मृणाल पांडे का लेखः चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है पारदर्शी और न्यायसंगत चुनाव, टिकी हैं पूरे देश की निगाहें

ऐसे माहौल में जब चुनाव आचार संहिता सारे देश में लागू है, कई शीर्ष नेताओं के बयान और भी भड़काऊ और चौंकाने वाले बनते जा रहे हैं। ऐसे में देश की निगाहें चुनाव आयोग की तरफ उम्मीद से देख रही हैं कि वह त्वरित न्याय करे और चुनावों को पारदर्शी और न्यायसंगत बनाए।

रेखाचित्रः डीडी सेठी
रेखाचित्रः डीडी सेठी
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मृणाल पाण्डे

भोपाल से लोकसभा के लिए नामांकित उम्मीदवार तथाकथित साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की असली उम्र क्या है? यह सवाल इन दिनों चर्चा में है। वजह यह कि जमानत पर छूटी मालेगांव ब्लास्ट कांड की आरोपी (जी नहीं मकदमा खारिज नहीं हआ है, आरोप वापस नहीं लिए गए हैं) सुश्री ठाकुर ने अखाड़े में उतरते ही लोकसभा चुनाव को धर्मयुद्ध की संज्ञा दे दी। उसके बाद से उनकी तरफ से निहायत अधार्मिक, सांप्रदायिक वैमनस्य से भरे उत्तेजक बयानों की झड़ी लगी हुई है।

अपने ताजा बयान के अनुसार वह 1992 के बाबरी ध्वंसकांड में (भी) सक्रिय रूप से शामिल थीं। अब उनकी जन्मतिथि कोई 1988 बता रहा है, तो कोई 1971। अगर पहली तिथि सही है, तो 1992 में सिर्फ चार बरस की बच्ची के एक उन्मादी जलूस में शामिल होकर कारसेवकों के साथ तोड़फोड़ करने की बात सच नहीं लगती।

अगर दूसरी तिथि और उनका तोड़फोड़ का दावा सही है, तो वह उस समय 21 बरस की थी, और इसलिए इस सार्वजनिक स्वीकार के बाद (उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्ण आडवाणी की ही तरह) उन पर भी बाबरी ध्वंस मुकदमे की तहत काननूी कार्रवाई शुरू होनी चाहिए।

ऐसे माहौल में जब चुनावी आचार संहिता सारे देश में लागू है, महत्वपूर्ण शीर्ष नेताओं के बयान और भी भड़काऊ और चौंकाने वाले बनते जा रहे हैं। और यह सब अनायास नहीं हो रहा है। चुनाव का तीसरा चरण आते-आते देश में राष्ट्रीय सुरक्षा की ओट लेकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ लगातार एक भय और शंका का वातावरण गहराया जा रहा है।

गुजरात की एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री ने श्रीलंका में हुए आतंकी हमले के हवाले से आतंकवाद की निंदा करते हए देश की सुरक्षा का मसला उठा दिया। इस संदर्भ में कहा गया कि भारत पूरी तरह से बाहरी आक्रमणकारी पड़ोसी को करारा जवाब देने की स्थिति में है। अपने पास जो एटम बम हैं, वे हमने दिवाली पर फोड़ने को नहीं रखे हैं। कई उजड्ड श्रोता इस पर ताली पीटते हुमकते नजर आए।

पर यह बेहद संगीन बात है और इस धमकी की तरंगों ने तुरंत उस अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के भी कान खड़े कर दिए हैं जो परमाणु हथियारों से लैस पड़ोसियों- भारत और पाकिस्तान के बीच गहरा रही कड़वाहट से परमाणु युद्ध की बढ़ती संभावना को लेकर बहुत सशंक है। राजनय विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि प्रधानमंत्री के इस बयान ने परमाणु नि:शस्त्रीकरण के पक्षधर के बतौर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता पाने की भारत की आगामी कोशिशों की जड़ में भी मट्ठा डाल दिया है।

स्थिति इसलिए भी अधिक गौरतलब बन रही है कि इस बार चुनाव में रिकॉर्ड तादाद में दागी उम्मीदवार मैदान में हैं। खासकर तीसरे चरण के मतदान में। नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म संस्थाओं के आंकड़ों के हिसाब से चुनाव के लिए दाखिल नामांकन पत्रों में दी गई जानकारियों से खुलासा होता है कि तीसरे चरण के मतदान में करोड़पति उम्मीदवारों की तादाद बढ़ी है। साथ ही 21 फीसदी (804) उम्मीदवार आपराधिक रिकॉर्ड रखते पाए गए हैं। इनमें महिलाओं की तादाद सिर्फ नौ फीसदी (351) है।

जबकि इस प्रक्रिया में ऐसे नामांकन पत्र शामिल नहीं हैं जो अधूरी जानकारियों वाले थे या उनकी स्कैन कापी पढ़ने लायक नहीं थी। इसी के साथ यह भी उजागर हुआ कि महिला प्रत्याशी इस चरण में बहुत कम हैं। जबकि दागी उम्मीदवारों में कम से कम 29 पुरुष प्रत्याशी महिलाओं के खिलाफ अपराधों में नामांकित हैं। और 256 प्रत्याशियों के खिलाफ घृणा फैलाने वाले भाषण देने के आरोप हैं, जिनमें महिलाएं भी पीछे नहीं दिखतीं।

काफी समय से यह मांग की जाती रही है कि चुनाव आयोग तमाम आपराधिक रिकॉर्ड वाले प्रत्याशियों का नामांकन खारिज करे। लेकिन यह कहकर बात रफा-दफा कर दी जाती है कि अक्सर राजनीतिक दुर्भावना के तहत कई जानबूझ कर उम्मीदवारों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए जाते हैं। और यह प्रावधान होते ही ऐसे दुर्भावनावश दर्ज मुकदमों में और भी बाढ़ आ सकती है।

लेकिन इतनी तादाद में संदिग्ध आचरण वाले करोड़पति लोगों के लगातार चुनावी मैदान में उतारे जाने की ही वजह से राज्यों में भी चुनावी आचरण संहिता के परखच्चे उड़ाए जाने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। उल्लेखनीय है कि कई मामलों में देश के कई बड़े नेताओं ने भी आचार संहिता को सरेआम तोड़ा है। बंगाल में सब दल खुलकर सांप्रदायिक बयानबाजी कर रहे हैं और उससे होने वाली हिंसक वारदातें नहीं थम रहीं।

उत्तर प्रदेश में मेनका गांधी भी सुल्तानपर के अल्पसंख्यकों को चुनावी रैली में धमका आई हैं कि वह चुनाव जीतने जा रही हैं। बाद में उनको पता चल ही जाएगा कि किस समुदाय ने उनको वोट नहीं दिया, और तब वह समुदाय परिणाम भुगतने को तैयार रहें। अब खबर है कि तमिलनाडु में 19 अप्रैल तक आचरणसंहिता के उल्लंघन के 4690 मामले दर्ज किए जा चुके हैं, जिनमें से 1450 मामले एआईडीएमके और 1694 मामले डीएमके के खिलाफ हैं। छोटी पार्टियां भी पीछे नहीं जिनके खिलाफ कुल 1546 मामले दर्ज हुए हैं।

ऐसे क्षणों में देश की निगाहें चुनाव आयोग की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखती हैं कि वह त्वरित न्याय करे और स्थिति को विस्फोटक होने से बचाए और चुनावों को पारदर्शी और न्यायसंगत बनाए, जिसके लिए उसे संविधान की धारा 324 के तहत स्पष्ट अधिकार दिए गए हैं। 14 अप्रैल को जब चुनाव आयोग पर वांछित सख्ती न बरतने का आरोप लगाकर मामला उच्चतम न्यायालय ले जाया गया, तो आयोग ने कह दिया कि उसके पास सीमित समय के लिए सीमित अधिकार हैं, जिनके तहत वह इस तरह की वारदातों में साक्ष्य होते हुए भी कानूनी आचार संहिता तोड़ने वालों को बहुत करके ऐसी हरकतों से बाज आने की कठोर चेतावनी भर दे सकता है।

यह भी क्या बात हुई भला? कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार यह सही नहीं कि आयोग के पास अधिकार नहीं। आखिर बहुत नुक्ताचीनी होने पर उसने चारेक बड़े नेताओं की चुनावी सभाएं कुछ दिनों के लिए रुकवाईं तो थीं। और चुनाव काल में आयोग की कठोरतम अनुशासनात्मक कार्रवाइयों पर न्यायालय कभी आड़े नहीं आया, न आ सकता है।

एक मामले (मोहिंदर गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त) में तो सुप्रीम कोर्ट की स्थापना है कि कठिन स्थिति में भी मुख्य चुनाव आयुक्त हाथ जोड़कर भगवान से अपना कामकाज निबटाने को चामत्कारिक सलाह तो नहीं मांग सकता। धारा 324 के तहत उसे जो निगरानी, नियंत्रण और दिशा निर्देश देने के हक दिये गए हैं, वे उतने ही विस्तृत और लचीले हैं जितने कि राष्ट्रीय आपातकाल के संदर्भ में सत्तारूढ सरकार को दिए गए अधिकार। यही नहीं धारा 324 का यह भी प्रावधान है कि चुनाव के दौरान बिना मुख्य चुनाव आयुक्त की सलाह के चुनाव प्रक्रिया से जुड़े किसी भी केंद्रीय या राज्य स्तरीय आयुक्त का तबादला नहीं हो सकता।

उपरोक्त जानकारियों के उजास में कांटे का सवाल यह नहीं कि चुनाव आयोग के पास कितने और किस तरह के कानूनी अधिकार हैं। बल्कि यह, कि वह इन तमाम अधिकारों का चुनावी आचरण संहिता को बुरी तरह तोड़कर आग लगाने वालों के विरुद्ध तुरंत इस्तेमाल करने में लगातार इतना हिचकिचाहट भरा रुख क्यों दिखा रहा है? जहरीले चुनाव प्रचार करने वालों के दिलों में वह शेषन या लिंगदोह जैसा खौफ क्यों नहीं पैदा कर पा रहा। उनके पास भी तो इसी धारा 324 का हथियार था?

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