बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूती देने के बजाए आयुष्मान भारत उर्फ मोदीकेयर के नाम पर बताशे बांटती सरकार

जब पर्यावरण, जल प्रदूषण पीड़ित गांवों-शहरों में कुपोषित महिलाएं बच्चे बड़ी तादाद में मलेरिया, तपेदिक और संक्रामक रोग के शिकार बन रहे हों, उस समय मौजूदा प्रणाली को मज़बूत बनाने के बजाय आकर्षक नाम वाली एक अदद नई योजना पर बताशे बांटना समझ नहीं आता।

फोटो : सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

2014 के चुनावों में सत्ता परिवर्तन की मांग कर रहे विपक्ष की तरफ से सिर्फ एक मुद्दा हावी था। वह था, यू पी ए का कुशासन। एनडीए सरकार के लिये एक सजीव मुद्दे के रूप में उस मुद्दे का प्राणांत नहीं हुआ है। अपनी जनसेवा प्रतिबद्धता को यूपीए से बेहतर साबित करने की कड़ी में उसने 2017 के बजट में धूमधाम से आयुष्मान भारत कार्यक्रम के शीर्षक से एक ‘नई’ राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना की घोषणा की, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी परिवार स्वास्थ्य बीमा योजना बताया गया।

यह आशा भी ज़ाहिर की गई कि अब निजी चिकित्सा क्षेत्र भी इस कल्याणकारी मुहिम से जुड़ेगा और आने वाले सालों में स्वास्थ्य बीमा सुविधाओं के तहत सारे देशवासियों तक ज़रूरी स्वास्थ्य सेवायें पहुंचाने में सरकार का हंसमुख भागीदार बनेगा।

रविवार 23 सितंबर को इस योजना का आगाज़ धूमधाम से हो रहा है। सार्वजिनक क्षेत्र में पैर पसारने को आतुर बीमा कंपनियों और निजी क्षेत्र के अस्पताल मालिकों ने योजना का ज़ोरदार स्वागत किया है। अब उनके लिये सरकारी सब्सिडी की नसेनी से नये ‘वैलनैस’ क्लिनिक और अस्पताल बनवाना और उनकी मार्फत शहरी और गांवों के गरीबों तक पहुंचना आसान हो जायेगा।

लेकिन, विपक्ष ही नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र के रोग निरोधी दस्तों, चिकित्सकों, जन स्वास्थ्य पर शोध करते रहे संस्थानों और राज्य सरकारों का रवैया आयुष्मान भव योजना को लेकर ठंडा बना रहा है। वजह यह, कि पिछले साल की जन स्वास्थ्य बीमा योजना अपेक्षित लाभ नहीं दे सकी है। प्रचार के उलट वह दुनिया की सबसे बड़ी बीमा योजना नहीं है। लाभार्थियों की दृष्टि से देश के शत प्रतिशत परिवारों को नियमित तौर से लाभान्वित करने वाली चीन की सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजना इससे बीस है।

जानकारों को यह भी डर है कि सरकार अंतत: खुद सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से हाथ खींच कर इसे उस निजी चिकित्सा क्षेत्र के हवाले तो नहीं कर देगी, जिसका लक्ष्य आम जनता की नज़रों में कम निवेश से भरपूर मुनाफा पाने का ही दिखता है।

सवाल कई हैं और हर सवाल पूछने वाला राजनैतिक विपक्ष से भी नहीं जुड़ा है। मसलन टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल सायंसेज़ के स्वास्थ्य विशेषज्ञों की पड़ताल के अनुसार योजना के तहत सरकार की तरफ से जिन बीमा कंपनियों को भारी राशि उपलब्ध कराई भी गई थी, उन्होंने अब तक अपने धारकों में से 50 फीसदी से भी कम को भुगतान किया है।

गये बरस से हर धारक के लिये राशि क्लेम करने के लिये आधार कार्ड दिखाना अनिवार्य बन गया है, जिससे कई गरीब लाभार्थी (जैसे गरीब अनपढ़, प्रवासी मजदूर या एचआईवी पॉज़िटिव पाये गये लोग ) ज़रूरत होते हुए भी उपचार के लिये इस स्वास्थ्य कल्याण बीमे का फायदा नहीं उठा पाये।

जन कल्याण के नाम पर केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य बजट में 2.8 फीसदी की जो बढ़ोतरी की उसकी वजह से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, एड्स कंट्रोल कार्यक्रमों और नये चिकित्सकीय कालेजों की स्थापना का बजट भी 2.8 से 12.5 फीसदी तक काट दिया गया। और, नई योजना के कुल खर्च का 40 फीसदी मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी भी यह कहते हुए राज्य सरकारों पर डाल दी गई है कि स्वास्थ्य कल्याण राज्यों का विषय है। यानी योजना को लागू करने में जो फी परिवार कुल सालाना खर्च (1,082 रुपए ) बनेगा उसमें से राज्य सरकारों को अपनी तरफ से 433 रु फी परिवार देय होगा।

कई राज्य, खासकर दक्षिण के केरल, आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु और कर्नाटक इससे कहीं बेहतर बीमा सुरक्षा कवच अपने यहां के धारकों को मुहैया कराते रहे हैं। उनकी अतिरिक्त खर्चा ढोने की कोई इच्छा नहीं।

अब सवाल गुणवत्ता का। चूंकि हमारे यहां राज्य स्तर पर निजी चिकित्सा क्षेत्र के लिये ज़रूरी तादाद में नियामक संस्थायें या तो हैं ही नहीं या निष्क्रिय हैं, यह असंभव नहीं, कि गरीबों को कम दाम पर बेहतरीन उपचार देने की बजाय सरकार से मिली बीमा भुगतान की ऊंची सीलिंग देख कर निजी चिकित्सालयों की बेहतर स्वास्थ्य सुविधायें मुहैया कराने के बजाय लंबे अस्पताली प्रवास, अवांछित सर्जरी या तमाम फालतू किस्म की जांचों से मोटी रकम वसूली का मौजूदा रुझान बना रहे।

चयनित बीमा कंपनियों को सरकारी नियमों के तहत ठेके देने की प्रक्रिया भी काफी समय लेती है | यानी कुल मिला कर नई स्वास्थ्य बीमा योजना का ज़मीनी अवतार बनने में समय लगेगा। इस बीच आर्थिक कटौती लागू होने से बुनियादी क्षेत्र की ज़रूरी स्वास्थ्य संरक्षण और रोगनिरोधी सेवायें उपेक्षित कमज़ोर होती जा रही हैं। हाल यह है कि राजधानी के सरकारी अस्पतालों में डिप्थीरिया के टीके भी नहीं मिल पा रहे। क्या विकासशील देशों में उपचार की बजाय रोग निरोध और बुनियादी स्वास्थ्य संरक्षण के क्षेत्रों को बल दिया जाना अधिक फलदायी नहीं होगा ?

जब पर्यावरण, जल प्रदूषण पीड़ित गांवों-शहरों में कुपोषित महिलाएं बच्चे बड़ी तादाद में मलेरिया, तपेदिक और संक्रामक रोग के शिकार बन रहे हों, उस समय मौजूदा प्रणाली को मज़बूत बनाने के बजाय आकर्षक नाम वाली एक अदद नई योजना पर बताशे बांटना समझ नहीं आता।

जो लोग इस लोकतांत्रिक पड़ताल में सिर्फ राजनीति देखते हैं, क्या वे 1947 से पहले के उस भारत में लौटना चाहते हैं जब देश में लोकतंत्र नहीं था, और प्रजा या प्रतिपक्ष राजा से सवाल नहीं पूछा करते थे। जब राजा और प्रजा, अमीर सामंतों और फटेहाल बंधुआ मजूरों के बीच कोई संस्थागत रिश्ता नहीं था और मानसून को ही लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश, सब कुछ भाग्य पर ही निर्भर माना जाता था?

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