जब शुरु हो ही गया है इतिहास के पन्नों का पोस्टमार्टम, तो फिर शेक्सपियर के गुलाब को भी कमल कर दिया जाए!

इतिहास बनाने के दो तरीके होते हैं। एक, आप कुछ ऐसा कर जाएं कि आने वाली पीढ़ियां आपको याद रखें और दो, अगर आप वैसा कुछ नहीं कर सकते तो इतिहास को फिर से लिख दें। इतिहास में दर्ज नामों को बदलते हुए इसे फिर से लिख दें। दूसरा तरीका कहीं आसान है।

इस साल जनवरी में दिल्ली स्थित लाल किले पर लाइंट एंड साउंड शो की तस्वीर, इस कार्यक्रम का उद्घाटन केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने किया था (फोटो - Getty Images)
इस साल जनवरी में दिल्ली स्थित लाल किले पर लाइंट एंड साउंड शो की तस्वीर, इस कार्यक्रम का उद्घाटन केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने किया था (फोटो - Getty Images)
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अवय शुक्ला

विलियम शेक्सपियर जब अपनी कालजयी कृति ‘हैमलेट’ में ‘सात पापों’ का जिक्र करते हैं तो वह जैसे भारत के आज के ‘अमृतकाल’ का खाका खींच रहे होते हैं। जब वह ‘ऑथेलो’ में ‘ऑनर किलिंग’ की बात करते हैं, जब वह ‘रोमियो एंड जूलियट’ में ‘लव जेहाद’ की बात करते हैं या फिर जब वह ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ में बकाया ‘ईएमआई’ की बात करते हैं, इंसानी भावनाओं की गहराइयों में उतरते हुए शेक्सपियर आज के भारत की बात कर रहे दिखते हैं। बस, एक मामले में वह कुछ गड़बड़ा जाते हैं, जब वह कहते हैं कि नाम में क्या रखा है? जूलियट के शब्दों को याद करें: ‘नाम में भला क्या रखा है? जिसे हम गुलाब कहते हैं, उसे किसी भी और नाम से पुकारें, उसकी खुशबू तो वैसी ही दिलकश रहेगी…।’

चतुर दरबारी कवि मेथकिन्स का आशय यह था कि आप किसी को किस नाम से पुकारते हैं, यह अहम नहीं। उदाहरण के लिए, अगर रोमियो को रोनाल्डो कहा जाता तो भी वह उतना ही सुंदर और आकर्षक होता। बिल्कुल सही है लेकिन तब शेक्सपियर 450 साल बाद के उस ‘हिन्दू राष्ट्र’ का कोई अंदाजा नहीं लगा पाए थे जब नाम से ही इतिहास और भूगोल तय होने वाला था, जब पसंदीदा फूल गुलाब नहीं बल्कि कमल हो जाने वाला था, जब खुशबू नहीं बल्कि नाम से तय होने वाला था कि आप गुलाब सूंघ रहे हैं या फिर सड़ी हुई मछली और नाम से ही तय होने वाला था कि आप जिंदा भी हैं या नहीं।

भारत में नाम बहुत अहम है। उदाहरण के लिए ‘म’ से शुरू होने वाले एक नाम के बारे में आप कुछ भी ‘ऐसा-वैसा’ अपनी जोखिम पर ही बोल सकते हैं क्योंकि संभव है आपको जेल की सजा मिल जाए। वैसे ही कुछ नामों को कुछ दूसरे नामों से बदला जा रहा है। नेहरू, गांधी, पटेल और आम्बेडकर जैसे नाम इस सिद्धांत की वजह से हटाए जा रहे हैं कि अगर आप उनकी उपलब्धियों की बराबरी नहीं कर सकते तो बस इतना सुनिश्चित कर लें कि उनके नाम खुरच-खुरचकर हर जगह से हटा दिए जाएं।

इतिहास बनाने के दो तरीके होते हैं। एक, आप कुछ ऐसा कर जाएं कि आने वाली पीढ़ियां आपको याद रखें और दो, अगर आप वैसा कुछ नहीं कर सकते तो इतिहास को फिर से लिख दें। इतिहास में दर्ज नामों को बदलते हुए इसे फिर से लिख दें। दूसरा तरीका कहीं आसान है। इसमें आपको मेहनत नहीं करनी पड़ती। बस जरूरत होती है कागज और कलम की। एक बार कलम चलाओ और किसी और की उपलब्धियां आपके नाम हो गईं। यह तरीका स्टेडियम, रास्ते, इमारतों, स्मारकों, यूनिवर्सिटी, मंदिर और यहां तक कि शहरों के लिए अपनाया जा सकता है। ऐसा लगता है कि यह काम इन दिनों युद्धस्तर पर चल रहा है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में इस तरह के ‘नेक’ कामों पर यह कहते हुए ब्रेक लगाया है कि देश को भूतकाल का बंधक नहीं बनाया जा सकता।


वैसे काम करने का एक और तरीका होता है- अगर आप नया कुछ नहीं लिख सकते तो या तो आप लिखे में फेरबदल कर दो या फिर पूरी स्लेट ही साफ कर दो और सरकार पहले से ही इसपर काम कर रही है। इसका ‘पायलट प्रोजेक्ट’ उस समय अमल में लाया गया जब राफेल मामले में असहज करने वाले मूल्य निर्धारण विवरण को बदला गया था। इसके बाद यही फॉर्मूला संसद में भी आजमाया गया जब राहुल गांधी के ज्यादातर भाषणों को संसद के रिकॉर्ड से हटा दिया गया ताकि आने वाली पीढ़ियों को कभी पता ही न चले कि अडानी के साथ कौन क्या गुल खिला रहा था। इसके बाद गुजरात हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री की डिग्री के बारे में जानकारी को बाहर आने से रोक दिया और इस तरह लोग यह जानने से रह गए कि प्रधानमंत्री महोदय ने अपनी असाधारण प्रतिभा किसी विश्वविद्यालय में पाई या कि रेलवे स्टेशन पर। 

फिर एनसीईआरटी ने पूरे भारतीय इतिहास को फिर से लिखने का जिम्मा उठा लिया और उसने महात्मा गांधी के प्रति आरएसएस की नापसंदगी, हल्दीघाटी की लड़ाई के नतीजे, गुजरात में 2002 की हत्याओं और यहां तक कि मुगलों से जुड़े अंशों को हटा दिया। यह अपने आप में बड़ा पेचीदा मामला है क्योंकि अगर हमारे इतिहास में मुगलों का जिक्र न हो तो राजपूतों और मराठों ने किसके खिलाफ लड़ाई लड़ी? फिर ताजमहल, लाल किला, आगरे का किला या जामा मस्जिद किसने बनवाई? बिरयानी कहां से आई जिसे आज हमारे नेता बड़े शौक से खाया करते हैं?

शायद इन उलझाऊ सवालों का जवाब भी जल्द ही मिल जाए और ऐसे तमाम रहस्यों के भी कि लद्दाख में हमारे 1,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कौन कब्जा जमाए बैठा है या कौन सा देश हमारे आयात बिल में 120 अरब डॉलर की हिस्सेदारी पर कुंडली मारे हुए है? मैं तो सिर्फ पूछ रहा हूं क्योंकि चीन का नाम भी तो नहीं लिया जा सकता। जब हम नामों की बात कर ही रहे हैं तो अपने ‘वुल्फ वॉरियर’ विदेश मंत्री जयशंकर से यह पूछने के लिए मुझे क्षमा करें कि आखिर ‘युद्ध’ शब्द की उनकी परिभाषा क्या है क्योंकि वह यूक्रेन के संदर्भ में इस शब्द के इस्तेमाल से इनकार करते हैं। क्या इसकी वजह यह है कि युद्ध कह देने से सस्ते रूसी तेल की आपूर्ति खतरे में पड़ जाएगी? वह अपने इस रुख पर अड़े हैं कि यूक्रेन में जो हो रहा है, वह युद्ध नहीं बल्कि एक ‘संकट’ है। 

मुझे तो ऐसा ही लगता है कि जब दो मुल्क एक साल से भी ज्यादा समय से आपस में लड़ रहे हों, जब दोनों ओर के लाखों लोग मारे जा रहे हों, जब हर रोज हजारों टन गोला-बारूद दागे जा रहे हों, जब एक देश दूसरे देश के असैन्य बुनियादी ढांचे को व्यवस्थित रूप से नेस्तनाबूद कर रहा हो, जब 50 लाख लोग शरणार्थी बना दिए गए हों, इसे ‘युद्ध’ ही कहा जाना चाहिए। 


क्या हमारे विदेश मंत्री यह कहना चाह रहे हैं कि हम इस ग्रह के दुखद इतिहास के सभी कथित युद्धों का नाम बदलकर ‘संकट’ रख दें? मसलन: 1962 का भारत-चीन संकट, पहला विश्व संकट (1914-18), दूसरा विश्व संकट (1939-45), वियतनाम संकट? या तो हमारे मंत्री की परिभाषा के मुताबिक किसी ‘संकट’ को ‘युद्ध’ करार दिए जाने के लिए और भी खून का बहना जरूरी है या फिर वह यह सोचते हैं कि अगर ‘युद्ध’ शब्द की जगह ‘संकट’ शब्द को स्वीकार कर लें तो दुनिया ज्यादा खुशहाल जगह बन जाएगी? दुर्भाग्य से नाम के इस खेल में हमारे अलावा भी एक और ताकत शामिल हो गई है जिसे चीन कहते हैं। उसने हाल ही में अरुणाचल प्रदेश में ग्यारह गांवों का नाम बदलकर उन्हें चीनी नाम देकर यह दावा किया कि यह राज्य चीन का हिस्सा है। जाहिर है, अगर एनसीईआरटी ‘अतीत के इतिहास’ को फिर से लिख सकती है तो पीएलए ‘वर्तमान इतिहास’ को। अफसोस! विश्वगुरु का ‘संकट’ दुनिया को गलत पाठ पढ़ा रहा है। शायद यह सही समय है जब एनसीईआरटी शेक्सपियर पर भी नजरें इनायत करे और गुलाब को बदलकर कमल कर दे। 

(अवय शुक्ला रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं।)

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