आकार पटेल का लेख: 10 बातें जिनसे पता चलता है कि बीते दो साल में न तो कश्मीर को कुछ हासिल हुआ और न कश्मीरियों को

हमें यह सब ईमानदारी से माना होगा और अपने आप से सवाल पूछना होगा कि आखिर कश्मीर को लेकर 2019 में उठाए गए कदम का भारत और कश्मीरियों को क्या फायदा हुआ।

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आकार पटेल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 अगस्त 2019 के अपने भाषण में अनुच्छेद 370 को प्रयोग से बाहर करने (इसे रद्द या हटाया नहीं गया है जैसा कि व्यापक रूप से माना जाता है) की घोषणा करते हुए कहा था, “अनुच्छेद 370 जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के विकास में बाधा रहा है, लेकिन अब इस बाधा को खत्म कर दिया गया है और एक नए युग की शुरुआत हुई है। अनुच्छेद 370 अलगाववाद, आतंकवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की जड़ था। इस कदम से अब भविष्य सुरक्षित हो गया था।“

ऐसे में हमें अब यह देखना चाहिए कि तब से दो साल गुजरने के बाद क्या-क्या हुआ है। पहला पहलू तो यही है कि कश्मीर में लोकतंत्र नहीं बचा है। यह देश का एकमात्र ऐसा हिस्सा है जहां चुनी हुई सरकार नहीं है और इसे राज्यपाल के द्वारा सीधे दिल्ली से शासित किया जा रहा है।

दूसरा पहलू यह है कि इस सीधे शासन को ऐसे कानूनों के जरिए अमल में लाया जा रहा है जो कश्मीर के लिए अहम हैं, मसलन पब्लिक सेफ्टी एक्ट यानी जन सुरक्षा अधिनियम। इस कानून के तहत बिना किसी अपराध के किसी को भी हिरासत में लिया जा सकता है। यह विशेष रूप से कश्मीर के लिए कानून है, जबकि कश्मीर में अनुच्छेद 370 के उपयोग को खत्म करते हुए कहा गया था कि एक देश एक संविधान के नियम का पालन होगा।

तीसरी बात यह है कि बीते दो साल के दौरान जितने भी लोगों ने कश्मीर में जमीन खरीदी है, उनकी संख्या सिर्फ दो है। किसी भी व्यक्ति को कश्मीर का स्थाई निवासी घोषित करने वाले अनुच्छेद 35 को यह कहकर खत्म किया गया था कि इसके चलते लोग कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते, लेकिन दो साल गुजरने के बाद भी वहां कुछ नहीं बदला है।

चौथी बात यह कि कश्मीरी पंडित अभ तक घाटी में नहीं लौटे हैं। आखिर एक शहरी और शिक्षित समुदाय ऐसे इलाके में क्यों वापस जाएगा जहां न तो नौकरियां हैं, जहां इंटरनेट कनेक्टिविटी तक नहीं है। हाल ही में जब केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी ने कश्मीर न लौटने के लिए कश्मीरी पंडितों को उलहाना दिया था तो उन्हें संभवत: इस पहलू की समझ ही नहीं थी।

पांचवी बात, लद्दाख का दर्जा बदलना और इस नए केंद्र शासित प्रदेश का नया नक्शा जारी करना संभावित रूप से वह कारण है जिसके चलते चीन ने आक्रामक रुख अपनाया है। सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया है, लेकिन बुनियादी तौर पर चीन ने यह सुनिश्चित किया हुआ है कि जमीन पर 1959 का उसका दावा बरकरार रहे। भारत ने इस मोर्चे पर करीब दो लाख सैनिक तैनात कर रखे हैं। इस साल जनवरी में पाकिस्तानी मोर्चे पर 25 डिवीजन को बदलकर चीन के मोर्चे पर अब पहले के 12 के मुकाबले 16 डिवीजन तैनात हैं।


छठी बात, कश्मीर में आतंकवाद का अंदाजा मनमोहन सिंह सरकार के आखिरी तीन साल में औसतन हर साल हुई 150 मौतों से लगाया जाता रहा है। लेकिन बीते तीन साल के दौरान कश्मीर में हर साल औसतन 250 लोगों की मौत हुई है। ऐसा लगता है कि अनुच्छेद 370 को अनुपयोगी किए जाने के बावजूद कश्मीर में आतंकवाद में तो कोई कमी नहीं आई है।

सातवीं बात, बीते दो साल के दौरान कश्मीर में कोई विकास नहीं हुआ, और इसकी अपेक्षा भी नहीं थी। बीते कुछ सालों के दौरान पूरे देश की आर्थिक स्थिति गिरावट का दौर देख रही है। महामारी और हाल में बढ़ी हिंसा के कारण पर्यटन में वैसे ही कमी आई है। अमेरिकी पत्रिका हार्पर्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि कश्मीर में डॉक्टर और मरीजों का औसत 3060 मरीजों पर एक डॉक्टर का है, जबकि घाटी में नागरिकों और सैनिकों का औसत हर सात नागरिक पर एक फौजी का है। ऐसे में विकास की ही खोखली साबित होती है खासतौर से जब दुनिया आपके सामने ऐसे आंकड़े पेश करे।

आठवीं बात, करीब पांच दशक बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने कश्मीर का मुद्दा संज्ञान में लिया। 16 अग्त 2019 को संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट ने एक खबर प्रकाशित की जिसका शीर्षक था, ‘सुरक्षा परिषद ने कश्मीर के मुद्दे पर चर्चा की, चीन ने भारत और पाकिस्तान से तनाव कम करने को कहा...।’ इस खबर के पहले पैरा में लिखा था, ‘सुरक्षा परिषद ने शुक्रवार को कश्मीर के आसपास की अस्थिर स्थिति पर विचार किया, 1965 के बाद पहली बार अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के मामलों को हल करने के लिए समर्पित संयुक्त राष्ट्र निकाय के भीतर विवाद पर केंद्रित एक बैठक में इस मुद्दे को संबोधित किया गया।’ इस तरह देखा जाए तो भारत ने कश्मीर के मुद्दे में वैश्विक हितों को फिर से सक्रिय कर दिया है जो अभी तक खामोश थे।

नवीं बात, विश्व संस्था ने कश्मीर में 2019 से अब तक क्या चल रहा है इसे लेकर भारत की आलोचना की है। इस साल भी संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय धार्मक स्वतंत्रता आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में भारत की स्थिति पर चिंता जताई है। इसी संस्खाय ने 2002 के गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा पर पाबंदी लगाई थी। आयोग ने कहा है, “मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर में आने-जाने की पाबंदी और लोगों के जमा होने पर प्रतिबंध से धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ा है, जिसमें विशेष दिनों पर धार्मिक कार्यों के लिए जमा होना भी शामिल है। करीब 18 महीने से इंटरनेट बंद होने के चलते, जो कि किसी भी लोकतंत्र में सबसे लंबा इंटरनेट शटडाउन है, इससे संचार और संवाद प्रभावित हुआ है।” इस आयोग ने राष्ट्रपति जो बाइडेन से कुछ भारतीय व्यक्तियों पर पाबंदी लगाने की भी सिफारिश की है।

दसवीं बात, लद्दाख में चीन के आक्रामक रवैये के बाद भारत ने पाकिस्तान के साथ युद्धविराम की घोषणा की, जो आज भी जारी है। कश्मीर में हमने जो कुछ किया उसके पीछे कारण कहा गया कि पाकिस्तान एक समस्या है। और अब भारत खुद ही समाधान के लिए पाकिस्तान की तरफ देख रहा है क्योंकि असली समस्या तो चीन की तरफ से है।


इस समय इस विषय पर लिखना इसलिए जरूरी है क्योंकि हम कश्मीर को आज से 30 साल पुरानी स्थिति में ले गए हैं। उस समय भी कश्मीर राज्यपाल शासन के अधीन था। इसके राजनीतिक नेतृत्व को किनारे कर लॉकअप में रख दिया गया था, लोगों को विरोध प्रदर्शन की इजाजत नहीं था, कोई विकास नहीं हो रहा था और भारत को अंदरूनी तौर पर बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती करनी पड़ी थी।

हमें यह सब ईमानदारी से माना होगा और अपने आप से सवाल पूछना होगा कि आखिर कश्मीर को लेकर 2019 में उठाए गए कदम का भारत और कश्मीरियों को क्या फायदा हुआ।

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