992 को बीजेपी नेताओं की उपस्थिति में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी और उसकी जगह एक अस्थायी ढांचा बना दिया। तब दावा किया जाने लगा कि सर्वोच्च न्यायालय में दिए हलफनामे के विपरीत बाबरी मस्जिद ढहवाकर कल्याण ने राम मंदिर के लिए अपनी सरकार दांव पर लगा दी, लेकिन बाद में किसी बीजेपी या विहिप नेता ने उसके ध्वंस में अपनी कोई भूमिका स्वीकारने की हिम्मत नहीं दिखाई। बीजेपी को उम्मीद थी कि 1996 के लोकसभा चुनाव में इस ध्वंस के बूते वह लोकसभा में सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच जाएगी।
मगर उसे 161 सीटें ही मिलीं और सबसे बड़ी पार्टी होकर भी वह महज तेरह दिन के लिए सरकार में रह सकी, क्योंकि राजनीतिक रूप से अस्पृश्य मानकर किसी भी अन्य दल ने उसे समर्थन नहीं दिया।' इतना बताकर वह हंसा, फिर कहने लगा, '1998 में तो हद ही हो गई। उसने कुछ दलों के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाकर सत्ता पाने के लिए राममंदिर मुद्दे को छोड़कर फिर सिद्ध कर दिया कि वह उसके लिए आस्था के बजाय राजनीतिक सुविधा का ही मामला है। 1996 से 2004 के बीच उसने केंद्र में तीन सरकारें बनाईं और तीनों बार अपना पूर्ण बहुमत न होने के बहाने इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में ही डाले रखा- इस दृष्टिकोण को भी कि यह आस्था का मामला है और अदालत इसका फैसला नहीं कर सकतीं।'
अब प्रिंसिपल की बारी थी। उन्होंने कहा, 'इसी बीच 2001 में विश्व हिन्दू परिषद ने यह भ्रम रचने के लिए कि बीजेपी के मुद्दा छोड़ने के बावजूद वह राम मंदिर निर्माण के लिए प्रयासरत है, 15 मार्च, 2002 से राम मंदिर निर्माण शुरू करने का ऐलान कर दिया, मगर अंततः गोधरा कांड और गुजरात दंगों के बीच ‘शिलादान’ करके ‘खुश’ हो गई! दूसरी ओर विवाद की अदालती सुनवाई भी चलती रही और मध्यस्थता के प्रयास भी। 30 सितंबर, 2010 को हाईकोर्ट का विवादित भूमि के तीन टुकड़े करके तीन दावेदारों में बांट देने का फैसला आया, फिर नौ नवंबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय का, जिसके अनुसार मस्जिद के लिए पांच एकड़ वैकल्पिक भूमि देकर एक ट्रस्ट की देख-रेख में मंदिर बनाया गया।'
लेखक को लगा कि अब उसे भी कुछ कहना ही चाहिए। सो, वह बोला, 'अब यह तो हम देख ही रहे हैं कि हमारे चतुर प्रधानमंत्री ने पहले उस अदालती फैसले का श्रेय लूटा और अब मंदिर निर्माण का श्रेय भी लूट रहे हैं। चाहते हैं कि किसी को याद न रह जाए कि जब मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग की जा रही थी तो उनका रवैया इतना विवादित था कि उनके विरोधी तो विरोधी, पुराने सहयोगी भी उन्हें और उनकी सरकार को घेरते हुए कहते थे- ‘मंदिर वहीं बनाएंगे, तारीख नहीं बताएंगे।’ 2003 में तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी मंदिर निर्माण हेतु विशेष विधेयक लाने की मांग ठुकरा दी थी। फिर अटल के बाद और मोदी से पहले का अपना वक्त अपनी हार्डलाइनर छवि बदलते और दो-दो चुनाव हारते हुए काटा था।'
जानें क्यों, देर से दम साधे बैठे व्यवसायी को लगा कि लेखक आधा ही सच बता रहा है। इस पर उसने नाराज होते हुए-से कहा, 'आप भी क्या बात करते हैं! राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की राम मंदिर निर्माण में आस्था की पोल तो 1986 में बाबरी मस्जिद के ताले खोले जाने के बाद ही खुल गई थी। तब, जब अयोध्या-फैजाबाद के शांतिकामी नागरिकों ने मसले का दोनों पक्षों को स्वीकार्य यानी सर्वमान्य समाधान ढूंढकर सद्भावपूर्वक मंदिर निर्माण का रास्ता साफ कर दिया था। विहिप नेता अशोक सिंघल भी इस समाधान के पक्ष में थे और संघ के हिन्दी और अंग्रेजी मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ और ‘द ऑर्गनाइजर’ भी।
दैनिक ‘जनमोर्चा’ के तत्कालीन संपादक (अब स्मृतिशेष) शीतला सिंह ने अपनी ‘अयोध्या: राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच’ शीर्षक पुस्तक में इसका जिक्र करते हुए लिखा है कि बाद में संघ के तत्कालीन प्रमुख बालासाहब देवरस ने अशोक सिंघल से कह दिया कि राम मंदिर तो देश में बहुत हैं, अयोध्या में एक और बन गया तो क्या हो जाएगा? इसलिए हमें उसके निर्माण की चिंता छोड़कर, उसके लिए किए जा रहे आंदोलन के जरिये हिंदुओं में आ रही चेतना का लाभ उठाना और देश की सत्ता पर कब्जा करना चाहिए।'
शुरू में जिस शख्स ने बरबस मेरी बांह पकड़कर प्रार्थना करने को कहने वाले को यह कहकर चिढ़ाया था कि बस उसके प्रार्थना करने की ही देर है...उसने फिर उसकी चुटकी ली, 'अब उन्होंने देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया है और राममंदिर के निर्माण का झूठा श्रेय लेकर अपनी सत्ता की उम्र बढ़ाते रहने में लगे हैं तो इन भाई को लगता है कि उनके ध्वजवाहक प्रधानमंत्री इनकी प्रार्थना से पसीजकर इन पर रहम कर देंगे। अरे, वे देश के संविधान पर तो रहम कर नहीं रहे, बेरहमी से उसकी दुर्गति किये जा रहे हैं, तो किसी और पर क्या करेंगे? उन्हें अयोध्या के सांसद अवधेश प्रसाद पर भी रहम नहीं ही आया। इसके बावजूद कि वे कह रहे थे कि ध्वजारोहण समारोह का न्योता मिला तो वे उसमें नंगे पैर यानी दौड़े-दौड़े चले जायेंगे। न्योता फिर भी नहीं ही दिया उनको। और उन्हें क्या देते, जब रामभद्राचार्य को भी नहीं दिया।'
प्रार्थना के प्रस्तावक ने फिर भी हथियार नहीं डाले। पूछा, 'लेकिन यह बताइए कि प्रार्थना न करें तो क्या करें भला?'
उत्तर नेता ने दिया, 'पूछें उनसे, हक से पूछें कि राममंदिर निर्माण का श्रेय लेने का क्या अधिकार है उनको भला? और वे चिरौरी-मिनती क्यों नहीं सुनते हैं भला और पीड़ितों पर रहम करना उन्हें क्यों गवारा नहीं होता? वे अभी भी भरपूर चूसी जा चुकी अयोध्या की नारंगी को छोड़ने को क्यों तैयार नहीं हैं और उसके लिए अयोध्यावासियों की छाती पर मूंग क्यों दले जा रहे हैं?'