आकार पटेल का लेख: आखिर अल्पसंख्यक ही क्यों होतें है नागरिक अधिकारों पर कैंची चलाए जाने के शिकार!

नागरिकों के मौलिक अधिकार बनाम सरकार के अधिकारों का एक और मुद्दा सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। जैसा कि हाल दिनों में एक तरह से नियम सा बन गया है, यह मामला भी अल्पसंख्यकों से ही जुड़ा है।

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आकार पटेल

नागरिकों के मौलिक अधिकार बनाम सरकार के अधिकारों का एक और मुद्दा सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। जैसा कि हाल दिनों में एक तरह से नियम सा बन गया है, यह मामला भी अल्पसंख्यकों से ही जुड़ा है। सवाल यह है कि संविधान का अनुच्छेद 25 क्या सरकार को छात्राओं के स्कार्फ़ पहनने पर रोक लगाने की अनुमति देता है? अनुच्छेद के मुताबिक: "सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य और इस भाग के अन्य प्रावधानों के अधीन, सभी नागरिकों को अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार समान रूप से मिलता है।"

इसका सीधा अर्थ यह है कि व्यक्तिगत नागरिक अधिकारों को प्रधानता दी जानी चाहिए। इस मामले में छात्राओं का कहना है कि सिर ढकना उनके लिए एक धार्मिक प्रथा है और संविधान उन्हें मौलिक अधिकार के रूप में इसकी गारंटी देता है।

लेकिन जैसा कि हमेशा होता है, सरकार का जोर इस बात पर है कि कोई व्यक्ति क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता है, यह तय करना उसका अधिकार है। उम्मीद करें कि न्यायपालिका ऐसा न सोचे। हालांकि ऐसे मामलों में उसका रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है और अक्सर न्याय प्रणाली सरकार का ही समर्थन करती रही है। इस कारण से कह सकते हैं कि भारतीयों को कागज पर तो स्वतंत्रता है लेकिन वे वास्तव में इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते। यहां तक ​​कि मौलिक अधिकार, जिन्हें सरकार के दखल से उच्च स्तर की छूट है, उसका भी सरकारें नियमित रूप से उल्लंघन करती रहती हैं। उदाहरण के लिए, भारतीयों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, लेकिन सरकार के ऐसे कई कानून हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अपराधीकरण करते हैं। शांतिपूर्ण सभा या संगठन की स्वतंत्रता की कोई वास्तविक स्वतंत्रता नहीं है और इन दोनों कामों को भी अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया है।

संवैधानिक रूप से, व्यवसाय करने और किसी भी पेशे को अपनाने की स्वतंत्रता मौजूद है, लेकिन जब कसाई गोहत्या कानूनों के खिलाफ अदालत में चले गए, तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मान लिया कि उन्हें धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखना था और यह कहते हुए कोर्ट ने उनके अधिकारों में कटौती कर दी।

इसी तरह, ईसाइयों की मांग पर उन्हें अपने धर्म का प्रचार करने का अधिकार दिया गया (उपमहाद्वीप के मुसलमान धर्मांतरण नहीं करते, लेकिन ईसाई करते हैं)। लेकिन कानूनों के जरिए उनसे यह अधिकार छीन लिया गया और आज धर्म प्रचार एक अपराध बनाया जा चुका है।

भारत अपनी अल्पसंख्यक आबादी के साथ जो कर रहा है, उसे हिजाब के मुद्दे ने फिर से दुनिया के सामने ला दिया है। अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अमेरिका के राजदूत ने शुक्रवार को ट्वीट किया कि "धार्मिक स्वतंत्रता में किसी की धार्मिक पोशाक चुनने की आजादी शामिल है। भारतीय राज्य कर्नाटक को धार्मिक कपड़ों की अनुमति का निर्धारण नहीं करना चाहिए। स्कूलों में हिजाब प्रतिबंध धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हैं और महिलाओं और लड़कियों को हाशिए पर रखने की कोशिश है।”


उम्मीद करें कि इस समझदारी की सलाह को माना जाएगा, लेकिन ऐसा होने की संभावना कम ही है। न्यायपालिका यह निर्धारित करना चाहती है कि हिजाब "आवश्यक धार्मिक अभ्यास" है या नहीं। अयोध्या मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट कह ही चुका है कि मस्जिदें मुसलमानों के धर्म के लिए आवश्यक नहीं हैं।

इस पूरे मामले का धार्मिक के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक पहलू भी है। मैं यह दावा नहीं कर रहा हूं कि मैं छात्राओं के पक्ष में बोल रहा हूं, लेकिन मुस्लिमों को एक नियोजित प्रचार के जरिए निशाना बनाया जा रहा है या चिढ़ाया जा रहा है। उन्हें उस जगह पर इबादत से रोका जा रहा है जो सरकार ने उन्हें दी हैं, उन्हें मांस पकाने से रोका जा रहा है या फिर सिर्फ चूंड़ियां बेचने पर ही जेल भेजा जा रहा है। नागरिकता के नाम पर उनके खिलाफ कानून पास किए जा रहे हैं और कश्मीर में उनकी आजादी को छीना जा रहा है। जो महिलाएं या छात्राएं अपने अधिकारों के लिए खड़ी हुई हैं हो सकता है वे इससे अधिक के बारे में सोच रही हों। वे अपे धर्म के लिए, अपने समुदाय के लिए खड़ी हो रही हैं, और यही वजह है कि एक युवा महिला एक उन्मादी भीड़ के सामने जमकर खड़ी हो गई, और उस भीड़ की तस्वीरों ने सभी भारतीयों का सिर शर्म से झुका दिया।

तो सवाल यह है कि ये कौन सा उकसावा है, आखिर क्यों उन्हें अपने स्कार्फ या हिजाब को छोड़ने के लिए कहा जा रहा है, और फिर इसके आगे और क्या होगा? संकेत स्पष्ट हैं। शुक्रवार को सीएनएन ने हेडलाइन लिखी, लड़कियों ने पोशाक निर्धारण के आदेश मानने से इनकार किया, पूरे भारत में हिजाब प्रोटेस्ट शुरु... लड़कियां हिजाब पहनकर आती रहेंगी और इसके बाद सरकार को तय करना होगा कि वह इन पर बल प्रयोग करती है या नहीं, और क्या यह समझदारी की बात होगी कि उन्हें शिक्षा लेने या परीक्षा देने से सिर्फ इस आधार पर रोक दिया जाए।

इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है और हमने पहले भी देखा है जब बड़ी संख्या में नागरिक उन कानूनों के खिलाफ खड़े हुए हैं जो उन्हें नाइंसाफी वाले लगे। सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े, जैसा कि दोनों ही नागरिकता कानून और कृषि कानूनों के मामले में हुआ। दोनों ही मामलों में अदालत का रवैया विरोध करने वालों के प्रति नर्म नहीं था, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। आशंका है कि हिजाब मामले में भी शायद ऐसा ही होगा और इसके किसी और नतीजे की उम्मीद करना भी मुश्किल है, सिर्फ एक उम्मीद है कि सरकार पीछे हटेगी और युवा महिलाओं को उनकी आजादी को व्यवहार में उतारने देगी।


मुझे उम्मीद है कि यह बिना किसी जोर-जबरदस्ती और बिना गतिरोध के होगा। सबसे अच्छी बात जिसके लिए हम प्रार्थना कर सकते हैं वह यह है कि अदालतें मौलिक अधिकारों के पक्ष में एक त्वरित निर्णय दें ताकि सरकार बाकी चीजों के बारे में चिंता कर सके न कि यह कि युवा महिलाएं क्या पहनें या क्या न पहनें।

(लेखक एम्नेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के अध्यक्ष हैं)

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