मृणाल पाण्डे का लेखः बजट रूखा, बाजार सूखा क्यों? रोकड़ा न था

हमेशा ‘यस सर’ कहने वालों की जमात साथ लिए, ईमानदार बेबाक विशेषज्ञों का तिरस्कार करने वाला नेतृत्व अपनी गलतियों से सीखने की बजाय उनको दोहराते जाने को अभिशप्त होता है। ग्रीक नाटककारों ने बड़े-बड़े योद्धाओं के अंतिम पतन के लिए इसी अजीब घमंड को जिम्मेदार माना है।

अतुल वर्धन
अतुल वर्धन
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मृणाल पाण्डे

बतरस की धनी मौजूदा सरकार जब 2019 की भारी जीत के बाद दोबारा सत्ता में आई थी, तो उसने देश के बहुमुखी विकास की भारी उम्मीदें जगाईं। जब अक्टूबर में सेंसेक्स ने 38,000 का चमत्कारी आंकड़ा छू लिया और जनवरी 2020 के अंत तक वह 42,000 अंकों के पार चला गया, तो गोदी मीडिया को ब्रह्मानंद की चरम समाधि लग गई। वित्त मंत्राणी ने आक्रामक भाषण देकर विपक्ष को बार-बार कोसा और आभास दिया कि अबकी बार मोदी सरकार का बजट न भूतो न भविष्यति स्तर का होगा। लेकिन बजट का दिन आया और निकल गया, और सरकार के समर्थक लिक्खाड़ों और मीडिया पंडितों-पंडों को भी (अब तक के सबसे लंबे) बजटीय भाषण के बाद भी विकास का प्रस्तुत लेखा-जोखा रूखा, अनाकर्षक लगता रहा। शेयर बाजार, जो किसी भी बजट की सफलता या असफलता का आईना माना जाता है, ने शाम तक गत 11 सालों की सबसे भारी (1000 अंकों की) गिरावट से बता दिया, कि उहुंक बात नहीं बनी।

आखिर इतने सारे जाने-माने अर्थशास्त्री और विद्वान् ऐसा गच्चा क्यों खा गए? रिजर्व बैंक के दो-दो गवर्नर बदलने के बाद भी रिजर्व बैंक लस्त क्यों दिखता रहा? आखिर किस आधार पर गोदी मीडिया को भरोसा था कि छ: बार फ्लॉप बजट देने वाले वित्त मंत्रालय की कोख से सातवीं बार एक चमत्कारिक अवतारी बजट पैदा होकर देश की तकदीर बदल देगा?

पिछले छ: बरसों में उद्योग जगत और बैंकिंग क्षेत्र से जुड़े बड़े लोगों और कर दाताओं के खिलाफ लगातार हुई कार्रवाइयां, नोटबंदी से लेकर हजार कमियों वाले जीएसटी को ताबड़तोड़ लागू करना, विश्वस्त अनुभवी (खुद सरकार के अपनी संस्थाओं के जमा किए) लेकिन ईमानदारी से विकास की बाबत अप्रिय ब्योरे दे रहे डेटा को खारिज करते जाना, सरकारी कृपाकांक्षी ‘यस सर’, कहने वाले बाबुओं की फौज से क्रांतिकारी आर्थिक सुझावों की उम्मीद करना, बार-बार जरूरी नए दूरगामी नतीजों वाले फैसलों को समुचित संसदीय विमर्श के बिना या तिकड़मी उपनियमों की मदद से पास करा लेना, और ठोस योजनाओं के ब्लूप्रिंट की जगह चटपटे जुमलों, आकर्षक परिवर्णी लफ्जों (एक्रोनिम्स), तथा नेतृत्व की नाना छवियों को ही मुख्यधारा तथा सोशल मीडिया मंचों की मार्फत देश के सामने रखते रहना, ये कुछ सर्वज्ञात वजहें हैं।

लेकिन कुछ तो सरकार के प्रति अंध भक्ति, कुछ सरकारी महकमों का दबाव और कुछ मालिकान के हित स्वार्थों की वजह से अधिकतर मीडिया, खासकर भाषाई मीडिया ने सरकारी डेटा खारिज करने वालों की बिना पड़ताल किए श्रद्धा भाव से सरकारी प्रेस नोटों को ही खबर बनाना जारी रखा। ईमानदार जानकारों की राय को तवज्जो देने की बजाय जी हुजूरिया लोगों की ठकुरसुहाती को पोसने से अंतत: यही होता है:

सचिव, वैद, गुरु तीन जो, प्रिय बोलिहिं भय आस,

राज, धर्म, तन तीन कर होहि बेगिहीं नास।। (तुलसीदास)


इतिहास में कई ताकतवर शासक दरबारियों की जयजयकार के नशे से झूमते हुए अपने नाम को नई योजनाओं, नए निर्माण कार्यों, बड़ी-बड़ी मूर्तियों की मदद से सदियों तक कायम कर जाने का सपना देखते आए हैं। लेकिन उन क्षणों में बहुत जरूरी है कि महानायक न केवल दिमाग खुला और मुंह, जहां तक संभव हो, बंद रखे। वह बेहतरीन विषय विशेषज्ञों की खोजकर उनको पहले कायम कर्मठ और स्वायत्त संस्थाओं में सादर बिठा कर उनकी सलाह को योजना बनाने और ईमानदार शोध कार्य के लिए तवज्जो दे। इस क्रम में नेतृत्व में अगर निजी बदले या होड़ या पुराने हिसाब तय करने की भावना प्रबल हो गई तो नया तो साकार क्या हो, पुराना भी बहुत कुछ बरबाद हो जाता है। हमेशा ‘यस सर’ कहने वालों की जमात को ही साथ लिए फिरता, ईमानदार बेबाक विशेषज्ञों का तिरस्कार करने वाला नेतृत्व अपनी गलतियों से सीखने की बजाय उनको दोहराते जाने को अभिशप्त होता है। ग्रीक नाटककारों ने बड़े-बड़े योद्धाओं के अंतिम पतन के लिए इसी अजीब घमंड (ह्यूब्रिस) को जिम्मेदार माना है।

बजट की महीन लिखाई अब तक ठीक से पढ़ चुके विशेषज्ञ कह रहे हैं कि बजट-2020 देश की अर्थनीति पर बीजेपी के अपने राजनीतिक लक्ष्यों के भारी पड़ते जाने का प्रमाण है। यानी चुनाव दर चुनाव बहुमत से आगे जाने को उत्सुक सरकार के लिए अर्थनीति का कम, राजनीतिक पहलों का अधिक महत्व है। इसीलिए वह अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के नियम कायदों को दूर हटा कर लगातार ईडी के छापों, विपक्ष के पूर्व वित्तमंत्री को महीनों जेल में डालकर अपमानित करने, सरकार से कटु सत्य कहने की जुर्रत करने वाले हर बड़े ओहदेदार के खिलाफ जांच के खाते खोलने, और जेफ बेजोस सरीखे निवेशक को सरेआम अपमानजनक बातें कहने जैसे काम करती रही।

नतीजतन निर्माण कार्य और उत्पादन लगभग ठप्प पड़ गए हैं, सार्वजनिक उपक्रम बीमार हैं और किसानी बदहाल है। उधर उत्कट पाकिस्तान विरोधी कदमों से वोट बटोरने की योजनाओं से वोट भले मिले हों, लेकिन पश्चिमी सीमाएं गर्म हो उठी हैं और पड़ोसियों से रिश्ते सर्द। विदेशी मीडिया और बड़े दिग्गज धनकुबेर तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष सब भारत की अर्थव्यवस्था की अधोगति को लेकर निराशा जता रहे हैं। फिर भी बजट में उच्च शिक्षा या कृषि क्षेत्र की बजाय, जहां तक संभव था, सेना का बजट बढ़ाया है, वह भी मामूली सा। स्वास्थ्य का बजट भी कुछ बढ़ा है, पर स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में। हस्पताली सुविधाओं को लेकर नहीं।

यह बात कोई भी आंख वाला देख सकता है, कि देश की सबसे बड़ी दिक्कत इस समय कोई है तो वह है बढ़ती आर्थिक विषमता और सामाजिक तनाव। आज भारत के सरकार के करीबी माने जाने वाले नौ बड़े मालदार परिवारों के हाथ में फिलवक्त जो संपत्ति आ चुकी है, वह देश की आधी आबादी की कुल संपत्ति से अधिक ठहरती है। देश के 75 फीसदी कामगार बीस हजार रुपये प्रतिमाह से कम कमा रहे हैं। 60 फीसदी असंगठित क्षेत्र के मजदूर (जिनमें बड़ी तादाद औरतों की है) पांच हजार प्रतिमाह तक ही पा रहे हैं। बाजारों में महंगाई जिस तेजी से बढ़ी है, उनका निजी बजट कैसा होगा अनुमान लगाया जा सकता है।


मध्यवर्ग के युवा लोगों के लिए किस्तों पर मकान खरीदना स्वप्न बन चुका है, और छंटनियां उनका दु:स्वप्न बन गई हैं। उधर घर-घर डिग्री याफ्ता लड़के भी सरकारी चौकीदार बनने या पुलिस, रेलवे में मामूली सी भर्ती के लिए भी व्याकुल हैं। असहज और शंकालु बनते समाज में बीजेपी के कई नेताओं के बयान पाकिस्तान और अल्पसंख्यकों को सीमा की असुरक्षा से लेकर कई योजनाओं की विफलता तक का सीधा जिम्मेदार ठहराते हुए सीएए की मदद से उनको कभी दीमक तो कभी देशद्रोही कह कर दरबदर करने की धमकी देते रहते हैं। दुनिया की सबसे विशाल आबादी वाले राज समाज में ऐसी सामाजिक-आर्थिक विषमता आगे जाकर बड़े जनांदोलन भड़का सकती है।

अगर सरकार विशुद्ध आर्थिक-सामाजिक संतुलन के पैमाने पर सोचती होती, तो इस दशा की बेहतरी की एक राह बन सकती थी। पर सरकारी संस्थानों में नागरिकता की नई परिभाषा से लेकर किसानी, सरकारी संस्थाओं में नियुक्तियों, या बीमा निगम और एयर इंडिया जैसे सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने की बाबत जो सोचा जा रहा है, वह बजट तक में जीते जागते कामगरों के स्थायी हितों से नहीं, राजनीतिक दल और विचारधारा विशेष के आग्रहों से ही संचालित नजर आता है।

गुजिश्ता सात सालों को ईमानदारी से देखने से लगता है कि असली इच्छा शायद योजना आयोग जैसे दीर्घकालिक योजना बनाने वाली संस्था या जीवन बीमा निगम पर तालाबंदी अथवा सालाना बजट प्रस्तुति का महत्व कम करने की थी ही नहीं। सारा आग्रह लगातार सारे देश के मानसिक भूगोल को हिंदुत्व के हथौड़े से गढ़े गए एक विचारधारा विशेष के बने बनाए टाइट खांचे में फिट देने पर है। इसीलिए छात्रों या फैकल्टी की अनदेखी कर कई विश्वविद्यालयों के कुलपति बदल दिए गए, कई बड़े विश्वस्तरीय तकनीकी कौशल शोध संस्थानों पर निहायत अवैज्ञानिक विचारों से लैस, किंतु सरकार के समर्थक लोग आ गए और पाठ्यक्रम तथा शोध की धारा सब उस डिसिप्लिन के बुनियादी नियमों की उपेक्षा कर राजनीतिक विचारधारा विशेष से साग्रह जोड़े जा रहे हैं।

इस सबसे क्या यह नहीं लगता कि विचारधारा विशेष के तहत एकाध साल में भारत के लोकतांत्रिक संस्थानों को ही आमूलचूल यूं बदल दिया जाएगा कि कहीं से असहमति की आवाज उठना नामुमकिन बन जाए? जो अनिवार्य आक्रोश छात्रों में, शिक्षकों और कुशल-अकुशल कामगारों और किसानों के बीच पनपा भी है, उस की धारा अब राज्य दर राज्य सांप्रदायिक गुटबंदियों के टकराव (कभी महिलाओं-लड़कियों की बेइज्जती का हौवा खड़ा करते हुए और कभी गो रक्षा या मस्जिद-मंदिर के बहाने) न्योतते हुए हिंदू बहुल राष्ट्र के पक्ष में बड़ी चतुराई से मोड़ी जा रही है।

इससे दो बातें होंगी: एक तो आर्थिक बदहाली और बेरोजगारी की शिकार जनता (खासकर अधपढ़े बेरोजगार युवाओं) का नजला सरकार की बजाय एक समुदाय विशेष पर झड़ने लगेगा। और दो, दल विशेष का बहुसंख्य जनाधार पुख्ता होता रहेगा। दिल्ली से उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल तक इसके इतने प्रमाण हैं कि उनको गिनाने की जरूरत नहीं। ऐसे समय हर तरफ से निराश जनता न्यायपालिका की तरफ आस से देखती है। पर आज जबकि सांप्रदायिकता और महिला विरोधी हिंसा का ज्वालामुखी राज्यवार कहर बरपा रहा है, तमाम अल्पसंख्यक और परिवार चीखते- चिल्लाते इधर-उधर भाग रहे हैं, तब यह कहकर सांत्वना दी जा रही है, कि इस ज्वालामुखी का लावा अंतत: राष्ट्र के लिए बहुत मुफीद साबित होगा। अंतत: जरूर, लेकिन तब तक यह लोकतंत्र कितना मानवीय, कितना संविधान आधारित रह जाएगा?

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