अपने पूर्वाग्रहों और सामाजिक मतभेदों की दुविधा के साथ कितनी समानता पचा पाएगा हिंदुत्व राष्ट्र!

समान नागरिक संहिता को सैद्धांतिक तौर पर देखें तो यह धर्म, जाति, समुदाय आदि के आधार पर होने वाले भेदभावो को खत्म कर सकती है, और यही भगवा ब्रिगेड का धर्मसंकट है। वह कई रूढ़ियों से जकड़ा हुआ है और इसे लागू करने से पहले उसे अपने पूर्वाग्रहों से निकलना होगा।

फोटो सोशल मीडिया
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सुजाता आनंदन

चुनाव प्रचार के बीच में तो पुष्कर सिंह धामी ने समान नागरिक संहिता बनाने की बात कही ही थी, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर दूसरी बार शपथ लेने के तत्काल बाद ही उन्होंने कहा कि ऐसा कानून बनाने के लिए वह कटिबद्ध हैं। लोकसभा में पिछले साल 1 दिसंबर को बीजेपी सासंद निशिकांत दुबे ने भी समान नागरिक संहिता बनाने की मांग की थी। वैसे, समान नागरिक संहिता ऐसा विषय है जिसे संघ परिवार और बीजेपी हर हाल में लागू तो करना चाहते हैं लेकिन कैसे, यह उनकी समझ में नहीं आता। इसकी वजह भी साफ है। समान नागरिक संहिता को सैद्धांतिक तौर पर देखें तो यह धर्म, जाति, समुदाय और लिंग के आधार पर होने वाले सभी भेदभाव को खत्म कर सकती है, और यही भगवा ब्रिगेड का धर्मसंकट भी है। वह खुद तमाम तरह की रूढ़ियों से जकड़ा हुआ है और देश में इसे लागू करने का फॉर्मूला निकालने से पहले उसे अपने पूर्वाग्रहों से निकलना होगा।

समान नागरिक संहिता का गोवा कनेक्शन और संघ का असमंजस

वैसे, समान नागरिक संहिता का एक गोवा कनेक्शन भी है। गोवा देश का अकेला राज्य है जहां एक ‘फैमिली लॉ’ है जो सभी जातियों, सभी समुदायों, सभी धर्मों को मानने वालों, सभी लिंगों के लोगों पर समान रूप से लागू है, यानी एक तरह की समान नागरिक संहिता। पुर्गगालियों ने 1870 में यह कानून लागू किया था और तब से यह बना रहा, यहां तक कि 1961 में गोवा मुक्ति के बाद भी। गोवा में वैसी ही नागरिक संहिता लागू है जैसी पूरी यूरोपीय महाद्वीप में। लेकिन आज के भारत में हमारी कल्पना में जिस तरह की नागरिक संहिता उभरती है, उससे यह काफी अलग है। यही वजह है कि आरएसएस इसके आगे-पीछे को समझने में सालों से जुटा हुआ है।

अपने ही पूर्वाग्रह से धर्म संकट में हिंदुत्व

एक दशक से भी ज्यादा समय पहले आरएसएस विचारक एमजी वैद्य ने बीजेपी शासित पांच राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा था कि वे गोवा की तर्ज पर अपनी-अपनी समान नागरिक संहिता बनाएं, लेकिन इसकी राह के रोड़ों को दूर करना इतना आसान नहीं था क्योंकि इसमें महिलाओं को संपत्ति में हमवारिस बनाया गया था (भारत में यह काफी बाद में लागू हुआ और आरएसएस ऐसा नहीं चाहता था), इसमें तलाक, व्यभिचार और विवाह से जुड़े विभिन्न विषयों के मामलों में अलग-अलग धर्मों के लिए अपवाद भी थे। कुछ मामलों में तो यह ब्रिटिश कॉमन लॉ जैसा है जिसके आधार पर भारत ने दो तरह के कानूनों को अपनाया- एक, जो सभी लोगों पर लागू हो और दूसरा, हर धर्म के आधार पर उनके पर्सनल लॉ।

लेकिन अब बीजेपी आधे से अधिक राज्यों की सत्ता में है और आरएसएस के एजेंडे में यह एक प्राथमिकता वाला विषय है कि समान नागरिक संहिता का ऐसा प्रारूप विकसित किया जाए जो सब पर लागू किया जा सके। लेकिन इसके लिए उसे कई बाधाओं को पार करना होगा। हिन्दू कोड बिल में किसी भी धर्म अथवा समुदाय के बीच विवाह का प्रावधान है जिसका आरएसएस धुर विरोधी है क्योंकि अगर कोई महिला चाहे तो वह न सिर्फ मुस्लिम बल्कि नीची जातियों, यहां तक कि एक ही गोत्र में विवाह कर सकती है। वैसे ही गोद लिए बच्चों को समान अधिकारों का मामला है जिसे मानने से आरएसएस बचना चाहेगा।


हिंदुओं के संभावित सामाजिक मतभेदों से भी है संघ को दुविधा

सूत्रों के मुताबिक, आरएसएस और बीजेपी इस मुद्दे पर लंबे समय से विचार-मंथन कर रहे हैं लेकिन समान नागरिक संहिता के अपने दृढ़ संकल्प के बावजूद वे इन मुद्दों पर अपने पूर्वाग्रहों को हल करने में असमर्थ रहे हैं। आरएसएस में एक वर्ग है जो अनिच्छा से ही सही, स्वीकार करता है कि राष्ट्र के संस्थापकों ने सब पर लागू होने वाले कानून के साथ पर्सनल लॉ और इसे मानने का विकल्प आम लोगों पर छोड़कर सही ही किया। अगर वे संवैधानिक प्रावधानों के साथ छेड़छाड़ करते हैं और विकल्प की आजादी में हस्तक्षेप करते हैं, तो इससे बहुसंख्यक उदार हिन्दुओं के बीच भी सामाजिक मतभेद पैदा हो सकता है, इस जोखिम से वे कोई भी फैसला लेने से हिचकते हैं। सूत्रों का कहना है कि ऐसे में समान नागरिक संहिता पर अभी काफी विचार-विमर्श होना है और इस बीच अगर कोई अन्य बीजेपी शासित राज्य में गोवा की तर्ज पर समान नागरिक संहिता संबंधी कानून बनाया भी जाता है तो ज्यादा संभावना इस बात की है कि व्यक्तिगत विकल्प की आजादी को बहाल रखा जाए।

धर्म और 'लाभार्थी वर्ग' का मिश्रण

ऐसे में सवाल यह उठता है कि यह संविधान द्वारा पहले से की गई व्यवस्था से कितना अलग होगा?

हालांकि वे बीजेपी शासित राज्यों में धर्म और कल्याणकारी राजनीति के मिश्रण को व्यवहार में लाने को लेकर लगभग निश्चित हैं क्योंकि उनका आकलन है कि इसी नीति पर चलकर उत्तर प्रदेश में उन्हें शानदार कामयाबी मिली। इस साल के शुरू में आरएसएस उत्तर प्रदेश के परिणामों को लेकर संशकित था और इसीलिए उसने इस पर पूरा ध्यान केन्द्रित कर रखा था। उसने लगभग 150,000 कार्यकर्ताओं को लोगों के बीच जाकर मंदिर, मुफ्त उपहार, भोजन वितरण और नरेन्द्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के मजबूत नेतृत्व के आधार पर प्रचार करने को भेजा ताकि गंगा में तैरते शवों की छवियों के साथ कोविड कुप्रबंधन की बात को लोगों के दिमाग से हटाया जा सके। उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ के एक विशेष जाति समूह के प्रति झुकाव को लेकर भी कुछ आशंका थी। हालांकि नए मंत्रिमंडल के गठन में इस परेशानी को कुछ हद तक दूर कर दिया गया है लेकिन इस मामले में आगे कैसे बढ़ना है, इस पर आरएसएस में मतभेद है।


ओबीसी को साधने की व्यापक श्रृंखला तैयार

आरएसएस का एक धड़ा संगठन की ब्राह्मणवादी परंपरा से पीछे हटने को तैयार नहीं और निचली जातियों के लोगों को बड़ी जिम्मेदारी देने से उत्साहित नहीं होता। हालांकि, एक धड़े का मानना है कि अधिसंख्य हिंदू आबादी (ओबीसी) को केवल अपने जोखिम पर ही नजरअंदाज किया जा सकता है। बहरहाल, माना जाता है कि आने वाले समय में ओबीसी से बड़ी संख्या में लोगों को अहम जिम्मेदारियां दी जा सकती हैं। एक आरएसएस विचारक कहते हैं, ‘मोदी भी तो ओबीसी से आते हैं और उनके नेतृत्व में हमने वह सब पाया जो पहले कभी नहीं पा सके। (उनका इशारा अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल की ओर था।) आलोचक आरएसएस के ब्राह्मणवाद के लिए उसकी आलोचना करते हैं लेकिन वे इस बात से अनजान हैं कि हमने ओबीसी को अपने व्यापक परिवार का हिस्सा बनाने के लिए एक पूरी श्रृंखला तैयार कर रखी है और इससे इस समुदाय में जो भी संशय होगा, वह खत्म हो जाएगा और जल्द ही देश से जाति-आधारित राजनीति खत्म हो जाएगी।’

तो इस कारण से फिर लगाया गया योगी पर दांव

हालांकि वह सज्जन ढके-छिपे ही सही इस बात को स्वीकार करते हैं कि नरेन्द्र मोदी की अपराजेय-सी स्थिति से आरएसएस में बेचैनी भी है। आम तौर पर आरएसएस अपने लोगों को उनके ‘दायरे’ में रखने का आदी रहा है और इसी वजह से वह लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेता को भी किनारे कर सका। लेकिन आम लोगों में मोदी की लोकप्रियता जैसे सारी हदों को पार कर गई है। इसी वजह से आरएसएस हर हाल में चाहता था कि योगी आदित्यनाथ वापस सत्ता में आएं और पूरी मजबूती के साथ। लेकिन सालों से आरएसएस पर पैनी नजर रखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘वास्तविकता यही है कि आरएसएस को मोदी से कहीं कोई परेशानी नहीं क्योंकि मोदी ने हर मोर्चे पर काम करके दिखाया है- शिक्षा नीति में बदलाव, मुसलमानों का उत्पीड़न, क्रोनी कैपिटलिज्म और निजीकरण,... ये सब जितनी मोदी सरकार की नीति है, उतनी ही आरएसएस की। लेकिन वे एक संतुलन भी चाहते थे। यहीं आते हैं योगी। और मोदी की ओर से संतुलकारी कदम है हारने के बाद भी केशव मौर्य को फिर से उपमुख्यमंत्री बनवाना।’ मोदी और आरएसएस एक-दूसरे से लाभ भी लेते हैं और एक-दूसरे को संतुलन में भी रखते हैं।

मोदी और योगी भविष्य में जो कुछ भी हासिल करते हैं, चाहे साथ मिलकर या फिर अकेले, यह और बात है और आरएसएस इन दोनों को एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करे या नहीं, इतना तय है कि ये दोनों आरएसएस की भावी योजनाओं को ही पंख देते नजर आएंगे। अच्छा हो, बुरा हो या फिर बहुत बुरा, होगा तो ऐसा ही।

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