‘इंडिया’ को क्यों जरूरत है कराची 2.0 की?

साफ है कि विपक्षी खेमा आरएसएस-बीजेपी के हिन्दुत्व एजेंडे के खिलाफ खड़ा है। उसे अब बहुसंख्यक सांप्रदायिकता से निपटना होगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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शुभम शर्मा

1931 का कराची संकल्प भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक अहम मोड़ था। इसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को मौका दिया कि वह भारत के लोगों के सामने एक दूरदर्शी दस्तावेज रखकर मुस्लिम लीग की सांप्रदायिकता का मुकाबला कर सके। इस दस्तावेज में खाका खींचा गया कि कांग्रेस देश को कैसी शक्ल देना चाहती है। इसमें प्रमुख उद्योगों और खनिज संपदा के राष्ट्रीयकरण, मौलिक अधिकार, कानून के समक्ष समानता, सभी धर्मों के मामले में सरकार की तटस्थता, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की बात कही गई। इसके अलावा इसमें निर्वाह मजदूरी, स्वस्थ कार्य परिस्थितियां, काम के सीमित घंटे और बुढ़ापे, बीमारी और बेरोजगारी के आर्थिक नुकसान से सुरक्षा जैसे श्रम अधिकार शामिल थे।

बंटवारे से ठीक पहले, मुस्लिम लीग के पास तथ्य या दृष्टि के हिसाब से कराची प्रस्ताव जैसा कोई दस्तावेज या घोषणा पत्र नहीं था। इसके विपरीत, लीग अपनी सांप्रदायिक मांगों को बढ़ाती रही जिसका नतीजा 1940 के लाहौर प्रस्ताव में हुआ जिसमें एक अलग देश ‘पाकिस्तान’ की मांग की गई।

कुछ ऐसा ही आज के भारत में हो रहा है। शासन के सभी मोर्चों पर विफल होने के बाद सत्तारूढ़ भाजपा और उसके वैचारिक संगठन आरएसएस भारत के लोगों को धर्म के नाम पर बांटने की की कोशिश कर रहे हैं। बीजेपी शासित राज्यों में मुसलमानों को खुलेआम निशाना बनाया जा रहा है। जिस तरह से दक्षिण दिल्ली लोकसभा सीट से बीजेपी सांसद रमेश बिधूड़ी ने हाल ही में संपन्न संसद सत्र में अपने साथी सांसद, बीएसपी के कुंवर दानिश अली के लिए अपशब्द कहे और जिस तरह उनके इस मामले से बच निकलने की संभावनाएं बन रही हैं, इससे साफ होता है कि हालात कितने बदतर हो चुके हैं।

यह बिल्कुल साफ है कि बीजेपी-आरएसएस की ध्रुवीकरण की साजिश 2024 के लोकसभा चुनावों तक जारी रहने वाली है। वे चुनाव जीतने के लिए कुछ भी करेंगे और उनकी ओर से लगातार चलाए जा रहे सांप्रदायिक अभियान का सबसे ज्यादा खामियाजा मुसलमानों को ही उठाना होगा। इससे प्रभावी ढंग से लड़ने के लिए, इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव एलायंस (इंडिया) को युद्ध स्तर पर मोर्चा खोलने की जरूरत होगी।


आज भारत और भारतीयों के लिए सांप्रदायिकता का खतरा उतना ही बड़ा है जितना कराची प्रस्ताव के समय का उपनिवेशवाद। हां, इसमें थोड़ा फर्क है। उपनिवेशवाद के तहत, यह विदेशी लोग थे जो फूट की वजह थे और उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता था; इस सांप्रदायिक शासन के तहत वे भीतर के ही कुछ लोग हैं जो लोगों को बांटने और उनमें फूट डालने का कारण बनते हैं। ये लोग जाहिर तौर पर तो एक ही संविधान की शपथ लेते हैं लेकिन देश पर अधिक दावा करते हैं।

इसका नतीजा यह होता है कि उन्हें इतनी आसानी से पहचाना नहीं जाता और ऐसे लोग अपनी सांप्रदायिकता के ब्रांड को राष्ट्रवाद के रूप में पेश करने में सफल हो जाते हैं। आरएसएस-बीजेपी को इस काम में महारत हासिल है।

कराची संकल्प तीन घटनाओं की श्रृंखला से उत्पन्न हुआ:

  • पहला, 1930 का ‘पूर्ण स्वराज’ संकल्प जिसमें ब्रिटिश उपनिवेशवाद से पूरी तरह आजादी की बात की गई थी; कराची प्रस्ताव में पूर्ण आजादी के इस दर्शन को व्यवहार में कैसे उतारा जाए, इसका जवाब मिलता है। दूसरे शब्दों में, स्वराज कैसा होगा, इस सवाल का जवाब कराची में दिया गया।

  • दूसरा, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे वामपंथी क्रांतिकारियों की शहादत जिसने कांग्रेस को भारत के बेचैन युवाओं, श्रमिकों और किसानों के लिए एक क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश करने के लिए प्रेरित किया।

  • तीसरा, कांग्रेस के भीतर वामपंथी विचारधारा का उदय। इसे खास तौर पर जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस सहित उनके युवा साथियों में देखा जा सकता है। तेज बहादुर सप्रू ने इस पर निशाना साधते हुए कहा कि कराची प्रस्ताव ‘जवाहरलाल से लगाव के लिए (गांधी द्वारा) चुकाई गई भारी कीमत थी।’

युवा नेहरू ने सोवियत संघ और यूरोप के अपने दौरे के दौरान महसूस किया था कि भारत को एक बेहतर उज्जवल भविष्य की आशा में विदेशी ताकत से लड़ने के लिए जनता को उत्साहित करने के लिए एक सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम की जरूरत होगी।


‘INDIA’ को जरूरत है नई सोच की

आज ‘इंडिया यानी भारत’ की बेहतरी के लिए ‘INDIA’ मोर्चे को इस आशय का प्रस्ताव लाना होगा कि वह सांप्रदायिक राजनीति समेत सांप्रदायिकता के सभी स्वरूपों से देश को आजाद कराएगा। यह तीन कारणों से जरूरी है:

सबसे पहले, आरएसएस-बीजेपी ने भारतीय धर्मनिरपेक्षता को मरने और सड़ने के लिए छोड़ दिया है और अगर ‘इंडिया’ ने उसमें फिर से जान नहीं फूंकी तो वे 2024 में उसका अंतिम संस्कार कर देंगे। दूसरा, जो पीढ़ी इस अंधेरे समय में बड़ी हो रही है वह ‘सांप्रदायिक सामान्य ज्ञान’ का शिकार होगी। उनके लिए, समाज में यह धार्मिक विभाजन उन पर थोपा गया एक कृत्रिम राजनीतिक हालात न होकर एक स्पष्ट सी वास्तविकता होगी। तीसरा, अगर हिन्दुत्व फिर से जीतता है, तो सभी प्रकार की असहमति का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। धार्मिक अल्पसंख्यकों, खास तौर पर मुसलमानों का भाग्य बेहद अनिश्चितताओं भरा होगा; बेशक वैधानिक रूप से न हो, लेकिन व्यावहारिक नजरिये से वे दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रह जाएंगे।

ठीक वैसे ही जैसे नेहरू और उनके साथियों ने कराची में किया था, ‘इंडिया’ को मेहनतकश जनता के लिए कुछ ऐसा ही पेश करना चाहिए। कॉर्पोरेट कराधान के माध्यम से वित्तपोषित सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली ऐसा ही एक महत्वपूर्ण घटक हो सकती है।

भारतीय मध्यम वर्ग भी ऐसी नीति का बड़ा लाभार्थी होगा क्योंकि वह गरीबी में धंसने से सिर्फ एक बड़ी बीमारी दूर हैं। कोविड नरसंहार इसका प्रमाण है। अन्य सुरक्षात्मक वादे जैसे संशोधित और सम्मानजनक न्यूनतम वेतन, सार्वजनिक क्षेत्र में ठेके की नौकरियों को खत्म करना, किसानों को उनके उत्पादों के लिए सही और उचित मूल्य, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को ‘शिक्षकों’ के रूप में वर्गीकृत करना; चंद ऐसे नीतिगत उपाय हैं जो कराची 2.0 का खाका खींच सकते हैं।

इन कल्याणकारी और पुनर्वितरण उपायों के अलावा, ‘इंडिया’ को भारतीय लोकतंत्र को नफरत के जहर से छुटकारा दिलाने के लिए एक संपूर्ण ‘विषहरण’ योजना की पेशकश करनी चाहिए क्योंकि यह जहर राजनीति के ऊतकों में भी गहराई तक पैठ चुकी है।

धार्मिक अल्पसंख्यकों, खास तौर पर, मुसलमानों के बीच विश्वास पैदा करने के लिए एक ठोस प्रयास किया जाना चाहिए। नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019-राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर-राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए और पूर्वी भारत में प्रवासन के संबंध में सभी लंबित मुद्दों को तुरंत इस तरह से हल किया जाना चाहिए कि भविष्य में आरएसएस-भाजपा को चारा न मिले।


कम-से-कम उत्तर भारत के राज्यों में, उर्दू को हिन्दी और स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली भाषा और लिपि के समान माना जाना चाहिए। पुरानी दिल्ली में पैदा हुई उर्दू लिपि और भाषा से अपरिचित होना शर्म की बात होनी चाहिए। एक निजी किस्सा यहां अप्रासंगिक नहीं होगा। 2014 में जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में था, तब मैंने अपने एक हिन्दू पाकिस्तानी दोस्त के पास उर्दू की नस्तालिक लिपि में रचित हनुमान चालीसा देखा था! तथ्य यह है कि मेरे जैसे धुर धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति को भी एक स्क्रिप्ट पहले ‘मुस्लिम’ दिखाई दे तो यह एक चिंताजनक पीढ़ियों के पूर्वाग्रह को दिखाता है। मेरे दादाजी की पीढ़ी के लिए उर्दू कोई ‘मुस्लिम’ भाषा नहीं थी। वह उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी पारंगत थे। क्या यह शर्मनाक नहीं है कि मेरी पीढ़ी के ज्यादातर भारतीय मीर तकी मीर और मिर्जा गालिब जैसी प्रतिभाओं की कृतियों को उनके मूल रूप में भी नहीं पढ़ सकते हैं?

‘इंडिया’ को निश्चित ही इस बात की घोषणा करनी चाहिए कि वह जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस देने, अनुच्छेद 370 के निलंबन को रद्द करने और गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) में 2019 के संशोधन जैसे कठोर कानूनों को वापस लेने के लिए वह प्रतिबद्ध है। संदिग्ध भारतीय न्याय संहिता के जरिये देशद्रोह कानूनों को नया अर्थ देने के सरकार के प्रयासों का भी विरोध करना चाहिए। इसे प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि एक झूठी राष्ट्रवादी धारा को मजबूत करने के सभी प्रयास बंद हो जाएंगे। मणिपुर जैसी जगहों में अंतर-सांप्रदायिक संघर्ष के घावों पर मरहम लगाने के लिए एक ‘सत्य और सुलह आयोग’ बनाया जाना चाहिए।

कराची प्रस्ताव पारित हुए लगभग एक शताब्दी हो गई है। इसने तब अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को चुनौती दी थी; कराची 2.0 आज बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता को खत्म कर सकता है।

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