जब मुगल शासन में बहने लगी थी लोक भाषा और संस्कृति की धारा...
भारत आये यूरोपीय पर्यटक बर्नियर के अनुसार, शासक बनने के बाद औरंगज़ेब को जनता की भाषा का महत्व दिखने लगा था और उसने अपने मज़हबी उस्ताद से कहा कि (राजभाषा फारसी की बजाय) लोगों के लिए अपनी मातृभाषा में प्रार्थना करना ही ठीक है।
![फोटो: सोशल मीडिया](https://media.assettype.com/navjivanindia%2F2018-11%2F2c0337d7-802d-4d20-93ae-f9cb74e656af%2Faurangzeb_darbar.jpg?rect=0%2C15%2C728%2C410&auto=format%2Ccompress&fmt=webp)
मुस्लिम राज के 600 सालों में एक समन्वित संस्कृति ने जनभाषा और लोक सुरों की पुकार को शास्त्रीय जड़ों से जोड़ दिया। यह मेल इस इस कदर फला-फूला कि नादिर शाह की लूटपाट के बीच भी बुला-बुला कर खयालियों और बड़ी गवनहारियों को सुनता विभोर होता रहा। और औरंगज़ेब सरीखा कट्टरपंथी बादशाह भी ब्रजभाखा में कुछ कविताई कर गया। उसके वक्त में भारत आये यूरोपीय पर्यटक बर्नियर के अनुसार, शासक बनने के बाद औरंगज़ेब को जनता की भाषा का महत्व दिखने लगा था और उसने अपने मज़हबी उस्ताद से कहा कि (राजभाषा फारसी की बजाय) लोगों के लिए अपनी मातृभाषा में प्रार्थना करना ही ठीक है। उसने अपने बेटे आज़मसाह को बाकायदा उस्ताद रख कर बृजभाषा सिखलाई। खुद बादशाह ने भाषा के छंद और मुहावरे समेत कुछ पद लिखे हैं जिनमें उसकी वंशावली का ज़िक्र है:
छत्र छबि छाजे बिराजे हुमायूं तखत ।
बैठो चारों चक जीति आयो दिल्लीवर ।…
नायक पूरण तेरो बखान करत बाबरसुत
ताको सुत हुमाऊं अकबर सबल नर,
अकबरसुत जहांगीर ताको साहजहां
ताको औरंगज़ेब भयो है भू पर।।
औरंगज़ेब के दरबार में हिंदी के एक कवि वृंद भी थे। औरंगज़ेब की मौत के दसेक साल बाद तक उर्दू कविता भी दरबार में आ गई थी। अंतिम मुगल शासकों में से कुल दो काफी समय तक गद्दीनशीन रहे, एक मुहम्मद शाह ‘रंगीले’ (1719-1748), दूसरे ‘शाह आलम’ (1759 से 1806)। दोनो ही राजकाज के सर्वेसर्वा बन बैठे अंग्रेज़ों के वर्चस्व को स्वीकार कर युगांतरकारी राजनैतिक हलचलों के बीच शुतुरमुर्ग बने इतिहास से फिरंट होने को मजबूर थे।
सक्रिय राजकाज और आडंबरी प्रशासनिक फारसी का जुआ शाही गरदन से उतरा तो पंजाब से मिथिला तक और कश्मीर से सतारा तक सामंती कुलीन समाज का दिल बेझिझक बन कर जनभाषा के छंदों: दोहा, घनाक्षरी, कवित्त, सवैया और लोकगीतों के कसे हुए सहज पकेपन का स्वाद लेने लगा। उनकी उदार सरपरस्ती का फायदा ले कर ब्रज, अवधी और उर्दू से लैस कलावंत और कवि लोक-संगीत को मार्गी-संगीत और कविता को लोक लय से पुष्ट साहित्य की तरफ तेज़ी से ले चले।
फारसी-संस्कृत की अभिजात जकड़बंदी से मुक्त बोलियां कोने-कोने में हाथ पैर फेंकने और तमाम लोक मुहावरे कहावतें और रूपाकार बटर कर कलाकारों की प्रयोगशालाओं को देने लगीं। बरास्ते छावनी बाज़ार और ज़नानखाना, हरम की औरतों और उनके बीच रहनेवाले रुहेलखंड, अवध, बनारस, पटना, दरभंगा आदि के सामंती सरदारों, रसिकजनों का यूं भी इस बोली से, जिसे कोई भाखा तो कोई हिंदवी या उर्दू कहता, गहरी आत्मीयता और समझ का नाता बना हुआ था। घनानंद, सदारंग, अदारंग की ब्रजभाषा के कसक-मसक भरे और छंद-रागदारी बंदिशें देखिये। वे एकदम ठेठ हैं, न संस्कृत की कर्ज़दार, न फारसी की।
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