बेरोजगारी और महंगाई से त्रस्त महिला वोटरों ने कर्नाटक में पलट दी बाजी!

कर्नाटक में कांग्रेस की नई सरकार ने हाल के चुनाव में स्पष्ट मिलने के बाद शासन की बागडोर संभाल ली है। विधानसभा के हाल के नतीजों के अलावा कई अन्य चुनावों में भी महिला वोटरों की भूमिका नतीजों को प्रभावित कर रही हैं।

कर्नाटक चुनाव में महिला वोटरों की भागीदारी से चुनावी नतीजों पर काफी प्रभाव पड़ा है (फोटो : Getty Images)
कर्नाटक चुनाव में महिला वोटरों की भागीदारी से चुनावी नतीजों पर काफी प्रभाव पड़ा है (फोटो : Getty Images)
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रश्मि सहगल

चुनाव में कौन सी पार्टी जीतेगी, यह तय करने में महिलाएं एक निर्णायक ताकत बन गई हैं। महिला शक्ति चुनावों में क्या कुछ कर सकती है, इसका सबसे ताजा उदाहरण कर्नाटक में कांग्रेस की बेहतरीन जीत सुनिश्चित करने में उसकी भूमिका है। 

चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, कर्नाटक में पंजीकृत महिला मतदाताओं की संख्या 2.59 करोड़ के आंकड़े को पार कर गई है, जबकि पुरुष मतदाताओं की संख्या 2.62 करोड़ है। महिलाओं का वास्तविक मतदान भी अच्छा-खासा रहा। इस बार 72.7 फीसदी महिलाओं ने मतदान किया जबकि पुरुषों ने 73.68 फीसदी। इससे भी दिलचस्प तथ्य यह है कि 224 विधानसभा सीटों में से आधी यानी 112 पर महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक है।

महिलाओं के ऐसे भारी मतदान के बारे में एनजीओ ‘पॉलिटिकल शक्ति’ की सह-संस्थापक और राजनीतिक विश्लेषक तारा कृष्णास्वामी कहती हैं- ‘महिलाओं की फौरी चिंता अपने परिवारों को भूख से आजादी दिलाने की है। बढ़ती बेरोजगारी के साथ परिवार बेहद तनाव का सामना कर रहे हैं। 2013 में जब सिद्धारमैया कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने महिलाओं को ध्यान में रखकर तमाम उपाय किए जिससे हर घर तक मदद पहुंचे।’ तब गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को 5 किलो चावल दिया जा रहा था। इसके साथ ही मुफ्त चिकित्सा देखभाल और मातृत्व लाभ के लिए ‘अन्न भाग्य योजना’ और सब्सिडी वाले भोजन के लिए इंदिरा कैंटीन भी चल रही थी। 

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बीजेपी ने इंदिरा कैंटीन को बंद कर दिया, अन्न भाग्य योजना रोक दी और चावल की मात्रा को घटाकर 3 किलो कर दिया। लेकिन जब कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा, महिला नेतृत्व वाले परिवारों के लिए 2,000 रुपये की मासिक सहायता, बीपीएल परिवारों के लिए 10 किलो अनाज और 200 यूनिट मुफ्त बिजली की घोषणा की, तो महिलाओं के लिए उन वादों पर यकीन नहीं करने की कोई वजह नहीं थी। कृष्णास्वामी कहती भी हैं, ‘महिलाओं ने इस तरह की योजनाओं को पहले लागू होते देखा था इसलिए उन्होंने कांग्रेस की बातों पर भरोसा किया।’ उनकी नजरों में बीजेपी संदिग्ध हो गई थी, हालांकि उसने भी तमाम चुनावी वादे किए थे।

शिवाजी नगर में घरेलू कामकाज करने वाली सरोजिनी का कहना है किा, ‘बीजेपी ने बेरोजगारी की रोकथाम के लिए कुछ नहीं किया और उसे कीमतों में बढ़ोतरी की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। इससे भी बुरी बात यह है कि उन्होंने श्रम कानूनों को बदल दिया है और श्रमिकों से पहले के 8 घंटे के बजाय अब 12 घंटे काम कराया जा रहा है। बीजेपी सरकार जो दूसरा ही कानून लेकर आई, वह था लव जिहाद कानून।’


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बढ़ती बेरोजगारी से सीधे-सीधे तो महिलाएं प्रभावित थीं ही, इसके अलावा उन्होंने इसका साइड इफेक्ट भी झेला। कर्नाटक में घरेलू हिंसा के मामलों में 42 फीसदी का इजाफा देखा गया जिससे यह भारत में घरेलू हिंसा के नजरिये से सबसे ज्यादा मामलों वाला राज्य बन गया है। बच्चों में कुपोषण और बौनेपन के मामलों में भी पिछले पांच सालों में यहां खासी वृद्धि देखी गई है।

कर्नाटक में महिलाएं राजनीतिक अस्थिरता को बेहद नापसंद करती हैं क्योंकि इसका सीधा असर उनकी आय पर पड़ता है। हिजाब-हलाल प्रतिबंध के साथ हिन्दुत्व प्रेरित हिंसा और हिन्दू मंदिर क्षेत्रों से मुस्लिम व्यापारियों को बाहर निकालने से सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ लोगों में नाराजगी थी। 

अवेक्षा फाउंडेशन दलित और अल्पसंख्यक समुदायों की बेहतरी पर काम करने वाला गैरसरकारी संगठन है। इसमें काम करने वाली सोनिया फर्नांडीस का मानना है कि नई सरकार को बेहतर शासन देने पर ध्यान लगाना होगा ताकि इन हाशिए के समूहों के खिलाफ हिंसा कम हो सके। वह कहती हैं, ‘हिंसा के अपराधियों को सजा मिलनी चाहिए। हम यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे हैं कि (अल्पसंख्यक) बेहतर शासित हों और अपने नागरिक अधिकारों के प्रति ज्यादा जागरूक भी।’ 

गौर करने वाली बात है कि बीजेपी को न केवल एसटी के लिए आरक्षित सभी सीटों पर शिकस्त खानी पड़ी जो आदिवासी समुदायों में बीजेपी की नीतियों के प्रति असहमति को दिखाता है बल्कि भगवा दल ने कल्याण कर्नाटक क्षेत्र में भी जमीन सूंघी, जो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का गृह क्षेत्र है। और हां, यह भी ध्यान देने की बात है कि दलित समुदायों की महिलाएं बड़ी संख्या में कांग्रेस को वोट देने के लिए बाहर निकलीं।

बेंगलुरु के बाहर रेस्तरां चलाने वाली दीपाली सिकंद का मानना है कि ग्रामीण महिलाओं की मांग थी कि सरकार उन्हें बेहतर प्रतिनिधित्व, बेहतर सेवा दे और स्वास्थ्य सेवा में भी सुधार हो। इसी को देखते हुए कांग्रेस ने ग्रामीण कर्नाटक से छह महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा जिनमें बगलकोट से कुसुमा एच. हिरेमन्थ, बेल्लारी से ज्योति प्रिया गुट्टेदार और बेंगलुरु से लक्ष्मी हेब्बलकर शामिल हैं।


शहरी बेंगलुरु में महिला मतदाता बीजेपी का पक्ष लेती दिखीं जिसकी वजह से कांग्रेस की दो के मुकाबले बीजेपी को पांच सीटें मिलीं। इंदिरानगर की रहने वाली लेखिका और चुनावी वोटिंग पैटर्न पर बारीक नजर रखने वाली श्रीलता मेनन का मानना है, ‘शिक्षित शहरी महिलाओं को महसूस होता है कि उन्हें काफी कुछ हक मिला हुआ है, इसलिए वे भाजपा के साथ पहचान बनाती हैं। लेकिन ग्रामीण महिलाएं तो अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए सरकारी सेवाओं पर निर्भर हैं।'

महिलाओं के वोट अब कई राज्यों में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं। बिहार की उन महिलाओं का उदाहरण लें जिन्होंने लगातार तीन चुनावों में नीतीश कुमार का साथ दिया। नीतीश के प्रति महिला मतदाताओं की निष्ठा इतनी मजबूत है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत लगभग 60 था जबकि पुरुषों के मामले में यह आंकड़ा 54.68 प्रतिशत ही था। हकीकत तो यह है कि कुल 243 निर्वाचन क्षेत्रों में से 166 में महिला मतदाताओं का मतदान पुरुषों से अधिक था और एनडीए ने इनमें से 99 सीटों पर जीत दर्ज की। 

नीतीश ने पंचायत और नगर निकायों में महिलाओं को 50 फीसदी कोटा देने के अलावा खास तौर पर महिलाओं को ध्यान में रखते हुए तमीम गरीबी उन्मूलन योजनाएं शुरू कीं और इनके बूते उन्हें महिला वोटरों का समर्थन हासिल हुआ। 

दक्षिण में महिला मतदाताओं को लुभाने की शुरुआत 1982 में बड़े पैमाने पर हुई जब तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम जी रामचंद्रन ने स्कूली बच्चों के मौजूदा मिड-डे मील भोजन को ‘न्यूट्रिशियस नून डे मील’ के नाम से अपग्रेड किया। यह योजना 68 लाख बच्चों तक पहुंची जो कुपोषित पाए गए। आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री एन टी रामा राव ने भी महिला सशक्तिकरण की तमाम योजनाएं शुरू कीं जिससे उनका वोट बैंक भी सुरक्षित हो सका। 

2021 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की शानदार जीत में भी महिला मतदाताओं ने अहम भूमिका निभाई। ममता के लिए, उनकी जीत बेहद खास थी क्योंकि उनके खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चलाया था। ममता ने इस बात को ध्यान में रखते हुए कि वोटरों में 48.5 फीसद महिलाएं हैं, 250 से ज्यादा कल्याणकारी योजनाएं शुरू कीं। नतीजा यह हुआ कि तृणमूल कांग्रेस का वोट शेयर 40 फीसदी से बढ़कर 48 फीसदी हो गया जबकि भाजपा का वोट शेयर 40 फीसदी से घटकर 37 फीसदी रह गया।

वैसे तो चुनाव आयोग ने अब तक कर्नाटक के लिए प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में महिलाओं के वोट प्रतिशत का ब्रेक-अप नहीं दिया है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि महिला मतदाताओं ने हिन्दुत्व की दुकान से नफरत खरीदने से इनकार कर दिया। महिला मतदाता गेम चेंजर बन गई हैं और अब कोई भी पार्टी उन्हें हल्के में नहीं ले सकती।

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