आखिर क्यों 'वेटर' बनने के लिए ग्रेजुएट भी कर रहे हैं आवेदन, क्या जीडीपी बढ़ना ही है असली विकास?

सिर्फ जीडीपी बढ़ना अर्थव्यवस्था की मजबूती नहीं, जब तक युवाओं को नौकरी की दर नहीं बढ़ेगी, वास्तविक विकास नहीं होगा।

एनएसयूआई कार्यकर्ता 17 सितंबर को राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस मनाते हुए (फोटो - Getty Images)
एनएसयूआई कार्यकर्ता 17 सितंबर को राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस मनाते हुए (फोटो - Getty Images)
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अरुण सिन्हा

क्या आपको 1958 की फिल्म 'मालिक' का आशा भोंसले का वह गाना याद है- 'पढ़ोगे लिखोगे होगे नवाब/ खेलोगे कूदोगे होगे खराब'? यह हाल ही में आजाद हुए भारत के बच्चों को साधारण-सा संदेश देता था कि शिक्षा अच्छे जीवन का मार्ग है।

आज के भारत में करोड़ों शिक्षित युवाओं के लिए यह सच नहीं है। अच्छे जीवन के लिए उन्हें अच्छे वेतन वाली अच्छी नौकरी चाहिए और वे इसे कहीं नहीं पाते। आप जितने अधिक शिक्षित हैं, आपके नौकरी पाने की संभावना उतनी ही कम है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट के अनुसार, ग्रेजुएट और उससे ऊपर शिक्षा वालों में राष्ट्रीय औसत से तीन गुनी बेरोजगारी है। आश्चर्य नहीं कि शिक्षित बेरोजगार बेचैन हैं। उन्होंने और उनके परिवारों ने उनकी शिक्षा के लिए काफी पैसे और समय लगाए हैं। वे कमाना आरंभ करना चाहते हैं। कुछ नहीं से कुछ तो बेहतर है। इसलिए, वे ऐसी नौकरियों के लिए भी आवेदन करते हैं जिनमें कम शैक्षणिक योग्यता की जरूरत होती है।

2018 में यूपी पुलिस ने टेलीफोन मैसेंजरों के 62 पदों के लिए विज्ञापन दिया जिनका काम एक से दूसरे पुलिस स्टेशन पर साइकिल से दस्तावेज पहुंचाना था। वैसा कोई भी व्यक्ति इसके लिए आवेदन कर सकता था जो पांचवीं पास हो। कम-से-कम 93,000 लोगों ने आवेदन किए। चयन बोर्ड को यह जानकर धक्का लगा कि इनमें 50,000 ग्रैजुएट (जिनमें बीटेक भी थे), 28,000 पोस्टग्रैजुएट (जिनमें एमबीए भी थे) और 3,700 पीएचडी वाले थे।

उसी साल, रेलवे भर्ती बोर्ड ने 63,000 'लेवल 1' भर्तियों के लिए विज्ञापन दिए- इनके सबसे निचले स्तर में गैंगमैन, गेटमैन और पोर्टर भी शामिल थे- इनके लिए योग्यता दसवीं पास की थी। कम-से-कम 1.9 करोड़ लोगों ने आवेदन दिए जिनमें अधिकतर ग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट थे। 2019 में, महाराष्ट्र सरकारी कैंटीन के लिए चुने गए 13 में से 12 वेटर ग्रेजुएट थे। इसके लिए न्यूनतम योग्यता चौथी क्लास पास की थी। इस काम में सब्जी काटना, टेबल, बरतन और फर्श साफ करना शामिल है।

आखिर, कम शिक्षा वाली नौकरियों के लिए अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग समूह में झपट्टा मारने के लिए क्यों लालायित रहते हैं? क्योंकि पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं। हम ऐसी मिथ्या में जी रहे हैं जिसमें अर्थव्यवस्था बढ़ रही है लेकिन रोजगार घट रहे हैं।


सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) और सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस (सीडा) के संयुक्त अध्ययन के अनुसार, 2016-17 और 2020-21 के बीच मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नौकरी पाए लोगों की संख्या 5.1 करोड़ से घटकर 2.7 करोड़, मतलब लगभग 50 प्रतिशत रह गई है। इसमें बुरा यह है कि रोजगार में अधिकतर कमी टेक्सटाइल, (टाइल्स-जैसे) भवन निर्माण सामग्री और खाद्य प्रसंस्करण-जैसे श्रम-प्रधान सेक्टरों में हुई है। टेक्सटाइल्स में 2016-17 में 1.26 करोड़ नौकरियां थीं जो 2020-21 में घटकर 55 लाख रह गईं। इसी तरह, इस अवधि में भवन निर्माण सामग्री कंपनियों में नौकरियां 1.14 करोड़ से घटकर 48 लाख रह गईं।

पश्चिमी देशों में अनुभव यह था कि जब अर्थव्यवस्था बढ़ती थी, तो श्रम कृषि से मैन्युफैक्चरिंग की ओर स्थायी तौर पर जाता था। लेकिन भारत में इसका उलटा हो रहा है। श्रमिक मैन्युफैक्चरिंग से कृषि की ओर वापस जा रहे हैं। सीएमआईई-सीडा अध्ययन ने पाया कि 2016-17 और 2020-21 के बीच के चार वर्षों में कृषि क्षेत्र में रोजगार पाने वाले लोगों की संख्या बढ़ गई। और कृषि क्षेत्र में रोजगार पाने वालों में अशिक्षित ही नहीं बल्कि ऐसे शिक्षित भी हैं जिनके पास रोजगार नहीं है या मैनयुफैक्चरिंग सेक्टर ने जिन्हें बाहर कर दिया है।

यह साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था गलत दिशा में जा रही है। एक ऐसे देश में जहां दुनिया में सबसे अधिक श्रमिक पाए जाते हैं, अर्थव्यवस्था के तौर पर अधिक-से-अधिक श्रम-प्रधान (अधिक श्रमिक, कम मशीनें) होने की जगह यह अधिक-से-अधिक पूंजी-प्रधान (ज्यादा मशीनें, कम श्रमिक) होती जा रही है। पिछले दो दशकों में न तो यूपीए और न एनडीए सरकारों ने इस दिशा को बदलने के लिए कुछ भी किया क्योंकि जीडीपी बढ़ रही थी। आखिर, निवेश जीडीपी में जुड़ता है। मेक-इन-इंडिया और उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन योजनाओं (प्रोडक्शन-लिंक्ड इन्सेटिव स्कीम्स) ने भी पूंजी-प्रधान मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा दिया है।

पर, जीडीपी ही सबकुछ नहीं है। दुनिया में भारत की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था का उत्साह देश के रोजगारहीन विकास को लेकर बढ़ रही निराशा को नहीं छिपा सकता। अर्थव्यवस्था के बढ़ने और लोगों का विकास न होने का क्या उपयोग?


भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम आयु वालों की है। वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार, इनमें से 1.2 करोड़ हर साल श्रम शक्ति में शामिल होते हैं, लेकिन 55 लाख को ही नौकरी मिल पाती है। सावधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण के अनुसार, 2021 में अप्रैल-जून तिमाही में 15-29 आयु वर्ग के लिए युवा बेरोजगारी 25.5 प्रतिशत थी। जनसांख्यिकीय लाभांश के तौर पर जानी जाने वाली भारत की युवा आबादी वरदान कही जाती है। लेकिन युवाओं के लिए रोजगार पैदा न करने वाली अर्थव्यवस्था में वरदान अभिशाप में बदल सकता है।

यह देखकर चिंता होती है कि पूंजी-प्रधान मैन्युफैक्चरिंग के विचार को युवा आबादी के लिए पर्याप्त रोजगार पैदा करने वाले श्रम-प्रधान में बदलने की जगह सरकार प्रतीकवाद में उलझी हुई है। उदाहरण के लिए, इसने 2022 के मध्य में घोषणा की कि यह अगले डेढ़ साल में अपने मंत्रालयों और विभागों में 10 लाख युवाओं को नियुक्त करेगी। 2022 के मध्य से 2023 के अंत तक में जब एक करोड़ से अधिक लोग नौकरी चाह रहे हों, ऐसे देश में उनमें से 10 लाख को सरकारी नौकरियां देना उस अवधि में ही बेरोजगारी को बढ़ावा देगी, पिछले सालों में और आने वाले वर्षों में बेरोजगार रहने वाले लोगों की तो बात ही छोड़ दें। सरकारी रोजगार देश में बेरोजगारी समस्या का जवाब नहीं हो सकता, सिर्फ निजी रोजगार ही हो सकता है।

बेरोजगारी से प्रभावी तरीके से निबटने के लिए भारत को चौमुखी रणनीति अपनानी होगी। पहली, सरकार को (टेक्सटाइल, गारमेंट, चमड़ा और फुटवीयर, खाद्य प्रसंस्करण, लकड़ी उद्योगों और फर्नीचर-जैसे) श्रम-प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए अपनी नीतियों और इंसेटिव्स को बदलना होगा। मई, 2023 में सरकार ने श्रम-प्रधान क्षेत्रों के लिए भी पूंजी प्रधान इंसेटिव (पीएलआई) स्कीमों की घोषणा की जो अच्छा कदम है। दूसरी, सरकार को अपने कुशलता वाले कार्यक्रमों- प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमकेवीवाई) को वास्तव में काम वाला बनाना होगा।

समीक्षाओं ने पीएमकेवीवाई में प्रशिक्षण और नौकरी पाने में प्रमुख कमियां पाई हैं। तीसरी, उद्योग को कुशलता के उत्तरदायित्व में भागीदारी करनी होगी। गूगल और आईबीएम-जैसी कंपनियां अपनी जरूरत वाले लोगों के लिए अपने कुशलता वाले प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती हैं। भारतीय उद्योग को भी ऐसा करना होगा। चौथी, शिक्षा को स्कूल/कॉलेज और रोजगार की जगह के बीच खाई को भरना होगा। ऐसे कोर्स चाहिए जो कॅरियर से जुड़े हों और काम-आधारित शिक्षा से जुड़े हों।

(अरुण सिन्हा पत्रकार और लेखक हैं)

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