खरी-खरीः ‘कहूं किस से मैं कि क्या है, गमे गुरबत बुरी बला है’

वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के हिसाब से यूपीए सरकार के 2004-2014 के शासनकाल में भारत की 12 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे की आबादी गरीबी रेखा से ऊपर आई, अर्थात उस काल में गांव-देहात के करोड़ों गरीबों की किस्मत बदल गई थी। लेकिन अब फिर समय का पहिया उल्टा घूम गया है।

फोटोः सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

उर्दू के मशहूर शायर मिर्जा गालिब के एक शेर की पंक्ति है- “कहूं किस से मैं कि क्या है, शब-ए-गम बुरी बला है।” आज कोरोना की मार के हालात में जी चाहता है कि गालिब से माजरत के साथ उनके इस शेर को जरा-सा यूं बदल दूं- ‘कहूं किस से मैं कि क्या है, गमे गुरबत (गरीबों का दुःख) बुरी बला है।’

जी हां, जरा उन गरीब मजदूरों और कारीगरों से पूछिए जो इन दिनों गुरबत की मार से हैरान-परेशान पैदल ही हजारों मील चलकर अपने घरों को पहुंचने के लिए निकल पड़े हैं। यह भूख और गरीबी का ही गम है जो उनको सब कुछ छोड़कर परदेस से वतन की ओर चलने को मजबूर कर रहा है। अरे, झारखंड की उस औरत से पूछिए जो तेलंगाना से पैदल अपने गांव पहुंचने के लिए अपने पति के साथ निकल पड़ी। इस मजदूर औरत के पांव इतने भारी हो चुके थे कि कोई सौ किलोमीटर पैदल चलने के बाद उसको दर्द-ए-जचकी उठा और सड़क पर ही उसने एक बच्चे को जन्म दे दिया।बाद में पुलिस उसकी मदद को पहुंची।

आप कहें तो मैं ऐसे हजारों किस्से सुना दूं। खुद हमारे मित्र के घर कामवाली को दो महीने से तनख्वाह नहीं मिल पा रही है। कोई बैंक खाता नहीं, राशन कार्ड नहीं, लॉकडाउन के कारण वह अपनी झुग्गी से साउथ दिल्ली नहीं आ सकती। अब घर में छोटे-छोटे बच्चों के साथ फाके की नौबत है। लुधियाना में एक छोटे से कारखाने के मजदूर दिनेश कुमार ने एक सप्ताह में अपनी पत्नी और मां- दोनों को तपेदिक से अपनी आंखों के सामने मरते देखा। कारण, पैसे खत्म हो गए थे, लॉकडाउन में दवा को कोई प्रबंध नहीं हो सका। पत्नी और मां- दोनों ही लाइलाज मर गईँ। अब दिनेश लुधियाना छोड़कर पैदल अपने घर जाने को बेचैन है।

अरे, ये सब लाखों-करोड़ों गरीब मजदूर और कारीगर बड़े-बड़े महानगरों की चमक-धमक और वहां अपनी रोजी-रोटी छोड़कर गरीबी की मार से बेचैन होकर पैदल अपनी बीबी और छोटे-छोटे बच्चों के साथ अपने गांव-देहात पहुंचने को निकल पड़े हैं। इनका दुख और विपदा सुनने और बांटने वाला कोई नहीं है। यह तो सरकार का काम था कि वह संकट की ऐसी स्थिति में दुखियों एवं गरीबों की मदद के लिए तुरंत आगे आती।

लेकिन यहां केंद्र सरकार की बेहोशी का यह आलम है कि उसने लॉकडाउन लागू होने के लगभग चालीस दिन बाद कुछ ट्रेनें चलाईं तो उसमें भी इन फंसे हुए गरीब मजदूरों से किराया वसूलना शुरू कर दिया। जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने यह घोषणा कर दी कि कांग्रेस पार्टी इन गरीबों का किराया भरेगी तो पूरी बीजेपी सोनिया गांधी पर हमलावर हो गई। उन पर फब्ती कसी गई कि सोनिया गांधी अब हर गांव को इटली बनाना चाहती हैं। अरे, इन भाजपाइयों और भक्तों को सोनिया गांधी पर उंगली उठाते हुए शर्म नहीं आई।

जी हां, वह इटली में जरूर जन्मी हैं, परंतु भारत की सेवा में सर से पांव तक डूबी वह भारतीय महिला हैं, जिन्होंने इस देश के गरीबों की वह सेवा की है जिसको इतिहास याद करेगा। वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के हिसाब से यूपीए सरकार के 2004-2014 के शासनकाल में भारत की बारह प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे की आबादी गरीबी रेखा से ऊपर आई, अर्थात उस काल में गांव-देहात के करोड़ों गरीबों की किस्मत बदल गई। और यह कमाल था सोनिया गांधी की मनरेगा स्कीम का।

एक-एक गरीब के घर में दो-तीन लोगों को जब मनरेगा स्कीम में 90 दिनों का रोजगार मिला तो गरीब की झोपड़ी की काया पलट हो गई। किसी घर में बैंक के कर्ज से मोटरसाइकिल आ गई, तो कहीं पक्का घर खड़ा हो गया। और जब सामान की मांग बढ़ी तो कारोबार और कारखानों पर रौनक छा गई। इस प्रकार देश की अर्थव्यवस्था जगमगा उठी और देश की जीडीपी आठ प्रतिशत से आगे निकल गई। और देखते-देखते भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में पांचवीं श्रेणी पर पहुंच गई।

यह सब कमाल था उन सोनिया गांधी का जिनको बीजेपी आज भी इटली-इटली वाली कहकर जनता को भ्रमित करने की कोशिश करती है। अरे, इससे बड़ा देश प्रेम और क्या होगा कि सोनिया गांधी की एक मनरेगा स्कीम ने करोड़ों गरीबों को गरीबी रेखा से ऊपर निकाल दिया जिसके कारण सारे देश की अर्थव्यवस्था में एक क्रांति आ गई।

यह सोनिया गांधी का ही विजन था जिसके आधार पर अभिजीत बनर्जी जैसे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री आज यह कह रहे हैं कि इस लॉकडाउन में अर्थव्यवस्था में जो तबाही आई है, उससे निपटने का सबसे अच्छा उपाय है कि सरकार हर गरीब के खाते में दस हजार रुपये डाल दे। जब गरीब के हाथ पैसा लगेगा तो वह खरीद-फरोख्त करेगा। इस प्रकार जब बाजार में पैसा पम्प होगा तो कारोबार और कारखाने चमकेंगे। बस, फिर अर्थव्यवस्था में जान आ जाएगी।

सोनिया गांधी की मनरेगा स्कीम का यही आधार तो था। या 2019 के चुनाव में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी की न्याय योजना का भी यही आधार था। गरीब को सीधे पैसा दो, वह खर्च करे और उसकी गरीबी हटे, जब उसकी गरीबी हटे तो फिर अर्थव्यवस्था चमके। जवाहर लाल नेहरू से लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी तक कांग्रेस पार्टी इसी सिद्धांत पर चलती रही और देश धीरे-धीरे संसार के विकसित देशों के कगार तक पहुंच गया।

परंतु अब मोदी राज में उल्टी गंगा बह रही है। आज का सिद्धांत यह है कि गरीब का रोजगार छीन लो ताकि वह असहाय हो जाए। और लाखों हजार करोड़ जनता का पैसा हजम करने वाले बड़े-बड़े उद्योगपति बैंकों का कर्ज हजम कर जाएं तो रिजर्व बैंक उसको एनपीए कहकर माफ कर दे। आप इसको गरीब विरोधी सरकार नहीं कहेंगे तो फिर किसको गरीब विरोधी सरकार कहेंगे। अरे, जो सरकार लॉकडाउन में फंसे गरीब मजदूर का किराया माफ न करे लेकिन पूंजीपतियों का लाखों हजार करोड़ का कर्जा एनपीए के नाम पर माफ कर दे, वह पूंजीपतियों की सरकार नहीं तो फिर किसकी सरकार कहलाएगी।

जी हां, मोदी सरकार की एक महान उपलब्धि यह है कि पिछले सत्तर वर्षों में कांग्रेस पार्टी ने जो ‘वेलफेयर स्टेट’ (कल्याणकारी राज्य) का ढांचा बनाया था उसको इस सरकार ने तोड़ दिया। तभी तो आज गरीब असहाय है। वह इस कोरोना वायरस और लॉकडाउन के खतरों को झेलकर अपने घर पहुंचने को निकल पड़ा है। और मोदी सरकार की ओर से कम-से-कम अभी तक गरीब की मदद के लिए कोई ऐसे पैकेज की घोषणा नहीं हुई है, जो मनरेगा योजना के समान गरीब के जीवन की काया पलट दे।

भला नरेंद्र मोदी यह काम क्यों करेंगे? उनकी सरकार अडाणी और अंबानी-जैसे उद्योगपतियों एवं जनता का बैंकों में जमा पैसा लूटकर देश से भागने वालों की सरकार है। ऐसे में, अगर करोड़ों गरीब अपना-अपना रोजगार छोड़कर बेउम्मीद पैदल अपने घरों को निकल पड़े हैं तो यह कोई अनोखी बात नहीं है। यह सरकार गरीब को गरीबी रेखा से बहुत नीचे तो पहुंचा सकती है, लेकिन उसको गरीबी रेखा से ऊपर नहीं उठा सकती है। यह ऐतिहासिक काम इटली में जन्मी परंतु अपने रोम-रोम में भारत प्रेम में डूबी सोनिया गांधी ने किया था जिनको उद्योगपतियों की नहीं बल्कि गरीबों की चिंता थी। ऐसे में गरीब के दुख पर मातम कीजिए और बस यही कहिएः कहूं किस से मैं कि क्या है, गमे गुरबत बुरी बला है।

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