आखिर नए नागरिकता कानून की जरूरत ही क्या थी?

भारत सरकार तो इस कानून के पहले भी जिसे चाहे, नागरिकता दे ही रही थी और आगे भी ऐसा कर सकती थी l ऐसे में सवाल उठता है कि कहीं असम में एनआरसी में शामिल नहीं हो सके हिंदुओं को नागरिकता देने के लिए तो यह सब नहीं किया जा रहा है?

फोटोः सोशल मीडिया
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उत्तम सेनगुप्ता

संशोधित नागरिकता कानून के बारे में तमाम रिपोर्ट पढ़ने के बाद भी मेरे एक सवाल का जवाब कहीं नहीं मिला। आखिर मोदी सरकार को किसी खास वर्ग को नागरिकता देने के लिए कानून में संशोधन करने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या सरकार ने पिछले सप्ताह संसद को नहीं बताया था कि पिछले तीन-साढ़े तीन साल के दौरान उसने करीब तीन हजार लोगों को नागरिकता दी? जिन्हें दी, वे कौन थे? निश्चित तौर पर वे यूरोपीय, अमेरिकी या अफ्रीकी तो नहीं ही होंगे। अगर नागरिकता अधिनियम-1955 के तहत भारत सरकार जिसे उचित समझे, नागरिकता दे ही सकती थी तो उसे नागरिकता कानून में संशोधन करने की क्या जरूरत थी? इसके दो ही कारण हो सकते हैं। एक, सरकार की मंशा असम में एनआरसी से बाहर रह गए हिंदुओं को नागरिकता देने की रही हो या फिर वह इसपर इसलिए आगे बढ़ रही है कि उसके चुनावी घोषणापत्र में यह शामिल था।

काबिले गौर है कि दुनिया की दूसरी सरकारों की तरह भारत सरकार को भी इस बात का पूरा अधिकार है कि वह नागरिकता संबंधी किसी अनुरोध को स्वीकार करे या ठुकरा दे। एक बार जब आवश्यक जरूरतें पूरी कर दी जाएं तो यह अधिकार सरकार का है कि वह किसी को भी नागरिकता दे और इसमें किसी को कोई गुरेज नहीं। सवाल यह उठता है कि क्या 1955 का नागरिकता कानून या फिर कोई और कानून तीन पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने से रोक रहा था? जब भारत ने लाखों नेपालियों और तिब्बतियों को वर्षों से अपनी धरती पर रहने, काम करने दिया और पुराने कानून के तहत इनमें से कई को नागरिकता भी दी, तो कोई वजह नहीं कि उसी कानून के तहत वह इन तीन देशों के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों और ईसाइयों को नागरिकता नहीं दे पाता।

स्पष्ट है कि इस कानून से यह संदेश दिया गया है कि बेशक दमित बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन ने पहले से ही आवेदन कर रखा हो, उन्हें भारत की नागरिकता नहीं दी जाएगी और अगर बांग्लादेशी क्रिकेटर लिटन दास ऐसी ही इच्छा जताते हैं तो वह और उनका परिवार इस कारण नागरिकता पा सकता है क्योंकि वे हिंदू हैं। क्या ऐसा करना उचित है, क्या यह अंतरराष्ट्रीय कानूनों और सिद्धांतों के अनुकूल है और क्या यह भारतीय संविधान के दायरे में है। इसकी परीक्षा तो अदालत में होगी, लेकिन सामान्य समझ तो यही कहती है कि यह कानून न्यायिक समीक्षा में पास नहीं होने जा रहा। कानून सभी लोगों पर समान रूप से लागू होता है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अलावा अन्य देशों को छोड़ देना और नागरिकता देने के लिए किन्हीं विशेष धर्म के होने की शर्त रखने वाले इस कानून के अंतरराष्ट्रीय परीक्षा में औंधे मुंह गिर जाने की संभावना है।

हां, भारत सरकार यह ठीक कह रही है कि राज्यों को संशोधित नागरिकता कानून को लागू करने से इनकार करने का अधिकार नहीं। राज्य सरकारें नागरिकता नहीं देतीं, यह काम केंद्र का ही है। इसलिए जब ममता बनर्जी ऐलान करती हैं कि उनकी लाश के ऊपर ही बंगाल में संशोधित नागरिकता कानून लागू होगा, तो इसका कोई मतलब नहीं। हां, इतना जरूर है कि राज्य सरकारों के सक्रिय सहयोग के बिना एनआरसी को लागू नहीं किया जा सकता और अगर विपक्ष शासित 16 राज्यों ने एनआरसी को लागू करने से इनकार कर दिया तो केंद्र सरकार के पास ऐसा कोई उपाय नहीं कि इस परअमल कर ले।


अगर सरकार इस तरह का कोई डाटा बेस तैयार करना चाहती है तो इसपर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सरकार के लिए यह जानना जरूरी है कि कौन इस देश का नागरिक है। लेकिन अगर इस सरल प्रक्रिया को किसी खास कटऑफ डेट को डाल कर हर किसी के लिए अपने पिता-दादा के जन्म प्रमाणपत्र वगैरह देना अनिवार्य कर दिया जाए तो सरकार की मंशा पर संदेह तो उठता ही है। इस तरह की प्रक्रिया का आबादी के किसी खास वर्ग को प्रताड़ित करने के लिए दुरुपयोग किया जा सकता है। सत्तारूढ़ दल का समर्थन करने वाले हिंदू अगर आवश्यक प्रमाणपत्र पेश नहीं कर पाए तो भी उन्हें छोड़ा जा सकता है, लेकिन अगर सत्तारूढ़ दल का विरोध करने वाले के साथ भी ऐसी ही स्थिति आई तो उसे बड़ी आसानी से प्रताड़ित किया जा सकता है।

जो लोग एक ही जगह रहे, पले-बढ़े और काम किया, उनके लिए तो फिर भी पंचायत, नगर निगम या अन्य सरकारी दफ्तरों से आवश्यक दस्तावेज जुटाना आसान है लेकिन शरणार्थियों और गरीबों के लिए एक ही स्थान पर टिके रहने की सलूहियत नहीं होती। वे एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट होते रहते हैं। उदाहरण के लिए, मेरे मां-बाप 1947 में शरणार्थी के रूप में तब के पूर्वी पाकिस्तान से कलकत्ता (अब कोलकाता) आए और फिर वहां से देवघर के पास मधुपुर गए, फिर गिरिडीह और अंततः राची में बस गए जहां उनमें से एक की नौकरी हो गई। मैंने छह शहरों में काम किया और आठ बार नौकरी बदली और इस दौरान 10 या इससे अधिक बार मकान बदला। मेरे पास मेरा कोई जन्म प्रमाणपत्र नहीं, न तो मेरे मां-बाप का है। मेरी जैसी स्थिति लाखों-करोड़ों लोगों की होगी।

बहरहाल, सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि पिछले रिकॉर्ड को सहेज कर रखने में सरकार बुरी तरह विफल रही है। सरकार को सबसे पहले अपने घर को दुरुस्त करना चाहिए। उसे जमीन की जमाबंदी, जन्म, मृत्यु और नाम जैसी बुनियादी सूचनाओं में गलतियों को ठीक करना चाहिए। गैर-नागरिकों की पहचान के लिए आप पूरी आबादी को परेशान नहीं कर सकते। आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर वी.के. त्रिपाठी ठीक ही कहते हैं कि अगर सरकार एक चोर को नहीं पकड़ पाती तो वह पूरी आबादी को यह साबित करने के लिए नहीं कह सकती कि वे चोर नहीं हैं।

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