किसान आंदोलन के बीच आखिर क्यों नहीं हो रही महिला किसानों की चर्चा!

अभी जब किसान आंदोलन कर रहे हैं तब खेती-किसानी का काम महिलाओं के कंधे पर आ गया है। वे घरेलू काम के साथ खेती की देखभाल कर रही हैं और आंदोलनों में भी शरीक ही रही हैं। महिलाएं खेती-किसानी में बरसों से अपना योगदान देती आई हैं, लेकिन उनको हम कम करके आंकते है।

फोटो सौजन्य : @Ekta_Parishad
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हेमलता म्हस्के

दिल्ली की चौहद्दी पर कडकते जाड़े और बरसात में धरना देकर बैठे किसानों से हाल में सुप्रीम कोर्ट ने बुजुर्गो, बच्‍चों और महिलाओं को वापस घर भेज देने का आग्रह किया था, लेकिन इस पर सर्वाधिक आपत्ति करीब पौने दो महीने से वहां डटी महिलाओं ने ही जताई थी। उनका कहना था कि खेती उनका भी काम है और वे उसकी भलाई-बुराई में बराबर की हिस्सेदार हैं। क्या है, खेती में महिलाओं की भूमिका?

इन दिनों देश में कृषि और किसान आंदोलन चर्चा के केंद्र में हैं, लेकिन इन चर्चाओं में महिला किसानों की बात हाशिए पर आ गई है। उनकी कोई सुधि भी नहीं लेता, जबकि खेती किसानी में होने वाले हादसे और नुकसान की कीमत ज्यादातर महिला किसानों को ही चुकानी पड़ती है। ‘महिला किसान अधिकार मंच’ के मुताबिक खेती-किसानी से जुड़े 75 फीसदी काम महिलाएं ही करती हैं, लेकिन उनके नाम पर केवल 12 फीसदी जमीन भर है। जब देश की आर्थिक रूप से सक्रिय 80 प्रतिशत महिलाएं खेती-किसानी में लगी हैं तो जाहिर है, बदलते हालात में खेती-किसानी की जिम्मेदारी धीरे-धीरे महिला किसानों पर बढ़ती जा रही है। लेकिन फिर भी उनकी अलग से ना कोई पहचान स्थापित की जा रही है और ना ही कोई श्रेणी तय की जा रही है। ऐसे में वे सरकारी सहयोग से भी वंचित हो रही हैं।

किसान आंदोलन के दौरान कृषि कानूनों की बातें जोर-शोर से की जा रही हैं। हकीकत यह है कि पिछले सत्तर सालों में किसानों को उनकी जमीन पर टिकाए रख कर उनके समग्र विकास के लिए कोई पहल नहीं की गई। अनेक किसान आंदोलन हुए, खेती में कई नवाचार हुए, ‘हरित क्रांति’ भी हुई। कृषि के नाम पर कॉलेज-युनिवर्सिटी खोले गए। देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर भी हो गया, लेकिन इतना कुछ होने के बावजूद देश में आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं। उनकी संख्या लाखों को पार कर गई है। उनको अपने वजूद बचाने के लिए लंबे आंदोलन करने पड़ रहे हैं। वे आंदोलन नहीं करते तो आज चर्चा के केंद्र में भी नहीं आते। किसानों की उपेक्षा का आलम यह है कि सरकार कृषि कानून बनाती है तो उनसे परामर्श लेना भी जरूरी नहीं समझती। अब जब वे आंदोलनरत हैं तब तो यह जरूरी हो जाता है कि हम देश की खेती-किसानी की बातें समग्रता में करें। क्योंकि किसानों की हालत नहीं सुधरेगी तो गरीब भूखों मरेंगे और बेरोज़गारी भी सभी सीमाएं पार कर जाएगी।


इस क्रम में सबसे पहले महिला किसानों की दशा पर विचार करें। अभी जब किसान आंदोलन कर रहे हैं तब मौजूदा खेती-किसानी का काम महिलाओं के कंधे पर आ गया है। वे घरेलू काम के साथ खेती की देखभाल कर रही हैं और समय निकाल कर उनके आंदोलनों में भी शरीक ही रही हैं। महिलाएं खेती-किसानी में बरसों से अपना योगदान देती आई हैं, लेकिन उनको हम कम करके आंकते है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के मुताबिक खेती-किसानी के क्षेत्र में 43 फीसद महिलाओं का योगदान होता है, लेकिन महिलाएं किसान नहीं, मजदूर कही जाती हैं। उनके साथ ऐसा भेदभाव क्यों? असल में पूरी सच्चाई को सामने नहीं लाया जा रहा है।

सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक पूरे देश में छह करोड़ महिला किसान थीं, जबकि वास्तव में महिला किसानों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। पिछले एक-दो दशकों में ग्रामीण युवा खेती-किसानी से कटते जा रहे हैं। उनका रुझान शहरों में जाकर नौकरी या व्यापार करने की ओर बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण युवाओं के नौकरियों और व्यापार में चले जाने के कारण उनकी जगह पर खेती की जिम्मेदारी महिला किसानों के कंधों पर आती जा रही है।

फोटो : Getty Images
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इसी के साथ जिन मध्यम और सीमांत किसान परिवारों के पुरुष खेती छोड़कर दूसरे काम-धंधों से जुड़ते जा रहे हैं, उनकी जगह भी महिलाएं खेती को संभाल रही हैं। इनके अलावा आए दिन जो किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उन पर आश्रित महिलाओं के कंधे पर भी किसानी की जिम्मेदारी आती जा रही है। इतने योगदान के बावजूद उनका कोई सम्मान नहीं है, उनको कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। महिला किसानों पर लगातार बढ़ती खेती किसानी की जिम्मेदारी के मद्देनजर उनको किसान का दर्जा देना तो दूर उनके योगदानों की चर्चा तक नहीं होती। उन महिला किसानों की भी नहीं, जिन्होंने अपने दम पर किसानी के क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले बेहतर मुकाम हासिल किए हैं।


महिलाओं को किसान का दर्जा मिले इसके लिए जनसंगठन ‘एकता परिषद’ की महिला कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रव्यापी जागरण यात्रा निकाली थी। अनेक प्रदर्शन भी किए गए हैं। ‘एकता परिषद’ अपने कार्यक्षेत्र में महिला किसानों को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न परियोजनाओं का संचालन भी कर रहा है। इसके पहले बिहार में ‘भूदान यज्ञ बोर्ड’ ने हजारों महिला किसानों को जमीन आवंटित कर उन्हें महिला किसान होने का अहसास कराया था।

‘बिहार भूदान यज्ञ बोर्ड’ के पूर्व अध्यक्ष कुमार शुभमूर्ति के मुताबिक जब भूदान की जमीन पुरुषों की बजाय महिलाओं के नाम पर दिया जाने लगा तो सबसे पहले महिलाओं ने ही विरोध किया। वे देखती आई हैं कि उनके परिवार की चल-अचल सम्पत्ति स्त्रियों के नाम नहीं होती है। इसलिए उन्हें प्रारंभिक दौर में यह सही नहीं लगा, लेकिन बाद में जब उनको समझ में आया तो भूदान की जमीन अपने नाम पर लेने को राज़ी हुईं।

आजादी के बाद से अब तक महिला किसानों के नाम पर कोई योजना नहीं बनी है। योजना तो दूर, उनके वजूद की पहचान तक नहीं की जाती। वे लगातार उपेक्षा की शिकार ही होती रही हैं। अभी हाल में केंद्र सरकार ने ‘महिला किसान सशक्तिकरण योजना’ की शुरुआत की है। योजना के तहत 24 राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों में 84 परियोजनाओं के लिए 847 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। देश में खेती-किसानी से जुड़ी महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए शुरू की गई इस योजना के तहत महिला किसानों को खेती के लिए कर्ज के साथ खाद और सब्सिडी देने का प्रावधान है। दुर्भाग्यपूर्ण है सरकार की इस योजना के बारे में ज्यादातर महिलाओं को जानकारी ही नहीं है। (सप्रेस)

(हेमलता म्हस्के पुणे स्थित लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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