विपक्षी एकता देखते ही आखिर क्यों कांपने लगता है सत्ता पक्ष?

बंद कितना कामयाब था, इसका अंदाज़ा लगाने के लिए न तो कहीं से तस्वीरें देखने की जरूरत पड़ी और न ही कोई खबर, यह जानकारी तो खुद देश के कानून मंत्री ने दे दी, जब उन्होंने बंद शुरु होने से महज तीन घंटे के अंदर ही प्रेस कांफ्रेंस कर बंद को ‘नाकाम’ करार दे दिया।

फोटो: विपिन
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तसलीम खान

इतिहास गवाह है कि पिछले कई दशकों से देश की सामाजिक समरसता को नुकसान पहुंचाने में संघ परिवार का बड़ा हाथ रहा है। ऐसा ही कुछ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार मई 2014 के बाद से कर रही है। लेकिन, इसका एक फायदा भी हुआ है, और वह यह कि जिस तरह गुलामी के दौर में ब्रिटिश हुकूमत के जुल्मों के खिलाफ देश के सभी लोग राजनीतिक और सामाजिक मतभेद भुलाकर एकजुट हुए थे, वैसे ही अब हो रहे हैं। राजनीतिक, धार्मिक, भाषाई और जातीय मतभेद और गिले-शिकवे भुलाकर लोग एक मंच पर आ रहे हैं, ताकि आम लोगों की जिंदगी पर हो रहे सीधे हमलों का मुकाबला किया जा सके।

पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी और रुपए में बेहिसाब गिरावट के खिलाफ हुए भारत बंद में विपक्षी एकता की ताकत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक बंद का असर नजर आया। बंद कितना कामयाब था, इसका अंदाज़ा लगाने के लिए न तो कहीं से तस्वीरें देखने की जरूरत पड़ी और न ही कोई खबर, यह जानकारी तो खुद देश के कानून मंत्री ने दे दी, जब उन्होंने बंद शुरु होने से महज तीन घंटे के अंदर ही प्रेस कांफ्रेंस कर बंद को ‘नाकाम’ करार दे दिया।

यह विपक्षी एकता की गूंज थी कि हड़बड़ी में कानून मंत्री ऐसी गलतबयानी कर गए जिसकी पोल उनकी ही पार्टी के साथ गठबंधन की सरकार वाले राज्य बिहार के एक अफसर ने खोल दी। दरअसल सरकार की हड़बड़ी इस बात को लेकर थी कि एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ऐलान किया था कि विपक्षी एकता एक भ्रम है। उनसे पहले बीजेपी अध्यक्ष ने भी कहा था कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन जिस जगह पीएम और बीजेपी अध्यक्ष ने यह बात कही, वहां से चंद फर्लांग की दूरी पर ही 24 घंटे के अंदर ही समूचे विपक्ष ने एकजुट होकर बता दिया कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पीएम के शब्दों में छिपा खौफ कितना वास्तविक था।

आजादी के आंदोलन के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि, “आज़ादी खतरे में है, और हमें इसकी पूरी ताकत से रक्षा करनी है।” आज यही स्थिति है। देश फासीवादी विचारधारा के चंगुल में है। संविधान हमें जिस आज़ादी का संदेश देता है, वह खतरे में है, ऐसे में जरूरत पूरी ताकत से संविधान सम्मत लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने की है।

देश के सामने सिर्फ वैचारिक प्रश्न ही नहीं है। प्रचार के तमाम साधनों का इस्तेमाल कर झूठे तथ्यों के साथ देश को वरगलाने की भी लगातार कोशिश हो रही है। सोमवार को ही जब देश भर में लोग पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों को लेकर सड़कों पर उतरे थे, सरकार ने ऐलान किया कि तेल की बढ़ती कीमतों पर उसका कोई वश नहीं है। साथ ही सत्तारुढ़ दल ने भी अधूरे आंकड़े पेश कर भ्रम फैलाने का काम किया। लेकिन तथ्य और सच्चाई यह है कि जब कच्चे तेल की कीमतें भारतीय अर्थव्यवस्था के माकूल हैं, तो घरेलू तेल की कीमतें सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। अगर हम यूपीए शासन और मौजूदा सरकार के दौर में कच्चे तेल की कीमतों, पेट्रोल-डीज़ल के दामों और उन पर लगने वाले उत्पाद शुल्क का तुलनात्मक विश्लेषण करें तो केंद्र सरकार की मंशा साफ नजर आ जाती है।

मई 2014 से अब तक कच्चे तेल के दामों में जहां 32 फीसदी की कमी आई है, वहीं घरेलू तेल की कीमत में 28 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। और इसका सीधा कारण है उत्पाद शुल्क के रूप में अत्यधिक कर, जो पेट्रोल पर 111.70 फीसदी और डीज़ल पर 334.06 फीसदी बढ़ा है। एक्साइज़ ड्यूटी में इस बढ़ोत्तरी से स्पष्ट हो जाता है कि मौजूदा सरकार की प्रतिबद्धता निश्चित रूप से यह आम लोगों के प्रति नहीं कहीं और है।

इतना ही नहीं पेट्रोल-डीज़ल के दामों में बढ़ोत्तरी का असर रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों पड़ता है।

तो, सवाल है कि अगर इस सरकार की प्रतिबद्धता आम लोगों के प्रति नहीं है तो फिर आखिर किसके लिए है? केंद्र सरकार ने एक्साइज़ ड्यूटी बढ़ाकर पिछले 52 महीनों में आम लोगों की जेब से करीब 11 लाख करोड़ रुपए निकाले हैं। आम लोगों का तो बजट गड़बड़ा गया, तो फिर फायदा किसका हुआ? कहां गया इतना सारा पैसा? इस सवाल पर सत्ता पक्ष की खामोशी संदेह पैदा करती है।

कई बार सवाल यह भी उठाया जाता है कि आखिर संघ समर्थित बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार समाज को क्यों बांटना चाहती है? देश को ध्यान रखना होगा कि हमारे धर्म, क्षेत्र, जाति, भाषा अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन धर्मनिरपेक्षता का सूत्र हमें एक दूसरे से बांधता है, और यही सूत्र संग को नापसंद है। संघ प्रमुख इन आवाज़ों को ‘कुत्ते’ की संज्ञा देते हैं, तो प्रधानमंत्री मोदी इसका उपहास उड़ाते हैं। लेकिन एकजुटता और सामूहिक प्रतिरोध के सामने इनकी घिग्घी बंध जाती है। इस एकजुटता की बुनियाद नए सिरे से 10 सितंबर को पड़ चुकी है। और इसीलिए सत्ता दल की घिग्घी बंध चुकी है।

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