आकार पटेल / दुनिया के देशों पर कमजोर होते अमेरिकी प्रभुत्व से घबराकर ही ट्रम्प लगा रहे हैं उलटे-सीधे टैरिफ

जैसे-जैसे दुनिया पश्चिम के बराबर होती जा रही है और अमेरिका की नियंत्रण और प्रभुत्व की क्षमता कम हो रही है। इसी वजह से उसने टैरिफ के बहाने अपनी ताकत का इस्तेमाल शुरु किया है।

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आकार पटेल

अमेरिका में कुल 34 करोड़ लोग हैं (यूपी और बिहार की आबादी के बराबर)। दुनिया की आबादी में अमेरिकियों की भागीदारी 4 फीसदी है और जिसे अमेरिका नियम-आधारित व्यवस्था कहता है, उसके वे सबसे बड़े लाभार्थी हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों द्वारा लागू की गई यह व्यवस्था, संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं के माध्यम से वैश्विक सहयोग की मांग करता है। अमेरिकी अपने राष्ट्रपति को, बिना किसी लाग-लपेट के, फ्री वर्ल्ड यानी 'स्वतंत्र विश्व का नेता' कहते हैं।

'नियम-आधारित व्यवस्था' की एक संस्था, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार, अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय लगभग 90,000 डॉलर है। भारत की प्रति व्यक्ति आय इसके 1/30वें हिस्से से भी कम, यानी 3000 डॉलर से भी कम है। पिछले कुछ दशकों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में तेज़ी आई है क्योंकि इसकी कंपनियों ने अपने उत्पाद—जैसे विमान, फ़ोन और कंप्यूटर—और सेवाएं—जैसे सोशल मीडिया कंपनियों को दुनिया भर में विस्तार दिया है और जहां उनका दबदबा है।

हाल ही में नौकरियों के आंकड़ों में कमी के बावजूद, अमेरिका पूर्ण रोजगार के स्तर पर चल रहा है, यानी बेरोजगारी दर लगभग 4% है, जो कि बहुत अच्छा आंकड़ा है। इसका मतलब है कि आय और नौकरियों के लिहाज से, विशेष रूप से भारत जैसे देशों की तुलना में अमेरिका बहुत अच्छी स्थिति में है, जहां गरीबी और बेरोजगारी, खासतौर से नियमित, वेतनभोगी रोजगार की कमी एक गंभीर समस्या है।

इतना सबकुछ होने पर भी, अमेरिका दुनिया से नाखुश है, जिसे वह अमेरिकी राष्ट्रपति कहते हैं कि दुनिया उन्हें, "लूट रही है"। इस स्थिति को बदलने के लिए, और उनके शब्दों में कहें तो इस चोरी को रोकने के लिए उन्होंने दुनिया के देशों के लिए अमेरिका में अपने उत्पादों का निर्यात करना और भी मुश्किल बना दिया है। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है, और हमारे उत्पादों पर जो 25% टैरिफ लगाया है, उससे हमारे (भारत के) उत्पादों की वहां मांग कम होगी, और जिससे हमारे निर्यातकों को नुकसान होगा। इस कड़वे तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता। अगर यह टैरिफ जारी रहा, तो हमारे हितों को नुकसान होगा, चाहे इस टैरिफ का भुगतान कोई भी करे।

अमेरिकी लोकतंत्र के भीतर इस बात पर कोई सार्थक बहस नहीं हो रही है कि राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा उठाए गए कदम वैश्विक नियम-आधारित व्यवस्था और उसके मित्रों और सहयोगियों को नुकसान पहुंचाएंगे या नहीं, गरीब देशों की तो बात ही छोड़ दीजिए। अमेरिका ने अब जो किया है, वह उस व्यवस्था को तहस-नहस करने वाला कदम है, जहां टैरिफ तो थे, लेकिन उनका इस्तेमाल विश्व व्यापार संगठन के नियमों और विनियमों के तहत किया जाता था, और जिनके खिलाफ अपील की जा सकती थी। अमेरिका ने इस नियम-आधारित व्यवस्था की अनदेखी की है और उसे कमज़ोर किया है जिसका वह दशकों से फायदा उठाता रहा है। ऐसा करके वह बाकी दुनिया को नुकसान पहुंचा रहा है।


नियम-आधारित व्यवस्था की एक और अवहेलना हो रही है, और वह है गाज़ा में जारी नरसंहार को अमेरिका द्वारा बढ़ावा देना। युद्ध के माध्यम से दुनिया को अत्याचार और निरंकुशता से मुक्त कराने के लिए सदैव तत्पर रहने का दावा करने वाले अमेरिका ने इज़राइल का पक्ष लिया है, जबकि वह हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का नरसंहार कर रहा है, उन्हें भूखा मार रहा है, और ईरान के विरुद्ध अवैध युद्ध छेड़ रहा है। दुनिया के अधिकांश देशों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने वोट के माध्यम से गाज़ा में जारी इस भयावहता को समाप्त करने का आह्वान किया है, लेकिन अमेरिका ने अपने वीटो का इस्तेमाल करके 21वीं सदी के इस भयावह नरसंहार को जारी रहने दिया है।

टैरिफ की तरह ही, अमेरिका दुनिया को बता रहा है कि वह नियम-आधारित व्यवस्था को छोड़ रहा है और दुनिया से जितना संभव हो सके, उतना वसूलने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करना चाहता है।

इन परिघटनाओं से हम कुछ बातें सीख सकते हैं। एक तो यह कि अमेरिका ने अब एक मिसाल कायम कर दी है। यानी अगला शक्तिशाली राष्ट्र कमज़ोर राष्ट्रों के साथ कैसा व्यवहार करेगा, इसका एक उदाहरण होगा, और "शक्ति ही अधिकार है" का नियम उतना ही वैध माना जाएगा है जितना कि नियम-आधारित व्यवस्था का। आज वैश्विक दक्षिण की ओर से इसका प्रतिरोध काफ़ी कमज़ोर है, और ब्रिक्स के भीतर की दरारों, (जिनके बारे में हमें यहाँ विस्तार से बताने की ज़रूरत नहीं है), ने अमेरिकी दादागिरी को बढ़ावा दिया है।

दूसरा यह कि हमें गंभीरता से इस पर विचार करना चाहिए कि हमारी व्यक्तिगत कूटनीतिक शैली से हमें आखिर हासिल क्या हुआ। हमने इज़राइली नेता से गले मिलने के लिए फ़िलिस्तीन जैसे मामलों पर दशकों से चली आ रही संस्थागत सहमति को दरकिनार कर दिया है। हमने अमेरिकी राष्ट्रपति को यहां-वहां रैलियों में या भारतीय-अमेरिकियों को उनके लिए वोट देने के लिए प्रोत्साहित करके (अबकी बार, ट्रम्प सरकार), जितने भी सम्मान दिए हैं, उनसे कोई लाभ या छूट नहीं मिली है। वैसे तो सम्राट अपने मन की आवाज़ के अलावा किसी और की नहीं सुनते, लेकिन फिर भी यह कहना ज़रूरी है।

आखिरी बात जिस पर हमें विचार करना चाहिए, वह यह है कि इस समय अमेरिका को किस चीज़ से चिढ़ हो जाती है। आखिर अपनी इतनी दौलत, ताकत और अपनी आरामदायक आर्थिक स्थिति के बावजूद, अमेरिका इस पागलपन के दौर से क्यों गुज़र रहा है? इसका जवाब वैश्विक दक्षिण और ख़ास तौर पर चीन के उदय में छिपा है। अगर हालात पिछले 30 सालों की तरह ही चलते रहे, तो एक-दो दशक में अमेरिका, (एक सदी से भी ज़्यादा समय में पहली बार) दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का अपना तमगा खो देगा। यह 'पश्चिम' कहे जाने वाले देश तो कतई स्वीकार नहीं कर पाएंगे। ऐसा होने पर वह उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका में सदियों से जो करता आया है, या आज फ़िलिस्तीन में जो कर रहा है, वैसा नहीं कर पाएगा।


जैसे-जैसे बाकी दुनिया पश्चिम के बराबर होती जा रही है, उसकी नियंत्रण और प्रभुत्व की क्षमता कम होती जा रही है। इसी वजह से उसने नियम-आधारित व्यवस्था को त्याग दिया है और विशुद्ध शक्ति का सहारा ले रहा है। यह दुनिया के लिए, खासकर उन देशों के लिए, सबसे खतरनाक समय है, जिन्हें गरीबी से बाहर निकलने के लिए कुछ और दशकों की स्थिरता और वैश्विक सहयोग की आवश्यकता है।

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