चमक खो चुके और थके हुए पीएम का सवाल, ‘हाऊ इज़ द जोश...’

हाल के दिनों में बीजेपी के कई नेता केमिस्ट्री की बात करते नज़र आए। राजनीतिशास्त्र कहता है कि जब गठबंधन का अंकगणित आपके पक्ष में न हो तो नेता कैमिस्ट्री की बात करने लगते हैं।

फोटो : सोशल मीडिया
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तसलीम खान

हाल ही में पीएम नरेंद्र मोदी मुंबई में इंडियन सिनेमा म्यूज़ियम के उद्घाटन के लिए गए थे। वहां मौजूद लोगों (इनमें फिल्म वाले भी थे) को संबोधित करते हुए उन्होंने पूछा, “हाऊ इज़ द जोश?” हॉल में मौजूद लोगों ने पहले तो हंसकर टाल दिया, इस पर फिर पीएम ने पूछा, “हाऊ इज़ द जोश?” इस बार मिला-जुला रिस्पांस था, कुछ आवाज़ें आईं “हाई सर...”

वहां मौजूद लोगों में तो जैसे-तैसे जोश की मात्रा तलाश ली पीएम मोदी, लेकिन यह पूछते वक्त पीएम के अपने अंदाज़, देह भाषा, चेहरे के भाव आदि आदि में जोश था ही नहीं। तो क्या पीएम मोदी थक गए हैं?

राजनीति में कई बार देहभाषा और नेता के हावभाव किसी भी राजनीतिक विश्लेषण से ज्यादा और सटीक संकेत देती है। दरअसल नेताओं की देहभाषा (बॉडी लैंग्वेज) को लेकर राजनीतिक विश्लेषक लंबे समय से अनुमान लगाते रहे हैं। भारत में टीवी का दौर आने के बाद किसी नेता की देहभाषा की सबसे अधिक (और संभवत: पहली बार) चर्चा हुई थी, तो वह थे पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ, जो 2001 में आगरा शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने आए थे। यह शिखर वार्ता नाकाम रही थी, और परवेज़ मुशर्रफ की पत्रकारों के साथ बातचीत का वीडियो सामने आने के बाद उनकी देहभाषा को लेकर काफी टिप्पणियां की गई थीं।

मौजूदा दौर में वापस आएं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देहभाषा काफी कुछ संकेत दे रही है। खासतौर से 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान उनकी देहभाषा और आक्रामक शैली से तुलना करें तो जनवरी 2019 में मोदी बेहद थके हुए नजर आ रहे हैं। न वह अकड़ है, न कदमों में तेज़ी है और न ही आंखों में आत्मविश्वास की चमक। है तो सिर्फ एक थके हुए नेता का नक्शा।

तो क्या पीएम मोदी को भविष्य नजर आ रहा है?

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह दावा करते फिर रहे हैं कि 2019 में बीजेपी को 300 सीटें मिलेंगी। लेकिन मोदी जानते हैं कि यह सिर्फ खाम ख्याली है और सच क्या है। हाल के दिनों में बीजेपी के कई नेता केमिस्ट्री की बात करते नज़र आए। राजनीतिशास्त्र कहता है कि जब गठबंधन का अंकगणित आपके पक्ष में न हो तो नेता कैमिस्ट्री की बात करने लगते हैं।

वैसे सभी बीजेपी नेताओं के मुकाबले मोदी का जलवा अब कार्यकर्ताओं की नजर में बना हुआ है, लेकिन इनमें से वोटर कितने हैं। उम्र के 68 वसंत देख चुके मोदी के सामने 2019 में अब युवा वोटरों की नई जमात खड़ी है। ऐसे बहुत से वोटर हैं जो 2014 में महज 13-14 साल के रहे होंगे। आंकड़ों को देखें तो इस बार कम से कम 10 करोड़ वोटर ऐसे हैं जो 2014 में 13 से 17 साल की उम्र के रहे होंगे। इनका रुझान किस तरफ होगा इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है।

मोदी को भी वोटरों की यह जमात नजर आ रही है, इसीलिए करिश्मा धूमिल होने के बावजूद वह बॉलीवुड के युवा अभिनेताओं के साथ सेल्फी खिंचवा रहे हैं। इसके बरअक्स, युवा वोटरों की स्वाभाविक और प्राकृतिक पसंद राहुल गांधी नजर आ रहे हैं। उनमें जोश भी है, आक्रामकता भी है। सीधे लोगों से संवाद करने की कला में भी वे माहिर हो गए हैं।

आखिर मोदी लहर उतार पर क्यों आ गई? कई बिंदु हैं जिनसे इसे समझा जा सकता है।

सरकार की छवि को लगा ग्रहण

स्वच्छता, ग्रामीण विद्युतीकरण, आवास, स्वास्थ्य बीमा, सीधे खाते में सब्सिडी जैसे कई नारे दिए पीएम मोदी ने सत्तासीन होने के बाद। लेकिन इन नारों की असलियत भी इन साढ़े चार वर्षों में सामने आने लगी। प्रयागराज (पूर्व में इलाहाबाद) में चल रहे अर्धकुंभ में तो शौचालयों पर आई रिपोर्ट ने ही स्वच्छता के दावों को पलीता लगा दिया। बाकी योजनाओं की हवा भी गाहे-बगाहे आने वाली रिपोर्टों से निकलती रही है।

बीजेपी की प्रचार मशीनरी यूं तो किसी भी योजना को बेहद कामयाब उपलब्धि बनाने – दिखाने में माहिर रही है, लेकिन सरकार की मुख्य योजनाओं को लेकर उसका रवैया अभी तक रक्षात्मक, प्रतिक्रियावादी और शिकायत निवारण तक ही सीमित होकर रह गया है। इस सबको लेकर सरकार को लेकर लोगों के मन में जो छवि बननी थी, उसका उलट ही हुआ है।

पार्टी तक की पहुंच से बाहर हैं मोदी

अमेरिका का मैडिसन स्क्वायर गार्डन हो, वेम्बली में मुट्ठी भींचकर अपनी बात कहने का अंदाज़ हो, जापान में ड्रम बजाते या फिर अहमदाबाद में साबरमती किनारे चीन के राष्ट्रपति के साथ झूला झूलते मोदी हों, पिछले करीब एक-डेढ़ साल से यह सारी छवियां धूमिक हो चुकी हैं। सामने आता है तो मोदी का थका हुआ चेहरा, वह भी कुछेक नजदीकी लोगों की ओट से दिखता हुआ। चर्चा आम है कि सरकार के सारे फैसले चंद लोगो करते हैं, और मोदी तक पार्टी की पहुंच ही नहीं है।

योग्यता का पैमाना न संस्थाओं के लिए, न कैबिनेट के लिए

बीते साढ़े चार साल में कोई बड़ा ढांचागत आर्थिक सुधार न होना और वादे के मुताबिक युवाओं के लिए रोजगार न पैदा कर पाने का कारण यही है कि मोदी सरकार में पहले दिन से योग्य लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। भ्रष्टाचार, कालाधन, आतंकवाद और रोजगार जैसे वादों को पूरा करने के लिए विभिन्न विशेषज्ञों की जरूरत होती है, लेकिन मोदी सरकार में जैसे योग्य लोगों का अकाल सा है। नतीजा यह है कि इससे पार्टी और कार्यकर्ता दोनों निराश हुए हैं। और यह निराशा आने वाले चुनाव में बहुत महंगी पड़ने वाली है।

एनडीए के सहयोगियों की जानबूझकर अनदेखी

दक्षिण में टीडीपी का साथ छूटना बीजेपी के लिए खतरे की घंटी थी। लेकिन इसे अनसुना कर मोदी-शाह की जोड़ी ने मान लिया कि चंद्रबाबू नायडू में अब दम नहीं रहा और उन्होंने वाईएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी पर दांव खेला। लेकिन अब जो संकेत मिल रहे हैं कि नायडू का जाना बीजेपी को काफी नुकसान पहुंचा सकता है।

उधर बिहार और तमिलनाडु में भी एनडीए के छोटे सहयोगी भी किनारा कशी कर रहे हैं, तो शिवसेना के साथ अनबन जगजाहिर है। दूसरे राज्यों में भी हाल ऐसा ही नजर आ रहा है। ऐसे वक्त में एनडीए गठबंधन की दरकती दीवारें चिंताजनक हैं जब विपक्षी महागठबंधन बाहें चढ़ाए सामने खड़े होकर चुनौती दे रहा हो।

सहयोगियों की नाराजगी का देर-सवेर एहसास होने पर पीएम मोदी ने पिछले सप्ताह कहा था कि वे अपने सहयोगियों का ध्यान रखते हैं, लेकिन तमिलनाडु की डीएमके और एडीएमके दोनों ही दलों ने इसे ढोंग बताया। यहां यह जानना जरूरी है कि बीते साढ़े चार साल में एनडीए की एक भी बैठक नहीं हुई, और अब जब आम चुनाव सिर पर हैं तो तीन महीने में कैसे सहयोगियों की नाराज़गी को दूर किया जा सकता है।

नागरिकता बिल को लेकर पूर्वोत्तर में तूफान

दक्षिण के अलावा पूर्वोत्तर में तो मानो एक तूफान सा उठ खड़ा हुआ है। नागरिकता कानून को लेकर पूर्वोत्तर का गुस्सा मुखर होता जा रहा है। असम में एजीपी पहले ही बीजेपी से किनाराकशी कर चुकी है। दूसरे राज्यों में भी यही हालत है।

तो क्या बीजेपी सिर्फ बंगाली भाषी हिंदुओं (बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी) को रिझाने के लिए पूर्वोत्तर की 24 लोकसभा सीटों को दांव पर लगा रही है।

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Published: 21 Jan 2019, 10:36 PM