पुरुषों की तुलना में महिलाएं जलवायु परिवर्तन को लेकर अधिक सजग, सबसे ज्यादा उन्हीं पर पड़ता है असर

दुनिया में कृषि क्षेत्र में 40 प्रतिशत से अधिक महिलाएं काम करती हैं और घर के संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी भी इन्हीं की है। अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का सबसे अधिक असर कृषि और पानी पर पड़ता है, जिससे महिलाएं अधिक प्रभावित हो रही हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

स्वीडन की एक 16 वर्षीय लड़की, ग्रेटा थुन्बेर्ग ने पूरी दुनिया के स्कूली छात्रों को जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनिया भर की सरकारों की अकर्मण्यता के विरुद्ध आन्दोलन की राह दिखाई है। स्वीडन, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी और फ्रांस होते हुए यह आंदोलन 100 से अधिक देशों में पहुंच चुका है।

दरअसल देखें तो दुनिया भर के एनजीओ, सरकारें और संयुक्त राष्ट्र जो काम नहीं कर सके, वह काम ग्रेटा थुन्बेर्ग ने अकेले कर दिखाया है। हाल में ही इसका नॉमिनेशन नोबेल शांति पुरस्कार के लिए किया गया है। अगर ग्रेटा थुन्बेर्ग को नोबेल पुरस्कार मिलता है तब 16 साल या कम उम्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली दोनों लड़कियां ही होंगी, इससे पहले मलाला को भी लगभग इतनी ही उम्र में नोबेल शांति पुरस्कार मिला था।

लड़कियां और महिलाएं सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति पुरुषों से अधिक गंभीर होती हैं और उनके पास इन समस्याओं का समाधान भी होता है। लेकिन पुरुष वर्चस्व वाला समाज इन्हें कभी मौका नहीं देता। दुनिया भर में जब स्कूली छात्र आंदोलन कर रहे हैं, तब सभी देशों के शिक्षा मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक इसकी भर्त्सना कर रहे हैं और छात्रों से क्लास में लौटने की अपील कर रहे हैं। जर्मनी में भी शिक्षा मंत्री छात्रों के विरुद्ध वक्तव्य दे रहे हैं, लेकिन वहां की चांसलर एंजेला मार्केल, जो महिला हैं, इन आंदोलनों का समर्थन कर रही हैं।

दुनियाभर में कृषि में काम करने वालों में से 40 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं और घर के संसाधनों को जुटाने की जिम्मेदारी भी इन्हीं की है। तमाम वैज्ञानिक अध्ययन यही बता रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का सबसे अधिक असर भी कृषि और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर ही पड़ रहा है। जाहिर है, महिलाएं इससे अधिक प्रभावित हो रही हैं।

सवाल यह उठता है कि क्या महिलाएं जलवायु परिवर्तन को पुरुषों की नजर से अलग देखती हैं। संयुक्त राष्ट्र के इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज में भी महिला वैज्ञानिकों और रिपोर्ट लिखने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ाई गई है, जिससे इससे संबंधित रिपोर्टें केवल वैज्ञानिक ही नहीं रहें बल्कि सामाजिक सरोकारों को भी उजागर करें।

साल 2015 में वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया था कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में जलवायु परिवर्तन को लेकर अधिक सजग हैं और पुरुषों की तुलना में आसानी से अपने जीवनचर्या को इसके अनुकूल बना सकती हैं।

इसका एक उदाहरण विकसित देशों में देखने को मिल भी रहा है। लगातार शिकायतों के बाद अब पश्चिमी देशों की फैशन इंडस्ट्री अपने आप को इस तरह से बदल रही है जिससे उनके उत्पादों का जलवायु परिवर्तन पर न्यूनतम प्रभाव पड़े। अब तो ब्रिटेन समेत अनेक यूरोपियन देशों में महिलाएं नए कपड़े खरीदना बंद कर रही हैं और सेकंड हैंड कपड़ों के स्टोर से कपड़े ले रही हैं।

नवंबर 2018 में येल यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया था कि अमेरिका की महिलाएं जलवायु परिवर्तन का विज्ञान पुरुषों की तुलना में कम समझ पाती हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर पुरुषों से अधिक यकीन करती हैं और यह मानती हैं कि इसका प्रभाव इन तक भी पहुंचेगा।

इसके बाद एक दूसरे अध्ययन में दुनिया भर के तापमान वृद्धि के आर्थिक नुकसान के आकलनों से संबंधित शोध पत्रों के विश्लेषण से यह तथ्य उभर कर सामने आया कि महिला वैज्ञानिक इन आकलनों को अधिक वास्तविक तरीके से पेश करती हैं और अपने आकलन में अनेक ऐसे नुकसान को भी शामिल करती हैं जिन्हें पुरुष वैज्ञानिक नजरअंदाज कर देते हैं या फिर इन नुकसानों को समझ नहीं पाते।

दरअसल केवल तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर ही नहीं बल्कि पर्यावरण के हरेक मसले पर महिलाओं की राय अलग होती है और वे समस्याओं का केवल सैद्धांतिक समाधान ही नहीं बल्कि प्रायोगिक समाधान भी सुझाने में सक्षम हैं, क्योंकि वे इन समस्याओं की अधिक मार झेलती हैं और इन्हें महसूस करती हैं।

साल 1996 में जर्नल ऑफ एनवायरनमेंट एंड बिहेवियर में प्रकाशित एक शोध पत्र में महिलाओं को पर्यावरण के मुद्दे पर आगे बढ़ाने की वकालत की गयी थी। साल 1999 में न्यूजीलैंड में एक सर्वेक्षण से पता चला था कि सभी आयु वर्ग में महिलाएं पर्यावरण को पुरुषों की अपेक्षा अधिक समझती हैं और उनका कार्बन-फुटप्रिंट पुरुषों से कम रहता है।

साल 2014 में यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न द्वारा किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि महिलाएं पर्यावरण को बचाने के लिए अधिक सजग रहती हैं और इस दिशा में जाने-अनजाने अधिक जागरूक रहती हैं। हाल में यूनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का-लिंकन और इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन द्वारा अमेरिका और यूरोप के अर्थशास्त्रियों पर किये गए एक सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि महिला अर्थशास्त्री पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर पुरुषों की अपेक्षा अधिक पैनी नजर रखती हैं।

समय-समय पर दुनिया भर में जनजातियों और वनवासियों पर किये गए अध्ययन से भी यही पता चलता है कि जहां पर्यावरण संरक्षण की कमान महिलाओं के हाथ में है, वहां पर्यावरण के सभी अवयव अपेक्षाकृत अधिक संरक्षित रहते हैं और वनों से होने वाली कमाई का बराबर बंटवारा किया जाता है।

स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रभावों पर महिलाएं अधिक यकीन करती हैं और इसे रोकने के उपाय भी आसानी से सुझा सकती हैं, लेकिन सवाल यह है कि पुरुष प्रधान समाज कब इस तथ्य को समझ पाता है?

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