अलग क्यों हैं अयोध्या के दशहरे वाले राम?
इस दशहरे को जो एक और बात विशिष्ट बनाती है, इसमें अवध की गंगा जमुनी तहजीब का लगातार पुष्पित और पल्लवित होते रहना।

निस्संदेह, अयोध्या के दशहरा की बात ही कुछ और है। लेकिन शायद आपको विश्वास न हो, अपने सारे निरालेपन के बावजूद और अनेक मिथकीय दावों के विपरीत अयोध्या में दशहरा पर धूमधाम का रिवाज बहुत पुराना नहीं है। रामलीलाओं की वर्तमान परंपरा भी गोस्वामी तुलसीदास और मेधा भगत के प्रयत्नों से वाराणसी में उसके धूम मचा देने के अरसे बाद अयोध्या पहुंची। बावजूद इसके कि तुलसीदास ने रामचरितमानस (जो इन रामलीलाओं का मुख्य आधार है) की रचना अयोध्या में ही शुरू की थी। उनके शिष्य कृष्णदत्त मिश्र की ‘गौतम चंद्रिका’ के अनुसार, तुलसीदास को रामलीलाओं की प्रेरणा अयोध्या में वाल्मीकि रामायण के पाठ और श्रवण से मिली।
दिलचस्प यह कि उन्होंने अपने समय में अयोध्या में झांकियों और मूक अभिनयों के साथ रामचरितमानस की चौपाइयों के गायन वाली जो रामलीला शुरू कराई थी, उसका मुख्य उत्सव चैत रामनवमी यानी भगवान राम के जन्मदिन पर होता था। लेकिन वह कुछ वर्ष ही चली और किसी परंपरा में नहीं परिवर्तित हो पाई। दशहरा पर होने वाली वर्तमान रामलीलाओं का तो प्रस्थान बिन्दु भी नहीं बन पाई।
फिलहाल, अब अयोध्या में उससे ज्यादा चर्चा कथित तौर पर कभी संस्कृत में होते रहे ‘हनुमत अभिनय’ और हरिवंश पुराण में उल्लिखित वाल्मीकि रामायण के नाट्य रूपांतर की हुआ करती है।
अनंतर, अयोध्या में जो रामलीलाएं शुरू हुईं और अभी तक चली आती हैं, अपनी परंपरा के लिए बनारस के रामनगर की उस प्रसिद्ध रामलीला की कृतज्ञ हैं, जिसे 1783 में तत्कालीन काशी नरेश उदितनारायण सिंह ने शुरू कराया था। कहते हैं कि ददुआ के नाम से प्रसिद्ध अयोध्या के महाराजा प्रताप नारायण सिंह (1855-1906) ने कभी बनारस जाकर वह रामलीला देखी और उससे प्रभावित होकर लौटे तो अयोध्या में अपने राजसदन में उसी की तर्ज पर रामलीला शुरू कराई। फिर लक्ष्मण किला और पत्थर मंदिर वगैरह और फैजाबाद में भी रामलीलाएं शुरू हुईं।
लेकिन इन रामलीलाओं ने भगवान राम की धनुर्धर, रावणहंता या लंका विजेता की छवि के बजाय उनकी आनंदकंद, प्रजावत्सल, कृपालु, समदर्शी और मूल्यचेता छवि को आगे किया। कुछ इस तरह कि जितनी रामलीलाएं, उतनी ही रामकहानियां प्रचलित हो गईं। आज रामलीलाओं के दुर्दिन में भी यही बात उन्हें दूसरे अंचलों की रामलीलाओं से अलग और विशिष्ट बनाती है।
थोड़ा पीछे जाकर इस विशिष्टता का उत्स तलाशें, तो रामानंदी संप्रदाय के प्रणेता रामानंद की शिष्य परंपरा की चौथी पीढ़ी में अग्रदास द्वारा सोलहवीं शताब्दी में रसिक संप्रदाय के प्रवर्तन के बाद अयोध्या के ज्यादातर संत-महंत उनके अनुयायी बन गए। प्रसंगवश, रामानन्द के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक थे अनंतानन्द, जिनके शिष्य कृष्णदास पयहारी आगे चलकर आमेर के राजा पृथ्वीराज की रानी बालाबाई के दीक्षागुरू बने। अग्रदास इन्हीं कृष्णदास पयहारी के शिष्य थे।
उनके संप्रदाय, जैसा कि पहले बता आए हैं, भगवान राम धनुर्धर से ज्यादा ‘आनन्दकंद, दशरथनंद, कोशलचंद, दीनबंधु और दारुण भवभयहारी’ के साथ नवकंज लोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम भी हैं। उनकी कंदर्प अगणित अमित छवि नवनील नीरद सुंदरम है। इस संप्रदाय के लिए उनका दिनेश और दानव दैत्यवंश निकंदनम होना इसके बाद की बात है।
इसलिए उनके आराध्य राम कभी फूल बंगले में विराजते हैं और कभी हिंडोलों में झूलते हैं। सावन में पूरा महीना उनके झूलनोत्सव के नाम होता है, लेकिन दशहरा आता है तो उनका रौद्र रूप प्रदर्शित करने वाले रावण वध या लंकाविजय के दिन भी कोई बड़ा उत्सव या मेला नहीं होता। उनकी रौद्र रूप वाले धनुर्धर की छवि तो साफ कहें तो विश्व हिन्दू परिषद ने अपने राममंदिर आंदोलन के दिनों में प्रचारित की।
जैसा कि समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया (जो अयोध्या के तत्कालीन फैजाबाद जिले के अकबरपुर कस्बे में ही पैदा हुए थे) ने अपने महत्वपूर्ण निबंध ‘राम, कृष्ण और शिव’ में संकेत किया है, राम की राजधानी लंकाविजय के उनके पराक्रम को उतना भाव नहीं देती, जितना इसको कि लंका को जीतने के बाद भी उन्होंने उसे हड़पा नहीं और उदार एवं उदात्त मानवीय मूल्यों के प्रतिनिधि बने रहे।
जहां तक राजपाट की बात है, कहा जाता है कि उन्हें राज्य का लोभ क्योंकर होता? वह तो अयोध्या में अपने ‘बाप का राज भी बटेऊ की नाईं’ तजकर बन चले गए थे। उनके द्वारा प्रतिष्ठित यही मूल्य अयोध्या में श्रीरामपंचायतन की परंपरा से चली आती तस्वीरों में भी दिखाई देते हैं। उनमें वह महारानी सीता और अपने तीनों भाइयों के साथ सबके लिए आश्वस्तिकारक मुद्रा में दिखाई देते हैं।
अयोध्या में दशहरा की एक मान्यता ‘महाभारत’ से भी जोड़ी जाती है। वह यह कि द्यूत क्रीड़ा के बाद दुर्योधन की शर्त के कारण पांडव बारह वर्ष वनवास में और साल भर अज्ञातवास में रहे। अज्ञातवास में उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्र विराटनगर के पास एक शमी के वृक्ष के तने में छुपा दिए थे। विराट पर आक्रमण हुआ, तो वहां के युवराज को लेकर स्वयं वृहन्नला बने अर्जुन रथ चलाते हुए उक्त शमी वृक्ष के नीचे आए और अपने ‘गांडीव’ तथा अन्य हथियारों को निकालकर पूजा की। फिर उन्होंने आक्रमणकारियों को मार भगाया तो उनकी इस जीत के उपलक्ष्य में विजयादशमी मनाई और शस्त्रपूजा की जाने लगी।
लेकिन अयोध्या के ज्ञात इतिहास में शस्त्रपूजा की परंपरा को भी, कहते हैं कि जितना यहां के सूर्यवंशी क्षत्रियों ने, उससे ज्यादा ऐतिहासिक कारणों से नवाब शुजाउद्दौला के वक्त पंजाब की ओर से पलायन करके आए खत्रियों ने मजबूत किया।
यहां जानना दिलचस्प है कि बंगाल के प्रभाव में दुर्गापूजा की धूम मचने से पहले यहां महिषासुरमर्दिनी भी कुल मिलाकर भगवान राम की आराध्य कुलदेवी भर हुआ करती थीं। वैसे ही जैसे वशिष्ठ कुलगुरु और उन्हें उसी रूप में पूजा जाता था। बिहार के उस हिस्से में, जो कभी अवध के अधीन हुआ करता था, कहते हैं कि दशहरा के दिन आज भी रावण का पुतला ही फूंका जाता है, महिषासुरमर्दिनी की पूजा नहीं की जाती।
अयोध्या के दशहरा को जो एक और बात विशिष्ट बनाती है, वह है तुलसीदास की समन्वय की साधना और दृष्टि के अनुकूल उसके आयोजनों में अवध की गंगा-जमुनी तहजीब का लगातार पुष्पित और पल्लवित होते रहना। सिर्फ इस अर्थ में नहीं कि मुस्लिम पतंगसाज रामलीलाओं में प्रयुक्त होने वाले रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के पुतलों के निर्माण में अनेक कलात्मक प्रयोग करते रहे हैं, मुस्लिम माली उनके लिए फूलों की खेती करते रहे हैं या मुस्लिम दर्जी देवियों और भगवानों के साथ रामलीला कलाकारों तक की पोशाकें सिलते रहे हैं। कहते हैं कि 1857 में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अवध के अवयस्क नवाब बने बिरजिस कदर की मां बेगम हजरत महल ने दशहरा दीवाली और ईद सब मिलकर मनाने की परंपरा डाली, जो बाद में भी नहीं टूटी।
लखनऊविद योगेश प्रवीन, जो अब इस संसार में नहीं हैं, लखनऊ की एक ऐसी रामलीला मंडली के बारे में बताया करते थे, जिसमें सारे कलाकार और इंतजामकार मुसलमान ही थे। रामलीला और रमजान एक साथ आ पड़ें, तो वे दिन में रोजा रखते और रात में रामलीला करते थे। इतना ही नहीं, अतीत में वहां ऐशबाग में पहली रामलीला हुई तो उसे देखने वालों में तुलसीदास भी थे।
अयोध्यावासी बुजर्ग शायर अमानउल्लाह कुरैशी उर्फ ‘अमान फैजाबादी’ बताते हैं कि अपने बचपन में रामलीलाओं के दौर में वे खाने-सोने की सुध बिसराए कभी मुंह में मुखौटा और पीछे पूंछ लगाए बंदर का भेष धरे भगवान राम के सैनिक बने घूमते थे और कभी मुंह में कालिख पोत और सिर पर सींग उगाकर रावण की राक्षसी सेना में शामिल हो जाते थे। यह सिलसिला उनके बाद की पीढ़ी तक भी चलता रहा, लेकिन कुछ लोगों द्वारा ‘वहीं’ राममंदिर के नाम पर ‘बाबर की औलादें’ कह-कह कर नफरत का कारोबार शुरू किया गया, तो टूट गया।
वह बताते हैं कि उन दिनों रामलीलाओं का ऐसा आकर्षण था कि कोई परिवार हिन्दू हो या मुसलमान, उसके छोटे बड़े सारे सदस्य घर लुट जाने का खतरा उठाकर भी रामलीला देखने जाते थे। वहां विशाल मंच पर कत्थक में पारंगत नृत्य कलाकारों द्वारा एकल या सामूहिक नृत्य की पारंपरिक ताल, धुन और टापों के आधार पर प्रस्तुतियां देखते ही बनती थीं। उनमें मधुरोपासना से जुड़े गायन, रास, यक्षगान और कुड्डियाट्टम भी हुआ करते थे और ‘रावण वध’ पर कम रामजन्म, धनुर्भंग, रामविवाह, सप्तपदी और राजगद्दी पर ज्यादा जोर होता था।
अयोध्या में भगवान राम की बरात निकलती तो उसमें सबसे आगे वे मुसलमान ही होते, जो अपने घोड़ों को सजाकर लाते और उनसे बरात की शोभा बढ़ाते। प्रसंगवश, अयोध्या में रसिक से इतर एक सखी संप्र्दाय भी है, जो अपना भगवान राम से वह रिश्ता मानकर हंसी ठिठोली करता है, जो किसी किशोरी का उसकी बहन के पति से होता है।
अयोध्या के आसपास दशहरा के समानानंतर गंगा दशहरा मनाए जाने की परंपरा भी है। इसका ताल्लुक भगवान राम के वनवास से लौटने पर कुछ लोगों द्वारा उनपर रावण जैसे ब्राह्मण की हत्या का अभियोग लगाने से जोड़ा जाता है। कहते हैं कि तब कुलगुरु वशिष्ठ के इंगित पर उन्हें ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि को पड़ोसी जिले सुल्तानपुर में आदि-गंगा कहलाने वाली गोमती नदी के तट पर स्थित एक तीर्थस्थल पर निर्घारित विधि के अनुसार अपने पाप धोने पड़े थे। इसके बाद ही वह कथित ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो पाए थे।
अब इस तीर्थस्थल को ‘धो पाप धाम’ कहा जाता और उसका महत्व इस प्रकार समझाया जाता है : ग्रहणे काशी, मकरे प्रयाग। चैत्र नवमी अयोध्या, दशहरा धोपाप। अर्थात् ग्रहण पर काशी में, मकर संक्रांति पर प्रयाग में, चैतरामनवमी पर अयोध्या में और ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष दशहरा तिथि पर धो पाप“ में नहा लिया जाए तो बैकुंठ पाने के लिए किसी अन्य किसी स्नान की आवश्यकता नहीं होती। शायद इसी का फल है कि आज भी गंगा दशहरा पर वहां देश के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में लोग आते और अपने पाप धोने के लिए गोमती में डुबकी लगाते और पूजा-अर्चना करते हैं।
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