मोदी और उनके 'मास्टर स्ट्रोक': आखिर क्यों सरकार की दिशाहीनता पर आंखे मूंद लेते हैं दरबारी!

मोदी के दरबारी भारतीय अर्थव्यवस्था पर उनकी सरकार की दिशाहीनता पर आंखें मूंदने को क्यों तैयार हैं?

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आकार पटेल

भारत के प्रधानमंत्री दो बड़े विचारों को लेकर प्रतिबद्ध हैं, और एक नेता के तौर पर वे  वर्षों से अपनी इस प्रतिबद्धता को जाहिर करते रहे हैं।

पहला लक्ष्य है 2047 तक एक विकसित राष्ट्र का निर्माण करना है। ऐसा भारत बनना जो अमेरिका और चीन की तरह प्रभावशाली और समृद्ध महान शक्ति हो। ऐसा कैसे होगा इसको बताने के लिए कोई सिद्धांत नहीं है, और न ही इस दिशा में कोई मार्ग नजर आता है। नरेंद्र मोदी ऐसा करना तो चाहते हैं, लेकिन कैसे, यह उन्हें नहीं पता, वैसे उन्हें शुरु से ही नहीं पता है कि कुछ भी कैसे होता है।

उनके दरबारियों को इसका अंदाजा है, क्योंकि अस्थिर विकास दिखाने वाली अर्थव्यवस्था की स्थिति पर वे खामोश ही रहते हैं। लेकिन जब भी इसमें कोई उछाल आता है, तो वे चिल्ला उठते हैं कि हम ‘सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था’ हैं, और इसी किस्म के नारे लगाने लगते हैं। और इसी के साथ आमतौर पर नेहरू और उनकी नीतियों की आलोचना शुरु कर दी जाती है, जबकि तथ्य यह है कि नेहरू ने अपने शासनकाल में कभी भी अर्थव्यवस्था को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। नेहरू ने कभी भी समाज के सबसे गरीब और सबसे कमजोर व्यक्ति को उस तरह परेशान नहीं किया जिस तरह मोदी ने देश की कुल नकदी का 86 फीसदी रद्दी कर देने वाली नवंबर 2016 की नोटबंदी जैसे अपने कथित 'मास्टरस्ट्रोक' से लोगों को रातों-रात मुसीबत और कठिनाइयों में नहीं धकेला।

मार्च 2020 में देश पर हमला करने वाले कोविड से पहले के दो साल और तीन महीने तक, यानी 9 चौथाइयों तक देस की विकास दर धीमी होती जा रही थी। आखिर क्यों? सरकार ने कोई कारण नहीं बताया क्योंकि इसका अर्थ होता मंदी को स्वीकार करना, यह मानना कि सरकार के पास कोई योजना नहीं है और इससे उबरने का कोई रास्ता नहीं है। महामारी की दौर गुजरा और जैसे ही अर्थव्यवस्था ने उस शून्य को भरना शुरु किया जो लॉकडाउन के कारण पैदा हुआ था, दरबारियों ने ढोल-ताशे लेकर फिर से उछलना शुरु कर दिया और अपने स्वामी की तारीफ में कसीदे गढ़ने शुरु कर दिए। और अब जब हम एक बार फिर मंदी की आहट सुन रहे हैं तो फिर से एक सन्नाटा छाया हुआ है।

इस मोर्चे पर सबसे ज्यादा शोर मचाने वाले मोदी के चैंपियन अर्थशास्त्री और कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अरविंद पनगढ़िया रहे। वे मोदी की तरफ इसलिए आकर्षित हुए क्योंकि उन्हें अपनी ही तरह मोदी भी खुले बाजार के पैरोकार लगते थे। लेकिन उन्होंने 2017 में मोदी की अध्यक्षता वाले नीति आयोग के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और अमेरिका लौट गए। इसके बाद से वे सरकार की संरक्षणवादी नीतियों के कटु आलोचक बने हुए हैं। उनका मानना ​​है कि टायर और टेलीविजन सेट जैसी चीजों पर भारत द्वारा 2020 में लगाया गया टैरिफ, नोटबंदी से हासिल उस ‘लाभ’ को उलट देगा, जिसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाना - और इसके बजाय सूक्ष्म और लघु उद्यमों (एमएसएमई) को प्रोत्साहित करना था।


वे कहते हैं कि उन्हें इस बात की चिंता है कि मोदी ने 2017 में संरक्षणवाद की दिशा में जो ‘गलत कदम’ उठाया था, उसे अभी तक वापस नहीं खींचा है। अगस्त 2020 में ‘आत्मनिर्भर भारत’ योजना सामने आने के बाद, पनगढ़िया ने कहा था कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर मोदी की ‘नीतिगत गलतियां’ 1991 में आर्थिक मोर्चे पर किए गए अच्छे कामों पर पानी फेर रही हैं।

वे आत्मनिर्भर भारत पर सवाल उठाते हुए पूछते हैं कि ‘आखिर इस नीति से 6 साल में हासिल क्या हुआ?’ 2013-14 में देश में इलेक्ट्रॉनिक सामान का आयात 32.4 अरब डॉलर था जो 2018-19 में 55.5 अरब डॉलर पहुंच गया। जबकि इसी अवधि में देश का निर्यात 7.6 अरब डॉलर से बढ़कर मात्र 8.9 अरब डॉलर तक ही पहुंच पाया। और अपेक्षित रूप से संरक्षित और छूट प्राप्त कई मोबाइल असेम्बली फर्में इन वर्षों में स्थापित हुईं, लेकिन उभरती हुई इलेक्ट्रॉनिक्स इंडस्ट्री में इनका कोई योगदान नहीं था। स्थानीय स्वामित्व वाली लगभग सभी फर्म्स वैश्विक मानकों में काफी छोटी हैं और इनमें से किसी में भी एक एक्सपोर्ट पॉवरहाउस बनने की क्षमता नहीं है।

लोगों को यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि इन विचार को मोदी के ही चैंपियन ने सामेन रखा है, लेकिन सच तो यही है। 3 फरवरी 2021 को प्रकाशित एक खबर की सुर्खी में कहा गया, ‘अरविंद पनगढ़िया ने 2021 के बजट को शानदार बताया’ और कहा कि मोदी से जो उम्मीदें की थीं अब पूरी होती दिख रही है। नहीं सर, उम्मीदें नहीं सच हो रही हैं।

समस्या दरअसल यह है कि ऐसा मान लिया गया था कि मोदी के पास पहले से ही कोई रणनीतिक दिशा है। इसमें मोदी की क्या गलती है कि पनगढ़िया ने मोदी के व्यक्तित्व में खुद को और उनकी मुक्त-बाज़ार विचारधारा को देखा। पनगढ़िया जो कभी मोदी की पूजा और देवत्व के बीच झूलते रहे थे और बाद में एक ऐसा पेपर लिखते हैं,  जिसका मुख्य सिद्धांत यह है कि भारत के सबसे अच्छे विकास वर्ष वास्तव में 2003-14 थे।

तो आखिर पनगढ़िया और उन जैसे दूसरे लोग अभी तक मोदी से विस्मित क्यों हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि जो दूसरा विचार जिससे प्रधानमंत्री प्रतिबद्ध हैं, वह है देश की संवैधानिक बहुलवाद को खत्म करना और एक ऐसे बहुसंख्यकवादी राज्य की स्थापना करना, जहां धार्मिक अल्पसंख्यक दूसरे दर्जे के नागरिक हों और कष्ट सहते रहें। अर्थव्यवस्था के विपरीत, इस मोर्चे पर एक बेहद सफल कार्यक्रम है। इसका नतीजा हमारे सामने हैं, और चाहे आप प्रधानमंत्री का समर्थन करें या उनका विरोध करें, इस मोर्चे पर उनकी सफलता से इनकार नहीं किया जा सकता।


दरअसल, बीजेपी अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव, उनका बहिष्कार, उत्पीड़न और उन पर अत्याचार को वैध बना रही है। मुसलमान क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, कहां रहते हैं और क्या काम करते हैं, किससे शादी कर सकते हैं, कैसे तलाक ले सकते हैं, उन्हें कितना प्रतिनिधित्व दिया जाएगा (या नहीं) इस पर कानून या सरकारी आदेश जारी होना आम बात है। ये सब इतना व्यापक हो गया है कि अब इस बाबत खबरें तक नहीं छपतीं।

ये सबकुछ भारत की राजनीति का इतना गहरा हिस्सा बन चुका है कि मध्यम अवधि में - मान लीजिए, 15 साल में - इसमें किसी बदलाव की कल्पना करना ही मुश्किल है। इस परियोजना के लिए, अर्थव्यवस्था के विपरीत, मोदी के पास एक स्पष्ट मार्ग है - और वे उन लोगों को अपने दरबार में जगह देते रहेंगे जो अर्थव्यवस्था जैसे अन्य क्षेत्रों में उनकी महानता के संकेत तलाशते रहते हैं।

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