ख्वाब, हकीकत और उम्मीद के बीच फंसी है आधी आबादी

बतौर समाज महिलाओं के बारे में हमारे नजरिए में क्रांतिकारी बदलाव आ गया, ऐसा कुछ हुआ नहीं। देश तो आगे बढ़ता रहा और महिलाएं भी। मगर साथ-साथ भेदभाव और गैरबराबरियों के नित नए रूप सामने आए। हिंसा का साया नए-नए तरीके से उनका पीछा करता रहा।

फोटोः सोशल मीडिया
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नासिरुद्दीन

भारत की महिलाएं उन चंद देशों में हैं जिन्होंने लगभग सौ साल पहले मर्दों के साथ कांधे से कांधा मिलाकर आजादी के आंदोलन में हिस्सा लिया और जेल गईं। अपने संगठन बनाए। वोट का हक लिया। संविधान में भेदभाव से परे बराबरी का हक हासिल किया। वे मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, प्रधानमंत्री बनीं। उनके हकों की हिफाजत करने के लिए ढेर सारे बेहतरीन कानून बने। कुल मिलाकर ख्वाब था कि दुनिया, भारत की महिलाओं की तरक्की से भारत का विकास नापे।

हालांकि, इन सबके बाद, बतौर समाज महिलाओं के बारे में हमारे नजरिए में क्रांतिकारी बदलाव आ गया, ऐसा हुआ नहीं। देश तो आगे बढ़ता रहा और महिलाएं भी। मगर साथ-साथ भेदभाव और गैरबराबरियों के नित नए रूप सामने आए। हिंसा का साया नए-नए तरीके से उनका पीछा करता रहा।

नीति आयोग की रिपोर्ट बताती है कि जन्म के समय लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या घट रही है। 21 बड़े राज्यों में सिर्फ दो- छत्तीसगढ़ और केरल, को छोड़ सभी सूबों में जन्म के समय लिंग अनुपात, यानी प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या 950 से कम है। पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तराखंड, गुजरात, हरियाणा में तो यह अनुपात 900 से कम है।

मगर क्या घटती बेटियों से बतौर समाज हम कहीं से फिक्रमंद दिख रहे हैं? उत्तराखंड के स्वास्थ्य विभाग के हवाले से एक खबर बताती है कि उत्तरकाशी जिले के 132 गांवों में तीन महीने में 216 जच्चगी हुई और इनमें एक भी बेटी नहीं थी। क्या यह महज इत्तेफाक है?

आइए हम गूगल जी पर एक तलाश करते हैं- ‘नवजात मिली’। फिर हमें इतनी नवजात मिलती हैं कि गिन नहीं पाते हैं। मध्य प्रदेश के देवास में जंगल में नवजात मिली। उदयपुर में पालने में नवजात बच्ची को कोई छोड़ गया। इंदौर में कचरे के ढेर में मिली। हजारीबाग में झाड़ियों में मिली। मेरठ में कूड़े के ढेर पर कुत्तों के सामने पड़ी मिली।... एक के बाद एक खबर पढ़ते जाइए। हम कुछ भी कहें, इसका मतलब साफ है- हम बिटिया मार समाज हैं।

जिस विकास के पीछे हम दीवाना बने हैं, वह विकास बिटियों के वजूद पर काल बनकर नाच रहा है। जो राज्य, इलाका, समाज, समुदाय, परिवार जितनी ज्यादा जमीन-जायदाद और पैसे वाला है, जितना पढ़ा-लिखा है, जहां जितनी ज्यादा एक्सप्रेस-वे, गगनचुंबी इमारतें हैं, वहां बेटियां उतनी ही अनचाही हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट भी यही है। समाज का बड़ा हिस्सा 2019 में भी बेटियों को बराबर का दिमागदार, उपयोगी, आजाद शख्सीयत वाला बराबर का इंसान मानने को तैयार नहीं है।


बराबर का इंसान?

बराबरी का रिश्ता सिर्फ पैदा होने देने की कृपा से नहीं है, बल्कि वह बराबरी जो संविधान ‘हम भारत के सभी लोगों’ को देने की गारंटी करता है। इसलिए, बराबर के इंसान का मतलब है कि महज यह जानकर एबॉर्शन न हो कि वह कन्या का रूप ले सकती है- यानी पैदा होने का हक। बराबरी की परवरिश, पढ़ने-लिखने, अपनी मनमर्जी से आने-जाने, कपड़ा पहनने, काम करने, रहने, मन मर्जी से साथी चुनने या साथी न चुनने, बेखौफ-बेखटक कहीं भी आने-जाने की आजादी, घर या घर के बाहर, स्कूल में या नौकरी की जगह पर हर तरह के भेदभाव से मुक्ति। क्या हम ऐसा विकास वाला भारत की महिलाओं को दे पाए हैं?

किसी भी तरह के इंसानी विकास के लिए सबसे जरूरी है- खौफ से आजादी। सन 2018 में थॉमसन रॉयटर फाउंडेशन ने दुनिया भर के विशेषज्ञों का सर्वेक्षण किया। इसका मकसद यह पता करना था कि कौन-कौन से देश हैं जो महिलाओं की जिंदगी के लिहाज से खतरनाक हैं।

इस सर्वे ने बताया कि 2018 में महिलाओं के लिहाज से भारत दुनिया का सबसे खतरनाक देश है। खासतौर पर यौन हिंसा, उत्पीड़न सबसे ज्यादा है। उनकी जिंदगी पर संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाजों के नाम पर खतरा मंडराता रहता है। उनके साथ तस्करी, यौन दासी, जबरिया मजदूरी और घरेलू गुलामी का खतरा बहुत ज्यादा है। यह मर्दाना राष्ट्रवाद की बात करने वाले देश का हाल है।

और ध्यान रहे अगर पहले पर भारत है, तो दसवें पर वह शक्तिशाली अमेरिका है जो हमारे देश के बड़े तबके के लिए ‘आर्थिक विकास’ का आदर्श नमूना है। यह सर्वे इसलिए भी अहम है क्योंकि दुनिया भर के लीडरों ने यह शपथ ले रखी है कि 2030 तक हम महिलाओं के साथ होने वाली हर तरह की हिंसा और भेदभाव खत्म कर देंगे। 2030 में अब साढ़े दस साल बचे हैं।

...तो खतरों को नेस्तनाबूद करने की हमारी प्रगति की रफ्तार क्या है?

ध्यान होगा, पिछले कुछ महीनों में छोटी बच्चियों के साथ यौन हिंसा की खबरों की बाढ़ आ गई थी। फिर भी, इनसे बचैन होकर बड़े समाज की नींद तो कतई नहीं उड़ी। सुप्रीम कोर्ट का भी ध्यान इस ओर गया। उसने छह महीने के अंदर बच्चियों के साथ हुई यौन हिंसा की घटनाएं इकट्ठा करवाईं। सुप्रीम कोर्ट के पास आई रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल एक जनवरी से 30 जून के दरम्यान बच्चे-बच्चियों के साथ यौन हिंसा की 24,212 एफआईआर दर्ज हुईं। इनमें 12,231 में आरोप पत्र दाखिल हुए। केस की सुनवाई सिर्फ 6,449 मामलों में शुरू हुई। 911 मामलों में ही केस की सुनवाई पूरी हो पाई। यह कुल दर्ज मुकदमों का महज चार फीसदी है। 11,981 मामलों CSX अभी पुलिस की जांच चल ही रही है। अब सुप्रीम कोर्ट इस पूरे मामले की एक याचिका के तौर पर सुनवाई कर रहा है।

साफ है, इंसाफ की डगर बहुत कठिन है। यौन हिंसा के खिलाफ आवाज बुलंद करना यानी जिंदगी को दांव पर लगा देना है। बिहार के शेल्टर होम में रहने वाली लड़कियों का ही मामला लिया जाए। सड़क पर हंगामा करने से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गुहार लगानी पड़ी। तब जाकर इंसाफ देने वाली व्यवस्था हरकत में आई। जम्मू-कश्मीर के कठुआ में एक बच्ची के साथ बलात्कार के आरोपितों के पक्ष में चला मजबूत अभियान भी हमारी नजरों के सामने है। मेरठ में बलात्कार की शिकार बेटी को इंसाफ दिलाने के लिए लड़ते किसान पिता को जान देनी पड़ी।


उन्नाव की बेटी का हाल हम सब देख रहे हैं। इंसाफ के लिए उसे अपने परिजन खोने पड़ रहे हैं। खुद उसकी जिंदगी दांव पर लगी है। तो अगर महिलाओं की जिंदगी के हर पड़ाव की पड़ताल शुरू की जाए तो हमारे पास सच्ची कहानियों की भरमार लग जाएगी। वे सब इस बात की गवाही देंगे कि चले चलो, तरक्की की मंजिल अभी नहीं आई है।

इन सबके बावजूद सब काला-काला नहीं है। हमारे इसी देश में चंद्रयान 2 की टीम लीडर मुथैया वनीता, रितु करीधाल- जैसी महिला वैज्ञानिक हैं और इस पूरी टीम की लगभग 30 फीसदी हिस्सा महिलाएं हैं। सारी बाधाओं को पार करती हुईं फर्राटा भर रही हिमादास हैं, तो हौसले की मिसाल मैरीकाॅम हैं। नेट के आर-पार जोश से भरपूर सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, पीवी सिंधू हैं। अखाड़े में दांव दिखातीं फोगट बहनें हैं। ...और हजारों की तादाद में छोटे शहरों में झुंड की झुंड साइकिल पर भागती स्कूल जाने वाली लड़कियां हैं, जो सुकुन देता है।

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