क्यों लिखते हैं सुप्रीम कोर्ट का आदेश, जबकि फैसला किसी जज का होता है, जो समाज का ही हिस्सा होता है

अपनी कहानी ‘पंच परमेश्वर’ में प्रेमचंद मानवीयता, समानता के मूल्यों पर पंच के खरे उतरने के साहस का परिचय कराते हैं। वास्तव में यह साहस ही है कि पुरानी संस्थाओं से पंच विद्रोह करता है और वहां खड़ा होता है, जिस जगह को लोग न्याय के नाम से पुकारने लगते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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अनिल चमड़िया

जब किसी अदालत की चाहरदिवारी से कोई फैसला निकलता है तो उसे मीडिया वाले बताते हैं कि यह न्यायालय का फैसला, निर्णय या आदेश है। मीडिया वाले इस भाषा में किसी फैसले या आदेश की जानकारी क्यों देते रहे हैं और लिखते रहे हैं कि यह हाई कोर्ट ने कहा है या सुप्रीम कोर्ट का फैसला है? जबकि व्यवहार के स्तर पर देखें तो देश के 25 हाई कोर्ट में 1079 न्यायाधीशों के पद स्वीकृत हैं और सुप्रीम कोर्ट में 34 न्यायाधीशों के पद रखे गए हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि 1113 न्यायाधीशों में से किसी एक के द्वारा या उससे ज्यादा संख्या की बेंच द्वारा दिए जाने वाले फैसले और आदेश को हम न्यायालय के फैसले के रुप में लोगों को बताते हैं।

हम हाई कोर्ट के किसी एक से ज्यादा न्यायाधीश द्वारा दिए गए फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हैं और वहां के न्यायाधीश जब उस पर अपना रुख जाहिर करते हैं तो यह भी कहते हैं कि हाई कोर्ट के आदेश और फैसले के खिलाफ देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया या उसे बरकरार रखा या फिर उसमें फेरबदल किया। यही स्थिति हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से अलग जिला स्तरों पर स्थापित अदालतों के बारे में भी लागू होती है।

न्यायाधीश का परिवार-जाति-धर्म के साथ संवैधानिक संस्था का सदस्य होना

व्यवहारिक स्तर पर देखें तो अदालतों द्वारा दिए जाने वाले फैसले और आदेश किसी एक या उससे ज्यादा न्यायाधीशों द्वारा दिए जाते हैं। इसका अर्थ यहां स्पष्ट है कि हम किसी न्यायाधीश को संस्था के रुप में देखते हैं। जबकि न्यायाधीश व्यक्ति होता है। वह किसी परिवार का सदस्य होता है। वह किसी जाति के परिवार का भी सदस्य होता है। वह किसी खास धर्म को मानने वाले परिवार का सदस्य होता है। यानी उसकी स्थिति यह होती है कि वह उन संस्थाओं का भी सदस्य होता है, जो कि भारतीय समाज में अपनी जड़ें जमाए हुए हैं और जिनकी पहचान अप्राकृतिक एवं अमानवीय होने की हद तक की गई हैं। इस बात की पहचान उस संविधान में समाज बनाने की तरफ जाने का रास्ता तैयार करना है, जिस समाज में अप्राकृतिक, अमानवीय और समाज विरोधी मूल्यों और संस्कृति को खत्म करता हो।

इस तरह न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होने वाला व्यक्ति अतीत के समाज और उसके ढांचे और भविष्य के लिए बनाए जाने वाले नए सामाजिक ढांचे जो कि एक दूसरे के विरोधी और विपरीत दिशा में खड़े होते हैं, उनके बीच खड़ा होते है। लेकिन समाज में यह दृढ़ भरोसा कायम है कि पुराने ढांचे में पलने और शिक्षित होने के बावजूद कोई व्यक्ति संविधान की संस्थाओं में अपनी जिम्मेदारी नई संस्थाओं के उद्देश्यों के अनुरूप कर सकता है। इस पर साहित्य भी लिखे गए हैं। जैसे भारतीय समाज में सबसे चर्चित पंच परमेश्वर कहानी है, जिसमें प्रेमचंद मानवीयता, समानता के मूल्यों पर पंच के खरे उतरने के साहस का परिचय कराते हैं। वास्तव में यह साहस ही है कि पुरानी संस्थाओं से पंच विद्रोह करता है और वहां खड़ा होता है जिस जगह को लोग न्याय के नाम से पुकारने लगते हैं।

दरअसल, न्याय एक एहसास है। वह मानवीय चेतना का वह हिस्सा है जिसमें अनैतिक, अप्राकृतिक और अमानवीयता का निषेध होता है। वह अंत:करण का केन्द्र होता है। वह दुनियावी संबंधों जो कि मानवीय समाज पर थोपे गए हैं, उनसे अछूता माना जाता है। यानी ऊपरी तौर पर दिखावट की मजबूरी और व्यवहारिक कहे जाने वाली बाध्यताओं से मुक्त होता है।

संवैधानिक संस्थाओं के प्रति भरोसा, एक राजनीतिक चेतना का विकास

प्रेमचंद की यह कहानी संस्थाओं के महत्व को एक सामाजिक और सांस्कृतिक स्वीकृति दिलाती है। उन लोगों में भी भरोसा जगाती है जो कि समाज के अप्राकृतिक, अमानवीय और बर्बर ढांचे से लगातार पीड़ित रहे हैं। इसका अर्थ यह होता है कि भरोसा उसकी मूल संस्कृति है। वह अतीतजीवी नहीं है, बल्कि भविष्य की संवेदना के साथ जीना चाहता है। पूरी मानव सभ्यता को बनाए रखने के उद्देश्यों के साथ हर वक्त तैयार रहता है।

भारतीय समाज में ऐसे ही आधार पर न्यायाधीशों के द्वारा दिए जाने वाले फैसलों और आदेशों को न्यायालय का फैसला मानकर स्वीकार किया जाता कहा है। जबकि हजारों-हजार की संख्या में लोगों को अपना घर बार छोड़ना पड़ा। अपने जीविकोपार्जन के स्रोतों, मसलन खेती की जमीन आदि छोड़नी पड़ी। यह सब सामाजिक विकास के नाम पर किया गया और वह स्वीकार्य किया गया। लोगों ने अपनी पुरी जिंदगी निकाल दी कि न्यायालय में उनकी आवाज सुनी जाएगी और उन्हें न्याय मिलेगा।

ऐसे लोगों की गिनती संख्या में या उन्हें समूह कहकर पूरी नहीं की जा सकती है। बल्कि न्याय की आस में पूरी जिंदगी गुजारने वाली एक उतनी आबादी हो गई है जो कि दुनिया के कई एक छोटे मुल्क की आबादी के बराबर हो सकती है। यानी न्याय की आस और उसे विफल होते देखने वालों का एक देश भी दुनिया के सबसे महान और बड़े लोकतंत्र का झंडा लहराने वाले देश में मौजूद है, जिसका भूगोल पूरे देश के बराबर ही है।

न्यायाधीश संस्था के लिए या संस्था न्यायाधीश के लिए

इस पहलू की समीक्षा की जानी चाहिए कि मीडिया की भाषा और प्रेमचंद का साहित्य का भरोसा भारतीय समाज अनुभवों पर कितना खरा उतरा है। दूसरा वह कौन सा दौर है, जिसमें कि यह स्पष्ट होने लगा कि न्यायालय की चहारदिवारी से जो फैसले और आदेश आ रहे हैं, वास्तव में वह फैसले किसी एक न्यायाधीश का ही फैसला हो सकता है या आदेश हो सकता है।

दरअसल दो तरह के संघर्ष भारतीय समाज के भीतर चल रहे हैं। एक संघर्ष उनका है जो भारतीय समाज के अप्राकृतिक, अमानवीय और अवैज्ञानिक ढांचे पर अपनी हुकूमत चलाते रहे हैं, लेकिन स्थितियों ने उन्हें मजबूर किया कि वह एक वैज्ञानिक, मानवीय और प्राकृतिक संबंधों के आधार पर खड़े नये समाज के निर्माण के प्रति भरोसा होने की प्रतिज्ञा करें। क्या उस हिस्से ने निर्माण के प्रति अपना भरोसा इस उद्देश्य से जताया कि वह अपने सामने की स्थितियों को कुछ वक्त के लिए चुनौती के रुप में स्वीकार करे और वह अपने को पुनर्गठित और पूर्व के हैसियत में लाने की स्थितियां तैयार करे? दूसरा संघर्ष भरोसे और वायदे की संस्कृति को बनाए रखने का है। मानवीय संबंधों में भविष्य के सपने देखते रहने का मनोरंजन छोड़ना नहीं चाहता है। प्रकृति को अपने भावों की गति के रुप में बनाए रखना चाहता है।

जिस तरह से किसी न्यायाधीश द्वारा दिए फैसलों-आदेशों को न्यायालय के फैसले के रुप में स्वीकार किया जाता रहा है, उसी तरह से चेतना में यह सवाल आता है कि जिसे न्यायालय का फैसला और आदेश बताया जा रहा है, क्या वह वास्तव में किसी न्यायाधीश का फैसला और आदेश है? संविधान की संस्थाओं का इस्तेमाल पुरानी अप्राकृतिक, अमानवीय और अवैज्ञानिक संस्थाओं के प्रतिनिधि के रुप में न्यायाधीश के पद पर काबिज व्यक्ति कर रहे हैं।

मीडिया में यह भाषा भी बन रही है कि किस न्यायाधीश ने फैसला किया है। उस न्यायाधीश का परिवार और उसकी जाति-धार्मिक संस्थाओं से मिले नामों के साथ उल्लेख करने की जरूरत महसूस होने लगी है। उनका उस तरह से अतीत खंगाला जाने लगा है जिस तरह से समाज को नुकसान पहुंचाने वाले लोगों के बारे में किया जाता है। न्यायालयों में खुद किसी व्यक्ति के अतीत को एक तथ्य के रूप में ग्रहण किया जाता है। यही लोगों की चेतना का भी हिस्सा है।

सवाल है कि न्यायाधीश अपने फैसलों और आदेशों से संस्था के प्रति यदि बचे खुचे भरोसे को भी खत्म करने की हरकतें कर रहे हैं तो आखिर उनका उद्देश्य क्या है। क्या यह महज परिवार के एक सदस्य द्वारा पूरे खानदान या परिवार के नाम और छवि को धूमिल करने जैसी हकरत होती है? या क्या वह वास्तव में संविधान की शपथ तो लेते हैं लेकिन उसकी विचारधारा में उनका यकीन नहीं है? क्या वास्तव में वे उस विचारधारा के प्रतिनिधि के तौर पर अदालत की संस्था के प्रति भरोसे को खत्म कर रहे हैं जो कि पुरानी संस्थाएं पुनर्जीवित करने का रास्ता तैयार करना चाहती हैं?

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