आकार पटेल का लेख: श्श्श...श्श्श...संसद के विशेष सत्र का एजेंडा खुफिया है
जब मंत्रिमंडल को ही हवा नहीं है कि संसद के विशेष सत्र में क्या चर्चा होगी और कौन से बिल पास होंगे, तो फिर आखिर विपक्ष के साथ इसे साझा करने की सरकार को जरूरत ही क्या है?
अभी इसी शनिवार ( 9 सितंबर, 2023) को एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसका शीर्षक था, ’संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में पुरानी संसद इमारत को विदाई जाएगी?’ इस खबर पर सवालिया निशान स्वाभाविक है, क्योंकि किसी पता ही नहीं है कि संसद के विशेष सत्र का एजेंडा क्या है।
इस रिपोर्ट में कहा गया है, ‘संसद का पांच दिवसीय विशेष सत्र शुरु होने से पहले इस बात के भरपूर कयास लगाए जा रहे हैं कि संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक संसद के ऐतिहासक केंद्रीय कक्ष में होगी जिसमें मौजूदा संसद की इमारत को विदाई दे दी जाएगी।’
लेकिन, किसी इमारत को विदाई देने के लिए पांच दिन क्यों चाहिए? और फिर, एक लोकतंत्र में ऐसे कयासों को क्यों हवा दी जा रही है जबकि कानून और उनमें बदलाव के लिए खुले तौर पर पारदर्शिता के साथ चर्चा होनी चाहिए?
इस रिपोर्ट से पाठकों को कुछ हासिल पता नहीं लगा।
इस विशेष सत्र की जब पहली बार 31 अगस्त को घोषणा की गई, तभी से कयास लग रहे हैं कि क्यों इस सत्र को इतनी कम अवधि के लिए बुलाया गया है जबकि पिछला सत्र तो अभी 11 अगस्त को ही पूरा हुआ है।
संसद का शीत सत्र नवंबर में शुरु होगा, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि संसद फिर से नहीं मिल सकती। लेकिन सिर्फ एक महीने के भीतर संसद सत्र बुलाने का क्या औचित्य है?
कुछ लोग कह रहे हैं कि इस सत्र में देस का नाम इंडिया से बदलकर भारत कर दिया जाएगा।
मीडिया ने दो दिन तक इसी पर अपना फोकस बनाए रखा। मंत्रियों भी इसके समर्थन में उतरे कि आखिर इसमें गलत क्या है, लेकिन वे पक्के तौर पर नहीं कह पाए कि इस सत्र को देश का नाम बदलने के लिए ही बुलाया जा रहा है।
एक और चर्चा है कि इस सत्र में महिला आरक्षण बिल को पास कराया जाएगा।
वैसे मूल रूप से यह बिल राज्यसभा में 2008 में पास हो चुका है, लेकिन इसके बाद यह रुक गया था क्योंकि इसके लिए पर्याप्त समर्थन नहीं मिल सका था और महिलाओं के आरक्षण में ऐसी महिलाओं के लिए उप श्रेणी बनाने की मांग उठी थी जो दोहरे तौर पर हाशिए पर हैं।
अगर महिला आरक्षण बिल ही मूल एजेंडा है और यह पास हो जाता है, तो इससे लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी यानी एक तिहाई आरक्षण मिल जाएगा। यह एक बड़ा सुधार होगा, और अगर वाकई इसी कानून को पास कराने के लिए संसद सत्र बुलाया जा रहा है तो इसे निश्चित ही पास हो जाना चाहिए।
लेकिन बात वही है, किसी को कुछ नहीं पता है।
एक और अनुमान मीडिया में लगाया जा रहा है, और उसका कारण अस्पष्ट है, वह यह कि लोकसभा के चुनाव जल्द ही यानी समय से पूर्व होने वाले हैं।
वैसे तो देश के आम चुनाव अगले साल मई में होने हैं, यानी सरकार के पास अभी 8 महीने हैं, लेकिन उन्हें बिल्कुल उसी तरह पहले कराया जा सकता है जैसा कि वाजपेयी सरकार ने 2004 में किया था।
लेकिन इस बात पर बहुत लोगों ने भरोसा नहीं दिखाया, पर इसका भी कारण किसी को नहीं पता, और क्या पता ऐसा हो?
समय पूर्व चुनाव कराने का वाजपेयी सरकार का दांव नाकाम हो गया था और सरकार सत्ता से बाहर हो गई थी, ऐसे में इस कदम को लेकर कुछ सावधानी भी बरती जा री होगी।
सबसे ज्यादा चर्चा एक और अनुमान की हो रही है, और वह है ‘एक देश-एक चुनाव’, यानी ऐसी व्यवस्था जिसमें राज्य विधानसभाओं और देश की लोकसभा के चुनाव हर पांच साल में एक ही बार हों। इस व्यवस्था में नागरिक विधानसभा और लोकसभा दोनों के लिए एक साथ मतदान करें।
तो क्या इसमें कार्पोरेशन यानी नगर निगमों और पालिकाओं के चुनाव भी शामिल होंगे? किसी को नहीं पता।
तो फिर उपचुनावों का क्या होगा? और एक साथ कई चुनाव कराने के लिए ईवीएम को कैसे सेट किया जाएगा, लेकिन हो सकता है कि समझदार लोगों ने पहले ही इसका तोड़ निकाल लिया हो।
पूर्व राष्ट्रपति की अगुवाई में एक समिति तो बना ही दी गई है जो इस विचार पर गौर करेगी, लेकिन यह समिति कैसे मिलेगी और अपनी रिपोर्ट क्या इस सत्र में पेश कर पाएगी, इस पर भी कुछ स्पष्ट नहीं है।
एक और अनुमान हवा में तैर रहा है, खासतौर से मीडिया के कुछ हिस्सों में कि विशेष सत्र दरअसल 2017 में बने एक आयोग की रिपोर्ट को मंजूर करने के लिए बुलाया गया है जिसमें ओबीसी (अन्य पिछड़े तबकों) की उप श्रेणियों को आरक्षण और अधिक समानता के साथ दिया जा सके।
किसी भी देश में शासन की संसदीय व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग होता है, और वह है साझा जिम्मेदारी, अर्थात फैसले संयुक्त रूप से लिए जाते हैं। लेकिन यहां तो केंद्रीय मंत्रिमंडल तक उसी तरह अंधेरे में है जिस तरह के हम सब।
इसे समझने के लिए अतीत के दो उदाहरणों को देखना होगा।
पहला उदाहरण है जो 10 नवंबर 2016 को रिपोर्ट हुआ था और उसका शीर्षक था, ‘कृप्या फोन लेकर न आएं : मोदी कैबिनेट की बैठक का फरमान, जिसने सबको चौंका दिया’। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि केंद्रीय मंत्रियों को भी नोटबंदी के फैसले के बारे में उसी वक्त पता चला था जब बाकी पूरे देश को, यानी इस फैसले पर न तो कोई चर्चा हुई और न ही कोई विमर्श।
दूसरा उदाहरण है जो बीबीसी द्वारा देश भर में 2020 में लगे लॉकडाउन के बारे में सरकार से मांगी गई जानकारी के लिए दायर 240 आरटीआई आवेदनों से जुड़ा है। इनमें केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों जिनमें स्वास्थ्य, वित्त, आपदा प्रबंधन और अन्य शामिल हैं, से पूछा गया था कि उन्हें लॉकडाउन के बारे में क्या पता था और उन्होंने कैसी तैयारी की थी। इसका जवाब मिला था कि उन्हें इस बारे में पहले से कोई जानकारी नहीं थी और वे बिल्कुल तैयार नहीं थे।
सरकार का ऐसा रूप जिसमें महत्वपूर्ण फैसलों को मंत्रिमंडल से ही छिपाकर रखा जाता है, और ऐसा लगता है कि वह परंपरा अभी भी कायम है, और इसीलिए संसद के विशेष सत्र को लेकर तरह-तरह के कयास लग रहे हैं।
इस सत्र में कोई प्रश्नकाल भी नहीं होगा। निस्संदेह इसकी अपेक्षा है, लेकिन ऐसा जरूरी भी नहीं है। बात तो यह है कि जब लोकसभा में पूछे गए सवालों के जवाब नहीं मिलते, तो फिर सवाल पूछे जाने से रोकने पर भी कौन सवाल उठाएगा।?
इस बीच विपक्ष ने उन मुद्दों की एक सूची भेज दी है, जिस पर वह इस सत्र में चर्चा करना चाहते हैं। इनमें:
महंगाई और बेरोजगारी
किसानों के लिए एमएसपी
मणिपुर में जारी हिंसा
अडानी घोटाला
पूरे भारत में सांप्रदायिक तनाव
लद्दाख और अन्य जगहों पर चीन की हरकत
जातिगत जनगणना (या जनगणना, क्योंकि 2021 वाली भी अभी तक नहीं हुई है)
संघीय भावना पर आघात
और प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव और जलवायु परिवर्तन
यह मानते हुए कि विशेष सत्र के एजेंडा में यह सब नहीं होगा, इन सभी मुद्दों पर चर्चा की संभावना कम ही है।
और, जब मंत्रिमंडल को ही हवा नहीं है कि क्या चर्चा होगी और कौन से बिल पास होंगे, तो फिर आखिर विपक्ष के साथ इसे साझा करने की जरूरत ही क्या है?
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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