खरी-खरीः दिल्ली हिंसा से अमित शाह ‘सुपर हिंदू हृदय सम्राट’ बनेंगे या राजनीति के दारा शिकोह साबित होंगे!

साफ है कि पुलिस चाहे तो कोई भी दंगा दो-चार घंटे में रोक सकती है। यानी पुलिस तभी दंगा नहीं रोकती जब उसको ऊपर से इशारा होता है कि वह बस खामोश तमाशाई बनी रहे। दिल्ली में पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है और इस मंत्रालय की कमान अमित शाह के हाथों में है।

फोटोः सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

दिल्ली दंगों की आग में जलती रही और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मेहमान नवाजी में व्यस्त रहे। खैर, प्रधानमंत्री को तो घर आए मेहमान की मेजबानी करनी ही थी। परंतु केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, जिनके पास दिल्ली की कानून-व्यवस्था का जिम्मा है, आखिर क्या कर रहे थे? खबरों और अखबारों की रपटों से अब एक बात तो स्पष्ट है और वह यह कि दिल्ली में 24 से 26 फरवरी के बीच जो दंगे भड़के, वह केवल दिल्ली पुलिस की विफलता नहीं है अपितु दंगे दिल्ली पुलिस की निगरानी में ही हुए।

हिंदी के एक अखबार ने तो यह सुर्खी लगाई- ‘दिल्ली पुलिस आगे-आगे चलती रही, पीछे-पीछे दंगाई आग लगाते रहे’। स्पष्ट है कि पुलिस को यह आदेश था कि वह दंगाइयों के विरूद्ध कोई कड़े कदम नहीं उठाए। दरअसल, दिल्ली में हुए इन दंगों का पैटर्न बिल्कुल 2002 के गुजरात दंगों वाला था। जैसे गुजरात में पुलिस की नाक के नीचे तीन दिन तक दंगाई आतंक का खुला नंगा नाच करते रहे, वैसे ही उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दो दिन तक मारपीट, पथराव और आगजनी चलती रही और पुलिस चुपचाप खड़ी देखती रही।

गुजरात की ही तरह दिल्ली में भी चुन-चुन कर मुसलमानों की दुकानों और घरों में आग लगाई गई। जबकि हिंदुओं की दुकानों पर केसरिया झंडा लगाकर उनको आगजनी से बचाया गया। इसी प्रकार गुजरात की ही तरह दिल्ली में भी मजार और मस्जिदों को भी निशाना बनाया गया। लब्बोलुआब यह कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भी 2002 का गुजरात दोहराया गया। अंतर केवल इतना था कि गुजरात में दंगे बहुत बड़े स्केल पर हुए थे और वहां मरने वालों की संख्या हजारों में थी जबकि दिल्ली में दंगों का स्केल इतना व्यापक नहीं था और मरने वाले भी उतने अधिक नहीं थे।

परंतु गुजरात में हुए दंगों की राजनीतिक मंशा स्पष्ट थी, जबकि दिल्ली में क्या हुआ और क्यों हुआ यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। गुजरात में मोदी विरोधी आज तक नरेंद्र मोदी को ही गुजरात दंगों का जिम्मेदार ठहराते हैं। हालांकि अदालतों ने मोदी को इस मामले में ‘क्लीन चिट’ दी है। वैसे गुजरात दंगों का राजनीतिक लाभ मोदी को ही हुआ, जो गुजरात दंगों के पश्चात एक बेजमीनी नेता से ‘हिंदू हृदय सम्राट’ बन गए। अंततः मोदी जी हिंदुत्व की मार्केटिंग कर देश के प्रधानमंत्री बन बैठे।


परंतु दिल्ली दंगों की जो टाइमिंग है वह मोदी को तनिक भी नहीं भाती है। कोई प्रधानमंत्री यह नहीं चाहेगा कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति दिल्ली की यात्रा पर हों तो ऐसे समय में दिल्ली ही भयानक सांप्रदायिक दंगों से जूझ रही हो। यह प्रधानमंत्री के लिए राजनीतिक स्तर पर एक कलंक ही हो सकता है जो स्वभाविक रूप से प्रधानमंत्री नहीं चाहेंगे।

अतः दिल्ली के दंगों की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर नहीं डाली जा सकती है। परंतु कोई तो था जिसके इशारे पर दिल्ली पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और दिल्ली में दंगे चलते रहे। क्योंकि अब एक बात स्पष्ट है कि कोई भी दंगा यदि पुलिस चाहे तो वह दो-चार घंटों में रोक सकती है। अर्थात् पुलिस तब ही दंगा रोकने का काम नहीं करती जबकि उसको ऊपर से इशारा होता है कि वह दंगों की खामोश तमाशाई बनी रहे। ऐसा इशारा केवल डीजीपी पुलिस ही दे सकते हैं। परंतु डीजीपी यह काम केवल अपने राजनीतिक बॉस के इशारे पर ही कर सकते हैं। दिल्ली पुलिस के प्रमुख के बॉस गृहमंत्री होते हैं। अतः दिल्ली दंगों में शक की सुई गृहमंत्री अर्थात अमित शाह की ओर ही इशारा करती है।

वैसे भी दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के अधीन है, जिसकी कमान गृहमंत्री अर्थात् अमित शाह के हाथों में है। यह स्पष्ट है कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों की राजनीतिक जवाबदेही अमित शाह की ही बनती है। इस दृष्टि से दिल्ली में अमेरिकी राष्ट्रपति की मौजूदगी के दौरान राजधानी में भीषण दंगों का चलता रहना गृहमंत्री के लिए एक कलंक है। यह केवल एक कलंक ही नहीं अपितु गृहमंत्री की खुली नाकामी है। एक बाज़मीर राजनीतिक नेता के नाते अमित शाह को गृह मंत्रालय से त्यागपत्र दे देना चाहिए।

परंतु इस 21वीं शताब्दी में बाज़मीर राजनीति और नेताओं का चलन समाप्त हो चुका है। अतः अमित शाह त्यागपत्र देने से रहे। आज की राजनीति में तो फिल्मों की तरह नेता दंगे इसलिए आयोजित करवाते हैं, ताकि वे उसका राजनीतिक लाभ उठा सकें। अब सवाल यह उठता है कि दिल्ली दंगों में अमित शाह को राजनीतिक लाभ क्या मिल सकता है? यह समझने के लिए भी गुजरात मॉडल की हिंदुत्व राजनीति को समझना होगा।


जैसा अभी कहा कि गुजरात 2002 में मुस्लिम नरसंहार ने नरेंद्र मोदी को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ बना दिया। दरअसल हिंदुत्व राजनीति के दो प्रमुख स्रोत हैं। एक तो यह कि वह मुस्लिम विरोधी होनी चाहिए और दूसरे यह कि वह अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा उत्पन्न कर एक व्यापक हिंदू वोट बैंक बनाने में सफल हो। तब ही तो कोई नेता हिंदुत्व की लहर पर सत्ता की चरम सीमा पर पहुंच सकता है। गुजरात मॉडल यही मॉडल था और इसी मॉडल की सफलता के सहारे मोदी, मोदीजी बन गए। अब भारतीय जनता पार्टी में सफलता के लिए हर नेता इसी मॉडल का प्रयोग कर सत्ता के शिखर चूमने की होड़ में है।

आज की बीजेपी में यह स्पष्ट है कि अमित शाह नंबर दो की पोजिशन वाले नेता हैं। वह बीजेपी के सफल अध्यक्ष रह चुके हैं। इस समय वह सरकार में नंबर दो की स्थिति में हैं। मोदीजी के बाद यदि देश और सरकार में किसी का डंका बजता है तो वह केवल अमित शाह ही हैं।

राजनीति का एक स्वर्णिम नियम यह भी है कि राजनीति में नंबर दो की पोजिशन का व्यक्ति सदा नंबर एक की स्थिति हासिल करने का इच्छुक रहता है। अपने हावभाव से अमित शाह एक महत्वाकांक्षी राजनेता दिखाई पड़ते हैं। अतः वह अपने राजनीतिक गुरु मोदी के साए तले सदा अपना राजनीतिक जीवन व्यतीत नहीं कर सकते। पर मोदीजी से भी आगे जाने के लिए बीजेपी में उनको ‘सुपर हिंदू हृदय सम्राट’ बनना पड़ेगा।

यदि आप अमित शाह के सरकार में आने के पश्चात का सफर देखें तो वह बहुत निपुणता से ‘सुपर हिंदू हृदय सम्राट’ बनने की जुगत में लगे हैं। पिछले चार छह महीनों में उनके सीवी में हिंदुत्व के वे सभी अंग शामिल हो चुके हैं जिसको अंग्रेजी भाषा में ‘हार्ड हिंदुत्व’ कहा जाता है। जैसे तीन तलाक कानून पारित करवाने का श्रेय अमित शाह का ही है। उसी प्रकार अनुच्छेद 370 को समाप्त कर कश्मीर को संपूर्णतयः भारत के अधीन करवाने में भी अमित शाह ही सबसे आगे थे। फिर राम मंदिर निर्माण से भी उनका नाम जुड़ा है। अर्थात् अमित शाह में ‘सुपर हिंदू हृदय सम्राट’ बनने के सारे गुण पर्याप्त मात्रा में हैं। उनके हिंदुत्व सीवी में अब तक केवल दंगों की कमी थी जो उत्तरी-पूर्वी दिल्ली के दंगों ने पूरी कर दी।

इस प्रकार शाह साहब अपने गुरु मोदी जी की श्रेणी में पहुंच गए। परंतु गुरु को यह बात कैसे पसंद आ सकती है कि चेला उसकी बराबरी पर आ जाए। कदापि यही कारण है कि मोदी जी ने अपने चहेते अफसर और एनएसए अजित डोभाल को दिल्ली हिंसा की निगरानी पर लगा दिया है। तो क्या मोदी और शाह में मतभेद उत्पन्न हो रहे हैं? यह बात तो आने वाला समय ही बताएगा।

परंतु यह भी एक हैरतनाक बात है कि ‘सुपर हिंदू हृदय सम्राट’ अमित शाह का नाम राम मंदिर ट्रस्ट सूची में कहीं दूर-दूर तक नहीं है। तो क्या डोनाल्ड ट्रंप की मौजूदगी में होने वाले दिल्ली दंगे किसी बात की ओर इशारा कर रहे हैं। यह भी समय ही बताएगा। परंतु ट्रंप की मौजूदगी में दिल्ली में भीषण हिंसा से मोदी जी को नुकसान तो उठाना ही पड़ा है। लेकिन राजनीति के स्वर्णिम नियम के अनुसार राजनीति में द्वितीय श्रेणी का नेता सदा अव्वल श्रेणी की ताक में रहता है। अब देखें कि अमित शाह ‘सुपर हिंदू हृदय सम्राट’ बनते हैं अथवा राजनीति के दारा शिकोह साबित होते हैं।

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Published: 27 Feb 2020, 8:09 PM