संघ परिवार की दूसरी जीत के साथ देश एक दूसरे अंधकार में प्रवेश कर रहा है

लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद अब उन लोगों का और भी बोलबाला होगा जिनकी निगाह में गोमूत्र कैंसर को ठीक करता है, गोबर लीपने से मोबाइल विकिरण के शिकार नहीं होते और पृथ्वी की गुरुत्व तरंगों का सही नाम ‘मोदी तरंग’ होना चाहिए।

फोटोः सोशल मीडिया
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मंगलेश डबराल

बालाकोट नहीं हुआ होता तो बीजेपी चुनाव हार चुकी होती। लेकिन मीडिया के प्रकोप के इस दौर में 16 फरवरी को पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर वायु सेना की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का प्रचार आसानी से गांव-गांव तक हुआ और पिछले काफी समय से हिंदू सांप्रदायिकता के विष पर पल रहे मतदाता के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सीना एक बार फिर 56 इंच का हो गया।

मोदी या बीजेपी के पास पिछले पांच साल की ऐसी एक भी उपलब्धि नहीं थी, समाज और जनता के वास्तविक हित का कोई काम नहीं था, जिसका ढोल बजाकर वोट मांगा जा सकता था। न नोटबंदी और जीएसटी- जैसे अदूरदर्शी और प्राणलेवा फैसलों का जिक्र किया जा सकता था और न नौकरियां देने के झूठे वादे का खोखलापन खोला जा सकता था।

इसलिए युद्धोन्माद का आसान गुर काम में लाने के अलावा कोई चारा नहीं था। हम याद कर सकते हैं कि मोदी ने प्रचार के दौरान ये बातें भी कहीं- ‘अगर पाकिस्तान हमारे पायलट को नहीं लौटाता तो वह कत्ल की रात होती’ और ‘हमने अपना परमाणु हथियार दीवाली के लिए नहीं रखी हुई हैं।’ हार के डर से ही केंद्र सरकार ने बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़ों को जारी नहीं होने दिया, गिरती हुई अर्थव्यवस्था की सूचनाओं का लगातार खंडन किया और अपनी सभी विफलताओं की पर्दादारी करती रही।

यानी दानवीकृत सोच, लंपट भाषा और ‘चुनावी बॉंड्स’ से प्राप्त अपार पैसे के साथ सत्ताधारी पार्टी ने यह चुनाव लड़ा और पिछले कई वर्षों से हो रहे सांप्रदायीकरण, राष्ट्रवाद और अंधश्रद्धा ने आग में घी का काम किया।


उसके सामने कांग्रेस और राहुल गांधी की ‘सच्चाई, ईमानदारी, किसानों की कर्जमाफी, रोजगार और कॉर्पोरेट से संघर्ष’ का विमर्श समाज की जड़ों तक नहीं पंहुच सका। रही-सही कसर विपक्षी दलों में एकता नहीं होने ने भी पूरी कर दी।

मसलन, यह आम धारणा थी कि अगर दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में समझौता हो जाए तो बीजेपी को सात में से एक भी सीट नहीं मिलेगी। दिल्ली और दूसरी जगहों पर भी विपक्ष की एकता संभव हुई होती, वह एक होकर लड़ा होता तो बीजेपी के मंसूबे धरे रह जाते और वह उसी तरह की संगठित हिंसा का सहारा लेती जैसा उसने पश्चिम बंगाल और केरल में घुसपैठ करने के लिए किया।

पश्चिम बंगाल के मतदाता एक हद तक बहकावे में आ गए लेकिन केरल जैसे राज्य में, जहां आम जन के सुशिक्षित होने के कारण एक लोकतांत्रिक विचार हर प्रक्रिया में काम करता दीखता है, बीजेपी को सभी दरवाजे बंद मिले।

संघ परिवार की दूसरी जीत के साथ देश एक दूसरे अंधकार में प्रवेश कर रहा है जो पिछले पांच वर्षों से कहीं अधिक घना और दमघोंटू हो सकता है। संघ परिवार को बुद्धिजीवियों-लेखकों-कवियों-कलाकारों-वैज्ञानिकों की जरूरत पहले भी नहीं रही है और वह बुद्धि-विवेक, न्याय, अर्थ और संस्कृति के लगभग सभी संस्थानों में अपने खास लोगों को, जो अपनी परंपरा के अनुरूप ही ज्ञान-शून्य हैं, काबिज कर चुका है और दुनियाभर में उपहास का पात्र बन चुका है।


इसके साथ ही ऐसे तत्वों और ताकतों की पौ बारह है जो अवैज्ञानिक सोच, अंधश्रद्धा और चाटुकारिता को अपना धर्म मानते हैं और जिन्हें उस सभ्यता-संस्कृति की जरा भी समझ नहीं है जिसका प्रतिनिधि होने का वे दावा करते हैं।

अब उन लोगों का और भी बोलबाला होगा जिनकी निगाह में गोमूत्र कैंसर को ठीक करता है, गोबर लीपने से मोबाइल विकिरण के शिकार नहीं होते और पृथ्वी की गुरुत्व तरंगों का सही नाम ‘मोदी तरंग’ होना चाहिए। शायद अज्ञान के इस अंधकार से पार पाया जा सकता है लेकिन संघ परिवार ने आम जन के भीतर जिस नकली और हिंसक हिंदू को, जिस बर्बर देशभक्त को और प्रायः अशिक्षित मनुष्य के भीतर जिस ‘कुशिक्षित या ‘दुशिक्षित’ को बिठा दिया है, उसे देख कर डर लगता है और यह संविधान और लोकतंत्र पर यकीन रखने वाले सभी दलों की सबसे बड़ी चिंता होनी चाहिए।

हमें सोचना होगा कि हमारे समाज में यह क्या हो गया है, कैसे करुणा समाप्त हुई और उसकी जगह घृणा ने ले ली है कि प्रज्ञा ठाकुर सरीखी आतंक की आरोपी, सनी देओल सरीखे अज्ञानी और तमाम तरह के अपराधी आसानी से चुनाव जीत जाते हैं। यह सोचना एक फौरी राहत ही होगा कि पूरा देश ऐसा नहीं हो गया है, चारों दिशाओं में कुछ कोने बचे हुए हैं और विन्ध्याचल को लांघने के लिए बीजेपी को नाकों चने चबाने पड़ते हैं।

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Published: 25 May 2019, 7:00 PM