मृणाल पाण्डे का लेखः क्या टेक्सास में पीएम मोदी और ट्रंप का ‘रॉकस्टार’ अवतार विदेशी निवेश ला सकेगा?

जब भारत से पिछले बरस में रिकॉर्ड पूंजी पलायन की पुष्ट जानकारियां निवेशकों को मिल रही हों, तब वे अराजकता, नारेबाजी, विद्रोह और आंदोलनों के बीच अपनी गाढ़ी कमाई को भारतीय बाजार में उतारने को कितने राजी होंगे? उम्मीद पर दुनिया कायम है। चाहें तो आप भी कायम रहिए।

फोटोः सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

यमन के विद्रोही दस्ते ने सऊदी अरब के दो बड़े तेल संयंत्रों पर चालक रहित ड्रोन विमानों से घातक हमले करके सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था की चूलें हिला दी हैं। अब सऊदी अरब के तेल के दाम बढ़ेंगे, जो हमारा दूसरा सबसे बड़ा तेल का स्रोत है। जानकारों का कहना है कि इससे घरेलू तेल तथा पेट्रो पदार्थों के दाम में फिर भारी उछाल आ सकता है। एक तो वैसे ही जीडीपी की दर कछुआ गति से बढ़ रही है, तिस पर यह मार। यानी कंगाली में आटा गीला। तिस पर यह एक बार फिर रेखांकित हुआ है कि आतंकी दस्ते दुनिया के किसी भी कोने में कभी भी उसके बड़े ऊर्जा स्रोतों और महत्वपूर्ण संयंत्रों, दफ्तरों पर मानवरहित वाहनों से दूर बैठे घातक हमले करवा सकते हैं।

ऐसे समय में देश को एकजुट रखना और साथ ही विश्व बिरादरी को अपने पक्ष में रखने में ही कुशल है। पर इस समय हमारे यहां तीन राज्यों में चुनाव प्रचार का काम इस नाजुक घड़ी में एकजुटता की बजाय अलग-अलग जाति-धर्म के नागरिकों के बीच लगातार शत्रुता बढ़ा रहा है। भले ही यह गांधीजी की 150वीं जयंती का वर्ष हो, पर थप्पड़ खाकर भी शत्रु के सामने दूसरा गाल आगे कर पाने की उदार गांधीवादी सोच देश से खरगोश के सींग की तरह गायब हो चुकी है।

ग्लोबल गर्मी की मार से आधा देश भौतिक रूप से भी बाढ़ और और सुखाड़ की भी मारक चपेट में है। किसानी लगभग धराशायी है, और बढ़ती शहरी तथा ग्रामीण बेरोजगारी का तो कहना ही क्या? उनको आश्वस्त करने की बजाय देश के श्रम तथा रोजगार (स्वतंत्र प्रभार) राज्यमंत्री ने बरेली की एक प्रेसवार्ता के बीच यह कह कर बेरोजगारों की भीड़ में एक और भीड़ का छत्ता छेड़ दिया है कि नौकरियां तो काफी हैं, लेकिन उत्तर भारत के युवाओं में उनके लायक योग्यता की कमी है।

इस कथन का उत्तर प्रदेश के सभी महत्वपूर्ण नेताओं ने तीखा प्रतिवाद किया है। मायावती ने बयान शर्मनाक बताकर मंत्री महोदय से देश से माफी मांगने को कहा है, तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने पूछा है कि उनके शासनकाल में पांच साल पहले युवाओं में हुनरमंदी बढ़ाने के लिए जो नया मंत्रालय बनवाया गया था, अब तक क्या कर रहा था? वहीं एसपी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी कहा कि योग्यता की कमी दरअसल बेरोजगार युवाओं में नहीं, सरकार में है।


कुछ हद तक विपक्ष सही कह रहा है। आर्थिक मंदी के इस विश्वव्यापी संकट के बीच जरूरत है कि सरकार इस समय खुराफाती पड़ोसी पाकिस्तान पर ही नहीं, अपनी पार्टी के कुछ बड़बोले तत्वों की बदजुबानी पर भी तुरंत सार्वजनिक रोष जताए। विश्व राजनय में बैर पालने का मतलब यह नहीं होता कि कश्मीर के संवेदनशील मसले पर सतर्कता से अलग-अलग स्तरों पर घरेलू विपक्ष, मीडिया और पाक प्रतिनिधियों से समवेत बातचीत बंद कर उस पर ताला जड़ दिया जाए।

सरकार को 2014 से तारीफ करते रहे अपने उन मुसाहिबों, भाट-चारणों से भी मुक्ति पानी होगी जो कौमी मलाल पैदा करने वाले भाषणों और अल्पसंख्यकों, दलितों या किसी भी समुदाय विशेष के खिलाफ हिंसा को सही ठहराते फिर रहे हैं। हर शासन में कटु सच बताने की हिम्मत रखने वाले विपक्षी धड़ों तथा मीडिया से सहज संपर्क रखने की हिम्मत होनी चाहिए। संवाद उभयपक्षी हो तो यह शासक की कायरता नहीं, मानवीयता और इंसाफ पसंदी का प्रमाण होता है।

आज यूरोप में अफ्रीका-एशिया से दर-बदर डांय-डांय भटकती शरणार्थियों की भीड़ शरण लेने को सीमाओं पर लगातार उमड़ रही है। अपने पूर्व उपनिवेशों से आए जिन गरीब अल्पसंख्यकों को उनकी सरकारों ने निचले दर्जे के काम पकड़ा दिए थे, उनकी नई पीढ़ी अब जवान है और यूरोप के लोकतांत्रिक शिक्षा संस्थानों से पढ़कर अपने लिए भी बराबरी का जायज हक मांगने लगी है। नतीजतन भारत की ही तरह यूरोप में भी वर्णभेदी, वर्गभेदी मूल्य (विश्वयुद्ध- 2 के कई वर्ष बाद) फिर से उभर रहे हैं और लोकतांत्रिक ताकतें कमजोर पड़ी हैं।

इधर माननीय प्रधानमंत्री की अमेरिका की यात्रा और उसमें डोनाल्ड ट्रंप की सक्रिय भागीदारी के इशारों पर यह प्रचार किया जा रहा है, कि लक्ष्मी की फुल कृपा होने ही वाली है। सच तो यह है, कि अमेरिका में भी लोकतंत्र या अर्थतंत्र के हाल बहुत अच्छे नहीं हैं। खुद को तुर्रम खां समझने वाले और देवताओं की तरह धन और बंदूकों को पूजने वाले ट्रंप ने बड़ी ठसक से ऐलान किया था कि अमेरिका हाथ के हाथ अपने सैनिक अफगानिस्तान से वापिस बुलवा कर पाकिस्तान की मदद से उस देश को तालिबान के हवाले कर देगा। पर महीने भर के भीतर तालिबान ने काबुल धमाकों में अपने खूनी तेवर दिखा दिए, तो अब तालिबान से बातचीत का इरादा त्याग दिया गया है।


वे जमाने अब लद गए जहां अमेरिका के छींकने पर दुनिया को जुकाम हो जाता था। अब तो 16 साल की एक अकेली बच्ची स्वीडन से आकर यूएन के आगे ग्लोबल वार्मिंग पर तटस्थ बने अमेरिका को शर्मसार कर वहां के मीडिया से सराहना पा सकती है। ट्रंप का मित्र उत्तर कोरिया का तानाशाह दीवाली की फुलझड़ियों की तरह परमाणु परीक्षण करता रहता है और चीन बेधड़क हिंद महासागर और पाक अधिकृत कश्मीर में गश्त जारी रखे हुए है।

कुछ पाठक पूछ सकते हैं कि इस लाग-डांट से हमको क्या? पर हमारे प्रधानमंत्री जी ने ही बार-बार साफ किया है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत यूरोप और अमेरिका के साथ खड़ा है। अच्छी बात है। लेकिन हम इसकी भी तो अनदेखी नहीं कर सकते कि स्वदेशी मीडिया का कश्मीर जाना प्रतिबंधित बना रहने से उस धड़े के आजाद मीडिया में भारत सरकार की निंदा का जोर है। बाहरी मीडिया की काट भारत का आजादी पसंद मीडिया ही भरोसेमंद ढंग से कर सकेगा। पर उसकी तो मुश्कें कस दी गई हैं। बचे-खुचे सरकार को प्रसन्न रखने वाले मीडिया का हाल यह है कि वहां सेक्युलर शब्द को लगभग गाली की तरह सिक्युलर कहने वाले सरकार के पक्षधर सलाह दे रहे हैं कि आर्यावर्त का हर हिंदू कट्टर धर्मपरायण हिंदू और हर मुसलमान कट्टर धर्मपरायण मुसलमान बन जाए, तो हमारे देश में समझदार सहआस्तित्व संभव हो जाएगा। ऐन ऐसे कठिन वक्त पर यह बेतुकी बहसें गरीबी, बेरोजगारी और औद्योगिक मंदी के सवालों से भले ही देश का ध्यान बंटाएं, पर बाद को यह भारी विद्वेष की तरफ ले जाएंगे, यह पक्का है।

एक अन्य बेतुकी बहस समान नागरिक संहिता (अनुच्छेद 44) के प्रवर्तन पर चला दी गई है। उस जैसे उबलते पतीले का ढक्कन खोल देने से उप-राष्ट्रीयता के कई अन्य ऐसे सवाल उघड़ गए हैं जिनको वीपी सिंह, चंद्रशेखर या अटलजी सहित सभी समझदार गैरकांग्रेसी नेताओं ने भी नेहरू से प्रेरणा लेकर समझदारी से तलघर में बंद कर रखा था, ताकि देश में शांति बनी रहे और आर्थिक तरक्की की राह पर हम तेजी से बढ़ चलें। इसका सकारात्मक असर हुआ भी था।

लेकिन इधर अचानक हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने संकेत देने चालू कर दिए हैं कि वे भी असम की तरह राष्ट्रीय नागरिकता के रजिस्टर बनवाएंगे ताकि विधर्मी बाहरियों को बाहर खदेड़ा जा सके। रही-सही कसर हिंदी दिवस पर हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा बनेगी का संदेश दिए जाने ने पूरी कर दी। इससे जो पृथकतावादी ताकतें सुषुप्त या अर्द्धजागृत थीं, वे भी यकायक सुगबुगाने लगी हैं और दक्षिण भारत के राज्यों के बीजेपी के सहयोगी दलों के नेता भी इलाकाई हित स्वार्थों के हवाले से उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक कई नई दरारें पैदा करने को बाध्य हो चले हैं।


इस सबसे भारत के शहरों और गांवों, महानगरों और कस्बों, दरिद्र उत्तरी और संपन्न दक्षिणी राज्यों के बीच आर्थिक खाइयां भी बढ़ेंगी। जबकि देश को आज अखिल भारतीयता की सबसे अधिक जरूरत है। आर्थिक तरक्की के क्षेत्र में इस समय प्रधानमंत्री जी की अमेरिका यात्रा से बड़ी उम्मीदें लगाई जा रही हैं, लेकिन जब तमाम बड़े अमेरिकी अखबार कश्मीर मुद्दे पर भारत सरकार को मानवाधिकार हनन का दोषी कह रहे हैं, उस समय क्या ट्रंप के साथ टेक्सास में रॉक स्टार की तरह प्रकट होना शीर्ष नेतृत्व को विदेशी निवेश के बड़े वादे दिला सकेगा?

वहां भी मंदी पास सरक रही है और चीन-अमेरिका, ईरान-अमेरिका, सऊदी और ईरान के बीच तनातनी के चलते 2008 की छाछ से जले निवेशक, एशियाई बाजारों की छाछ को फूंक-फूंक कर ही पी रहे हैं। उनको अपना पैसा दुगुना-तिगुना करने से मतलब है। और उस तरह की पूंजी के विकास के लिए घरेलू माहौल में जो स्थिरता, मजबूत बुनियादी ढांचा, हुनरमंद और अनुशासित कामगारों की फौजें और टैक्स मामलों में स्थिरता की गारंटी चाहिए, वे उनको नहीं दिख रही हैं। जब भारत से ही पिछले बरस में रिकॉर्ड पूंजी पलायन की पुष्ट जानकारियां उनको मिल रही हों, तब वे अराजकता, नारेबाजी, विद्रोह और आंदोलनों के बीच अपनी गाढ़ी कमाई को भारतीय बाजार में उतारने को कितने राजी होंगे? उम्मीद पर दुनिया कायम है। चाहें तो आप भी कायम रहिए।

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