कॉमनवेल्थ क्रिकेट में आखिर गेंदबाज़ों को क्यों समझा जाता है दूसरे दर्जे का नागरिक!

यदि हम लंबे समय तक क्रिकेट में विश्व विजेता नहीं रहे हैं, तो इसका कारण यह है: हम अपने गेंदबाजों को कम आंकते हैं और बल्लेबाजों को नीचा दिखाते हैं। हम इस प्रवृत्ति से बाहर ही नहीं निकले हैं कि संदेह का लाभ हमेशा बल्लेबाज को ही जाना चाहिए। लेकिन क्यों?

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

ब्रिटिश मीडिया और क्रिकेटर्स हाल ही में लॉर्ड्स में उनकी महिला टीम की भारत के हाथों हार का रोना अभी तक रो रहे हैं। और, विवाद हमारी दीप्ति शर्मा को लेकर है जिन्होंने उनकी आखिरी बल्लेबाज  को उस समय रन आउट कर दिया, जब वह क्रीज छोड़कर बाहर निकल आई थीं। इसी को लेकर दीप्ती की आलोचना हो रही है, लेकिन नियम इस मामले में एकदम स्पष्ट है।

दरअसल, 2017 में इस बाबत हमारे गेंदबाज आर अश्विन के पक्ष में लिए गए फैसले से स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। एमसीसी के पुराने नियम के तहत, गेंदबाजों को गेंद फेंकने की अपनी आखिरी पोजीशन में आने से पहले नॉन-स्ट्राइकर को रन आउट करने की कोशिश करने की छूट थी। अब, क्रिकेट के सभी स्तरों में गेंदबाजों को गेंद फेंकने से पहले तक नॉन-स्ट्राइकर को रन-आउट करनी इजाजत है।

लेकिन इस नियम का पालन करने के लिए ही दीप्ती शर्मा की आलोचना हो रही है। अंग्रेजों का मानना है कि नॉन-स्ट्राइकर को रन-आउट करने से पहले दीप्ति शर्मा को चेतावनी देनी चाहिए थी।

लेकिन यह भी तथ्य है कि बल्लेबाज पर ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं है कि वह गेंदबाज को यह बताए कि वह कब अपनी क्रीज से कब बाहर आ जाएगा। तो फिर सिर्फ गेंदबाद पर ही यह जिम्मेदारी क्यों?

इसका जवाब तो यही हुआ कि गेंदबाज को राष्ट्रमंडल क्रिकेट में दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह देखा जाता है। गेंदबाजों की अहमियत को कम करने और उन पर पाबंदियां लगाने के लिए कई बार नियम बदले जाते रहे हैं। कई बार हमें बताया जाता है कि यह तो बल्लेबाज का खेल है। लेकिन आईसीसी जिस तत्परता और उत्साह से गेंदबाजों का जीवन मुश्किल बना रही है, वह परेशान करने वाला है।

गेंदबाज एलबीडब्ल्यू का दावा तभी कर सकते हैं जब स्टंप और गेंद के बीच में बल्लेबाज का शरीर आ जाए, लेकिन यहां भी बल्लेबाज के पक्ष में नियम बना दिया गया कि अगर गेंद ने लेग स्टंप के बाहर या ऑफ स्टंप के बार टप्पा खाया है तो वह आउट नहीं होगा। यह नियम 1970 के दशक में बनाया गया था।

तेज गेंदबाजों के लिए फ्रंट फुट नियम को 1960 के दशक में बदला गया था, जिससे कि गेंदबाज को और सटीक तरह से गेंदबाजी के लिए मजबूर किया गया। इसी तरह हाल में बाउंसर यानी उछाल लेती गेंदों का नियम भी बनाया गया है। जरा भी ऊंची गेंद होती है तो गेंदबाज को चेतावनी दी जाती है, वैसे ऊपर उठती गेंदों से खिलाड़ियों को चोट लगने की घटनाएं बहुत ही कम हैं।


इसी प्रकार सभी तरह की फील्ड पाबंदियां भी गेंदबाज पर थोप दी गई हैं। इनमें 30 गज के दायरे, पॉवर प्ले और लेग साइड के नियम भी शामिल हैं। एकदिवसीय मैचों में दोनों छोरों के लिए अलग-अलग गेंद होती है ताकि उनकी मजबूती बनी रहे और उसे दूर तक मारा जा सके।

बल्लेबाज़ों को लगातार पुरस्कृत किया जा रहा है जबकि गेंदबाजों को फ्रंट फुट नो बॉल पर फ्री हिट जैसे नियमों से दंडित किया जा रहा है। हालांकि पहले यह नियम सिर्फ फ्रंट फुट नो बॉल के लिए था लेकिन 2015 के बाद से सभी तरह की नो बॉल पर यह नियम लागू कर दिया गया है। नियमों के मुताबिक गेंदबाज की मामूली गलती के लिए भी उसे नो बॉल या वाइड बॉल आदि के लिए दंडित किया जा रहा है। लेकिन बल्लेबाजों के लिए कोई नियम नही हैं, भले ही वह पिच पर दौड़ते भी रहें, तो भी उन्हें सिर्फ हल्की चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है।

बल्लेबाजों को रनर लेने की भी छूट है और चोट लगने पर मैदान से बाहर जाकर तुरंत वापस आने का भी नियम है, लेकिन गेंदबाजों के साथ ऐसा नहीं है। गेंदबाज टी-20 और एकदिवसीय मैचों में सिर्फ निर्धारित ओवर ही फेंक सकते हैं। लेकिन बल्लेबाज जितने चाहे उतने ओवर खेल सकता है।

गेंदबाजों के खिलाफ नियमों आदि की कोई सीमा नहीं है। जब भी कोई नया नियम आदि बनता है तो निशाने पर गेंदबाज ही होते हैं। डीआरएस (अम्पायर के फैसले को चुनौती देने का नियम) वैसे तो गेंदबाज के पक्ष में लगता है, लेकिन ऐसा है नहीं। 2017 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक डीआरएस के तहत गेंदबाजों के पक्ष में सिर्फ 20 फीसदी फैसले ही हुए हैं, जबकि 34 फीसदी फैसले बल्लेबाजों के पक्ष में गए हैं।  इस नियम के इस्तेमाल के नियम भी अलग हैं। बल्लेबाज तो खुद ही डीआरएस की मांग कर सकता है, लेकिन गेंदबाज को अपने कप्तान के जरिए अपील करनी  पड़ती है।

बल्लेबाजी के हर किस्म के तौर-तरीकों को मान्यता है, इसमें स्विच हिट, रिवर्स हिट आदि शामिल हैं और इनकी तारीफ होती है। लेकिन गेंदबाज अगर कोई नया तरीका अपनाता है तो उसे चीटिंग का नाम दे दिया जाता है। याद होगा जब ग्रेग चैपल ने अपने भाई को न्यूजीलैंड के खिलाफ अंडरआर्म गेंदबाजी करने को कहा था, तो उन्होंने कोई नियम नहीं तोड़ा था, लेकिन उन्हें आलोचना का शिकार बनना पड़ा था।

इतना ही नहीं जब सख्त और कड़े नियम भी गेंदबाजों को हतोत्साहित नहीं कर सके तो क्रिकेट एसोसिएशनों ने ऐसा करना शुरु कर दिया। 2009 में ऑस्ट्रेलिया ने दूसरा को प्रतिबंधित कर दिया और कहा कि यह चक यानी झटके से फेंकी जाने वाली गेंद है।


दूसरा पहलू है तकनीक, जिसके तहत बल्लेबाज के लिए बल्ला और अन्य बैंटिंग साजो-सामान की छूट है। याद दिला दें कि जब डेनिस लिली एल्यूमिनियम का बल्ला लेकर मैदान में पहुंचे थे तो उनकी आलोचना हुई थी, लेकिन आधुनिक दौर के क्रिकेट में जिन बल्लों का इस्तेमाल होता है वह लकड़ी से बने उन बल्लों से एकदम अलग हैं जिनका इस्तेमाल ब्रैडमैन, सोबर्स यहां तक कि गावस्कर जैसे महान खिलाड़ी करते थे।

आधुनिक पैड की बाहरी सतह पर ऐसा डिजाइन है जिस पर लगने के बाद गेंद दूर छिटकती है और लेग बाई के रन मिलते हैं। लेकिन क्रिकेट में इस्तेमाल होने वाली गेंदों में सदियों से बदलाव नहीं हुआ है। हाल के वर्षों में गेंदबाज लगातार मांग कर रहे हैं कि उन्हें टेस्ट मैचों में ड्यूक बॉल के इस्तेमाल की इजाजत मिले, क्योंकि इसकी गुणवत्ता अच्छी होती है और सीम मजबूत रहती है। लेकिन भारत अभी भी ऐसे निर्माता की गेंदे इस्तेमाल करता है जिसके लिए गेंदबाज कहते हैं कि वह बुनियादी मानकों पर भी खरी नहीं उतरती।

बल्ले और नियमों मे बदलाव के कारण ही अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में छक्के लगाए जाने की संख्या बढ़ी है। आधुनिक दौर के सबसे खतरनाक बल्लेबाज के तौर पर सर विवियन रिचर्ड्स का नाम लिया जाता है। उन्होंने अपने 15 साल से भी अधिक खेल जीवन में 210 छक्के लगाए हैं। लेकिन शायद पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि छक्के लगाने वाले बल्लेबाजों में उनका स्थान 22वां हैं। रिचर्ड्स से ज्यादा छक्के लगाने वाले सभी 21 बल्लेबाज उनके बाद खेले हैं। दरअसल रिचर्ड्स के ठीक बाद 21वें स्थान पर मार्लन सैमुअल्स हैं। लेकिन सेमुअल्स को शायद ही उसी क्षमता और योग्यता का खिलाड़ी माना जाता हो जोकि रिचर्ड्स थे। लेकिन उन्हें तकनीक और नियमों का फायदा मिला है।

इस सबसे काफी नुकसान हुआ है। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि ऐसा नहीं हुआ है। गेंदबाजी को हेरोल्ड लारवुड से लेकर (जार्डिन थे जिन्होंने बॉडीलाइन गेंदबाजी की शुरुआत की थी लेकिन शर्म की बात है कि इसके लिए लारवुड को दंडित किया गया था) के समय से दलित क्रिकेटर बालू पलवनकर तक यही सिलसिला है।


हमारे देश में, जहां शारीरिक ताकत को कम आंका जाता है, गेंदबाजों और गेंदबाजी को नुकसान हुआ है। भारत ने लंबे समय तक गेंदबाजों को नीचा दिखाने में दुनिया का नेतृत्व किया है और आंकड़े ये बात बिल्कुल स्पष्ट बताते हैं। अगर हम ऑल टाइम इंडियन इलेवन बनाने की कोशिश करें तो पाएंगे कि बल्लेबाजी तो हमारी विश्व स्तर की है (गावस्कर, सहवाग, कोहली, तेंदुलकर, द्रविड़), और गेंदबाजी फिसड्डी है। कपिल देव, कुंबले, हरभजन और अश्विन हमारे सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गेंदबाज हैं। उनमें से पहले तीन का औसत लगभग 30 रन प्रति विकेट है, और ऑस्ट्रेलियाई या वेस्ट इंडीज या पाकिस्तानियों वाली लीग में वे नहीं हैं। सर्वश्रेष्ठ ऑल टाइम टेस्ट गेंदबाजी औसत की सूची में, सर्वोच्च स्थान पर रखा गया भारतीय गेंदबाज 35 (जसप्रीत बुमराह) का है, उनके बाद 72 (आर अश्विन) है।

यदि हम लंबे समय तक क्रिकेट में विश्व विजेता नहीं रहे हैं, तो इसका कारण यह है: हम अपने गेंदबाजों को कम आंकते हैं और बल्लेबाजों को नीचा दिखाते हैं। हम इस प्रवृत्ति से बाहर ही नहीं निकले हैं कि संदेह का लाभ हमेशा बल्लेबाज को ही जाना चाहिए। लेकिन क्यों?

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