आकार पटेल का लेख: छवि सुधारने के लिए मीडिया कैंपेन की तैयारी में सरकार, लेकिन बांग्लादेश से तो आगे निकल जाएं

कुछ साल पहले तक हम चीन और अमेरिका से टक्कर की बात कर रहे थे, लेकिन अब हमें पहले बांग्लादेश से मुकाबला करना होगा। क्या इन्हीं दिनों का हमसे वादा किया गया था। किसी मीडिया कैंपेन से इसे कैसे सुधारा जाएगा? लेकिन चूंकि महान नेता ने बोला है तो होगा तो वही।

Photo by Ved Prakash/Pacific Press/LightRocket via Getty Images
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आकार पटेल

जटिल समस्याओं के लिए कई दिमागों की आवश्यकता होती है। नेतृत्व या लीडरशिप बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन ज्यादातर मामलों में दिशा दिखाने के लिए। और समस्या का समाधान वे ही लोग करते हैं जो समाधान को कार्यान्वित करते हैं न कि निर्देश देने वाला व्यक्ति। यदि इस प्रक्रिया को उलट दिया जाता है, तो मामला विकसित नहीं होता और नतीजो समस्या को उलझा देने वाला होता है। लीडरशिप के स्तर से नीचे जो समाधान तैयार होते हैं उनके लिए आवश्यक है कि निर्देश देने वाले की शक्तियों में कुछ लचीलापन हो। लेकिन आज के हमारे भारत में ऐसा नहीं है। इस बड़े और जटिल राष्ट्र का नेतृत्व इस तरह से केंद्रीकृत किया गया है जैसा हमारे इतिहास में कभी नहीं हुआ। इंदिरा गांधी के साथ कुछ समानताएं हैं, लेकिन 1970 का दशक दूसरी दुनिया थी।

मौजूदा सरकार के मंत्रिमंडल में कुछ सबसे महत्वपूर्ण पदों पर वे लोग हैं जिन्होंने कभी चुनाव नहीं जीता है। वित्त मंत्री, विदेश मंत्री, रेलवे और वाणिज्य और उद्योग मंत्री इनमें से कोई भी नहीं है जो चुनाव जीता हो। पिछले वित्त मंत्री भी बिन चुनाव जीते हुए ही थे। ऐसे सभी मंत्री अपनी मौजूदा पोजीशन पर अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक हैसियत के कारण नहीं है, बल्कि मोदी से मिले संरक्षण के कराण हैं और ऐसा मानते भी हैं। ऐसे में मोदी के किसी भी निर्देश की अवहेलना नहीं कर सकते और वे वही करेंगे जो वे कहते हैं। दरअसल यही कारण है कि इन मंत्रियों को चुना गया है और कैबिनेट में रखा गया है। जैसे ही कोई मोदी की बात टालने की या अवहेलना करने की सोचता है या किसी फैसले पर सवाल करता है उसे किसी ऐसे व्यक्ति से बदल दिया जाएगा जो अपना मुंह बंद रखेगा और चुपचाप अपनी नौकरी रखेगा। ऐसे में न तो किसी अधिकार या शक्ति का कोई भटकाव है और न ही जवाबदेही का।


ऐसे माहौल में जब हालात खराब होने लगें या चीज़ें गलत होने लगें तो न तो नेता को दोषी कहा जा सकता है और न ही उसका नाम लिया जा सकता है। ऐसा लगने लगेगा कि नेता जो किया वह सही है और समाधान उस नेता का रवैया सही करने से नहीं निकलेगा बल्कि कुछ और ही करना होगा।

कुछ हफ़्ते पहले वेबसाइट द प्रिंट में एक खबर इस शीर्षक से प्रकाशित हुई: "मोदी सरकार ने वैश्विक सूचियों में भारत की रैंक को बेहतर करने के लिए 'छवि सुधार' के लिए एक मीडिया अभियान की योजना बनाई है।" खबर में यह बताया गया कि सरकार करीब 30 वैश्विक संकेतकों पर भारत की रैंकिंग में सुधार करने की कोशिश कर रही है और इसके लिए सरकार की छवि बेहतर बनाने के लिए "एक बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान" शुरु किया जाने वाला है। जिन संकेतकों पर सरकार को छवि सुधार करनी है उनमें धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, मीडिया की स्वतंत्रता, कानून का राज, इनोवेशन, आतकंवाद और अन्य मुद्दे हैं। इन संकेतकों के लिए या तो आंकड़े जुटाए जाते हैं या फिर विशेषज्ञों की राय लेकर देशों की रैंकिंग तय की जाती है।

इन संकेतकों के लिए आंकड़े जुटाने का काम बहुस्तरीय होता है, जैसे कि विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र से मिले आंकड़े। यह तो स्पष्ट नहीं है कि अगर संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं जब असली आंकड़े जुटाएंगी तो मीडिया कैंपेन चलाकर भारत सरकार कैसे अपनी कमजोर रैंकिंग को सुधारेगी।

मिसाल के तौर पर प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भारत 2019 में 142वें नंबर पर था जबकि 2018 में उसकी रैंकिंग 138 थी। आखिर एक साल में रैंकिंग कैसे गिरी उसका मुख्य कारण यह है कि भारत पत्रकारों के खिलाफ हिंसा रोकने में नाकाम रहा और कश्मीर में लगातार इंटरनेट बंद रखा गया। यह वह बातें हैं जिनके जिंदा आंकड़े सामने हैं और इन्हें किसी मीडिया कैंपेन से नहीं सुधारा जा सकता। भारत ने इस साल कश्मीर के लिए एक नई मीडिया नीति सामने रखी है, जिसके बाद जम्मू-कश्मीर में मीडिया की रही सही स्वतंत्रता और कतर दी गई है।


मीडिया के मामले में सरकार को अपनी खुद की एक मीडिया इंडेक्स मॉनिटरिंग सेल बनानी थी जिसमें इंडिया टीवी के मालिक रजत शर्मा और पत्रकार पी साईनाथ को शामिल होना था। लेकिन इस सेल ने क्या किया है किसी को नहीं पता, और इससे वैश्विक रैंकिंग में कोई फर्क भी नहीं पड़ने वाला है। अगले साल भी भारत की रैंकिंग में किसी सुधार के आसार नहीं हैं और सरकार की तरफ से छवि सुधार कार्यक्रम पर पैसे खर्च करना न तो समझदारी का फैसला है और न ही इसका कोई असर होने वाला है।

भारत में कोरोना के मामलों की संख्या तो स्वत: घोषित है और इसके आंकड़े भी सरकारी हैं। इन आंकड़ों उस आधार पर परखा जाएगा कि भारत दक्षिण एशिया के दूसरे देशों के मुकाबले इस मोर्चे पर कैसा काम कर रहा है। संक्रमण और मृत्यु संख्या के मामले में हम दूसरे देशों से नीचे हैं। कोई भी मीडिया कैंपेन इस वास्तविकता को कैसे सुधारेगा या इस मामले में कोई नई राय कैसे बनेगी क्योंकि छवि तो वास्तविकता के आधार पर ही बनती है।

इस हफ्ते खबर आई है कि चालू वित्त वर्ष में बांग्लादेश प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत से आगे निकल जाएगा। मतलब कि औसत बांग्लादेशी की आय औसत भारतीय से अधिक होगी। यहां तक कि जिन लोगों को मोदी से नफरत करने वालों के रूप में प्रचारित किया जाता है वे भी इस खबर से भौंचक हैं। इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी क्योंकि 2014 में प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत बांग्लादेश से कहीं आगे था।

बांग्लादेश का इस मोर्चे पर हमसे आगे निकलने का एक कारण यह है कि बांग्लादेशी नेतृत्व ने कोविड के अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर को बेहतर तरीके से समझा और उपाय निकाला। दूसरा कारण यह है कि पिछले छह वर्षों के दौरान, बांग्लादेश का विकास भारत की तुलना में बहुत तेजी से बढ़ रहा है। कुछ भी हो जाता, बांग्लादेश को हमसे आगे निकल ही जाना था। कोविड ने तो बस इस खबर को जरा जल्दी हमारे सामने रख दिया। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे आम लोगों की जानकारी में नहीं लाने दिया गया क्योंकि हमारी लीडरशिप इसे मानने को तैयार नहीं है और मंत्री तो कुछ बोल ही नहीं सकते।


ऐसा लगता है जैसे हम कुछ साल पहले तक चीन और अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने की बात कर रहे थे, लेकिन अब हमें पहले बांग्लादेश से मुकाबला करना होगा। यह वह दिन तो नहीं हैं जिनका वादा हमसे किया गया था। किसी मीडिया कैंपेन से इसे कैसे दुरुस्त किया जाएगा? ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन चूंकि महान नेता ने बोला है तो होगा तो वही। गिरावट जारी रहेगी और अच्छे दिनों का शोर भी जारी रहेगा।

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