आकार पटेल का लेख: हिंदू राष्ट्र में सिर्फ नाम ही बदलेगा, बाकी जो कुछ अभी हो रहा है, वो सब वैसे ही चलता रहेगा

सवाल है कि अगर हमने पहले से ही मुस्लिमों को राजनीतिक पदों से बाहर कर रखा है, और हम पहले से ही अपने अल्पसंख्यक नागरिकों को विभिन्न कानूनों के माध्यम से रोजाना परेशान कर रहे हैं, तो हमें हिंदू राष्ट्र बनने या कानूनों में बदलाव की जरूरत ही क्यों है?

विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित रैली का दृश्य (फोटो - Getty Images)
विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित रैली का दृश्य (फोटो - Getty Images)
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आकार पटेल

इस सप्ताह बेंगलुरु में एक सिविल सोसायटी मीटिंग के दौरान यह सवाल उठाया गया कि क्या बीजेपी के तीसरी बार सत्ता में आने से देश में हिंदू राष्ट्र का स्थापित हो जाएगा। क्या यह संभव है, यह समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि आखिर हिंदू राष्ट्र है क्या और अभी जो कुछ हमारे पास है वह उससे अलग कैसे होगा।

नेपाल 2008 तक हिंदू राष्ट्र था, शायद दुनिया में अकेला ऐसा देश था। इसके बाद वह हमारे जैसा गणतंत्र बन चुका है। आखिर नेपाल हिंदू राष्ट्र क्यों था? इसलिए क्योंकि वहां सत्ता की कार्यकारी शक्ति एक क्षत्रिय (छेत्री) राजा से आती थी जैसा कि मनु स्मृति में निर्धारित है। नेपाल का 1959 का संविधान राज्य के प्रमुख की पहचान ऐसे व्यक्ति के रूप में करता है जो 'आर्यन संस्कृति और हिंदू धर्म का अनुयायी' हो।

1962 में नेपाल के संविधान ने नेपाल को एक स्वतंत्र, अविभाजित और संप्रभु हिंदू देश के तौर पर परिभाषित किया है और राजा के आर्यन और हिंदू होने की बात दोहराई है। वहां की राज सभा या सरकारी परिषद में ब्राह्मण (बड़ा गुरुजयू) और मूल पुरोहित शामिल होते हैं।

नेपाल का 1990 का संविधान देश को 'बहुजातीय, बहुभाषी, लोकतांत्रिक, स्वतंत्र, अविभाज्य, संप्रभु, हिंदू और संवैधानिक राजतंत्रीय साम्राज्य' के रूप में परिभाषित करता है। यह राजा की 'आर्य' और 'हिन्दू' स्थिति या पहचान को पुनर्स्थापित करता है। राज सभा को अब राज परिषद कहा जाने लगा और मूल पुरोहित को बाहर कर दिया गया, हालांकि बड़ा गुरुज्यू इसमें शामिल रहा है।

नेपाल का 1959 का जो संविधान था उसमें धार्मिक स्वतंत्रता का प्रावधान नहीं था और किसी भी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति को अपने धर्म में परिवर्तन करने का अधिकार था। कोई भी नागरिक केवल 'प्राचीन काल से चले आ रहे अपने धर्म का अभ्यास कर सकता था और उसे स्वीकार कर सकता है', जिसका अर्थ है कि किसी भी तरह के प्रचार-प्रसार की अनुमति नहीं थी। नेपाल में अभी भी इसी सिद्धांत का पालन किया जाता है।

'उसका धर्म' जैसे शब्दों से जुड़ी खामियों को दूर करने के लिए धर्मांतरण पर प्रतिबंध को दोबारा दोहराया गया और नई बात शामिल की गई, जिसमें लिखा था: 'किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति को एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तित करने का अधिकार नहीं होगा।'


मोटे तौर पर देखें तो नेपाल तीन मुद्दों पर हिंदू राष्ट्र था। पहला तो यह कि यहां सत्ता शासन जाति आधारित थी और क्षत्रिय को दी गई थी। दूसरा यह कि राजा के पास और उसके दरबार में जाति आधारित सलाहकार थे। और तीसरा यह कि वहां धार्मिक आजादी और अपने धर्म के प्रसार पर पाबंदी थी।

इस मामले में नेपाल भारत के मुकाबले कहीं अधिक ईमानदार था। हमारा संविधान अनुच्छेद 25 के जरिए नागरिकों को अपनी पसंद के धर्म का पालन करने और उसका प्रसार करने का मौलिक अधिकार देता है, लेकिन देश के कई राज्य हैं जहां धार्मिक प्रसार को अपराध घोषित कर दिया गया है। ऐसे में यह मौलिक अधिकार सिर्फ कागजी भर रह गया है।

नेपाल तो सिर्फ इसी हद तक हिंदू राष्ट्र था। पूरे देश में कहीं भी जाति वर्ण के आधार पर या उच्चता के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव नहीं होता था, भले ही इसे नेपाल सरकार के सिद्धांतों में शामिल किया गया था। अगर ऐसा होता तो यह मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और हर आधुनिक कानून और प्रथा के खिलाफ होता जो लोगों को स्वतंत्रता, समानता और आजादी देता है।

इन कारणों से यह समझना थोड़ा मुश्किल है कि इसे हमारे यहां कैसे अपनाया जाएगा। हमारे यहां नेपाल जैसा राजा के आनुवांशिक चुनाव या उसकी जाति या वर्ण का आधार नहीं है। अगर यह हिंदू राष्ट्र नहीं है तो फिर बीजेपी और आरएसएस किसकी बात करते हैं? इसका कोई सीधा उत्तर फिलहाल हमारे पास नहीं है क्योंकि उन्होंने भी कभी इसको परिभाषित नहीं किया, अलबत्ता वे इसका जिक्र बार-बार करते हैं। आरएसएस के हिंदू राष्ट्र का कोई मसौदा या चार्टर या संविधान फिलहाल नहीं है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि यह मौजूदा संविधान या व्यवस्था से कैसे अलग होगा। इसका एक कारण हो सकता है कि उनका पूरा फोकस सिर्फ अल्पसंख्यकों पर ही है।

जिस हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना वे करते हैं या जिसके बारे में वे  बातें करते हैं, हो सकता है कि ऐसा हो जिसमें कानून यह तय कर दिया जाए कि कोई भी गैर-हिंदू न तो प्रधानमंत्री बन सकता है और न ही किसी राज्य का मुख्यमंत्री और कुछ खास पदों पर सिर्फ हिंदू ही आसीन हो सकते हैं। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि भले ही इस बाबत कोई कानून नहीं है, लेकिन इसकी जरूरत भी नहीं है। आज देश में कोई भी मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं है, कोई भी मुख्यमंत्री कश्मीर के साथ ही 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है। और प्रधानमंत्री तो कभी मुस्लिम रहा ही नहीं।


इस किस्म के हिंदू राष्ट्र में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ कुछ और पक्षपातपूर्ण और भेदभाव वाली व्यवस्थाएं हो सकती हैं। जर्मनी ने 1930 के दशक में कुछ कानून बनाए थे जिनमें विभिन्न समुदायों के बीच विवाह को प्रतिबंधित कर दिया गया था। 2018 के बाद भारत के कम से कम 7 राज्यों में ऐसे कानून पास किए गए हैं जिनमें हिंदू और मुस्लिम के बीच विवाह को अपराध घोषित किया गया है। जर्मनी के कानून में यहूदियों को नागरिकता देने से इनकार किया गया था, भारत ने भी सीएए को अपनाने में मुस्लिमों को इससे बाहर किया है।

भारत ने खासतौर से 2019 के बाद से कई चीजें हुई हैं, जिनमें नमाज (2021 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में), हिजाब (2021 में कर्नाटक में), गोमांस (2015 से), बुलडोजर (अब पूरे भारत में) पर पाबंदी के कानून और नीति शामिल हैं। तलाक (2019 में) का मामला भी कुछ ऐसा ही है, जिसे हम एक हिंदू राष्ट्र में देख सकते हैं।

तो सवाल यह है कि अगर हमने पहले से ही मुसलमानों को राजनीतिक पदों से बाहर करने की व्यवस्था बना रखी है, और हम पहले से ही अपने अल्पसंख्यक नागरिकों को विभिन्न कानूनों के माध्यम से रोजाना परेशान कर रहे हैं, जैसा कि नाजी जर्मनी ने किया था या जैसा कि पाकिस्तान ने किया, तो हमें हिंदू राष्ट्र या मौजूदा कानूनों में बदलाव की जरूरत ही क्यों है? इसका जवाब है कि हमें इसकी जरूरत नहीं है। हमारा मौजूदा संविधान और कानून हमें गैर-हिंदुओं के खिलाफ कानूनी रूप से भेदभाव लागू करने की पर्याप्त स्वतंत्रता देते हैं, जबकि हम अभी भी बहुलवादी, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा करते हैं। ऐसा लगता है कि हमारे संवैधानिक और कानूनी व्यवस्था को आधिकारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष से हिंदू राष्ट्र में बदलने में हमें कोई विशेष लाभ नहीं मिलेगा।

तो फिर अगर बीजेपी तीसरी बार सत्ता में आती है तो उससे क्या अपेक्षा कर सकते हैं? इस बारे में उस मीटिंग में आए एक जवाब को मैं उद्धत करना चाहता हूं जो शायर अहमद फराज़ ने दिया था जब उनसे यही सवाल किया गया था कि "यूं ही चलता रहा तो क्या होगा?" फ़राज़ का जवाब था: "डर तो इस बात का है कि कुछ भी नहीं होगा, यूं ही चलता रहेगा"। (असली डर यह है कि कुछ नहीं होगा: जो हमारे आसपास है वह जारी रहेगा)

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