अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष: महिला सशक्तिकरण के नाम पर बनी योजनाओं का हाल, मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की

नोटबंदी और तालाबंदी की वजह से नौकरियों की तादाद में और असंगठित क्षेत्र से महिलाओं को मिल रही कमाई में कमी आई है, तब से बेटों-बेटियों को लेकर माता-पिता, दादा-दादी सभी का सोच दोबारा कठोर, पितृसत्ताक और पक्षपाती बन रहा है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

कहते हैं कि एक बार बीरबल ने एक मूर्ख को महल के सामने मशालों के उजाले में कुछ खोजते देखकर उससे पूछा, कि वह क्या खोज रहा है? जवाब मिला, घर पर सुई खो गई थी, वही खोजता हूं। बीरबल ने कहा, तो यहां काहे खोज रहे हो, जहां खोई थी, उसी जगह जाकर काहे नहीं खोजते? जवाब मिला, जनाब घर पर तो बड़ा अंधेरा है, सोचा जहां उजाला है, वहीं खोजना चाहिए। अपने यहां भी इस समय यही मानसिकता महिला सशक्तीकरण के नए तरीकों या पुलिस सुधारों की सफलता के आड़े आ रही है। आज जमीनी धूल-धक्कड़ खाकर समस्या की जड़ों की बाबत खोजबीन नहीं होती। पीड़ित वर्ग के बीच बैठकर उनसे विचार-विमर्श भी नहीं होता। चंद वातानुकूलित कमरों में बैठे केंद्रीय स्तर के कुछ ज्ञानी हर राज्य में गरीबी निवारण, महिला या बाल सशक्तीकरण, किसानी के सुधार या पिछड़ों को कैश मदद की बाबत योजनाएं बनाते हैं। और फिर मीडिया में उनका गला फाड़ प्रचार किया जाता है। जिस तरह पुलिस विनम्रता सप्ताह मनाने से पुलिस अधिक विनम्र नहीं हो जाती और हिंदी दिवस मनाने से हिंदी अधिक समृद्ध और स्वीकार्य नहीं बनती, उसी तरह हर आठ मार्च को महिला दिवस मनाकर और चुनाव घोषणा पत्रों में अपने महिला सशक्तीकरण के नए-पुराने कार्यक्रमों को समर्थन की घोषणा मात्र से महिलाओं की दशा नहीं सुधरेगी।

निर्भया रेप कांड के बाद रेप तथा यौन उत्पीड़न के कानूनों में सुधार किए गए। विशाखा निर्देशों की तहत हर दफ्तर में महिला कर्मियों के यौन उत्पीड़न प्रकरणों की तुरत जांच तथा कार्रवाई के सेल भी बने, लेकिन 2021 तक उनका कितना असर हुआ? अभी हाल में एकाधिक बार बचपन में कई बार रेप का शिकार बनी किशोरी ने जब न्याय की गुहार की तो रेपिस्ट से पूछा गया कि अगर वह अपने बलात्कार की शिकार से शादी को राजी है तो उसे अपराध से बरी किया जा सकता है। यह बात और है कि अपराधी विवाहित और सरकारी कर्मचारी था, अत: उसने शादी से इनकार कर दिया और जेल भेज दिया गया। लेकिन पीड़िता से यह पूछने की जहमत नहीं उठाई गई कि क्या इतनी जलालत भोग चुकने के बाद वह अपने बलात्कारी से शादी करना चाहेगी?


दूसरा किस्सा पश्चिम बंगाल चुनावों का है। भाजपा के एक मंत्री ने ममता ‘दीदी’ पर तंज कसते हुए इस आशय का कुछ सोशल मीडिया पर कहा कि हमारे यहां लड़की तो बस पराया धन होती है, उसे तो घर से विदा होना ही है। जब मामले ने तूल पकड़ा तो मंत्रीजी ने सफाई देते हुए कहा, उनका आशय नकारात्मक नहीं था। वह तो खुद दो बेटियों के पिता भी हैं। तकलीफ यही है कि लोग बेटियों के पिता होते हुए भी बेटियों को पराया धन और बेटों को कुल दीपक मानने वाली बुनियादी मानसिकता नहीं त्यागते। इसी का नतीजा यह है कि कई कार्यक्रमों के बावजूद हर राज्यमें महिलाओं की गरीबी तथा बेरोजगारी दर पुरुषों से अधिक तेजी से बढ़ी है। एक के बाद एक भीषण हिंसात्मक रेप के मामले भी सामने आ रहे हैं। और (लिंग परीक्षण पर कानूनी रोक के बाद भी) चोरी-छुपे जांच तथा गर्भपात की राह खुली रहने से गांव-शहर हर कहीं लड़कियों की जन्मदर लगातार कम हो रही है। संयुक्त राष्ट्र संगठन की सालाना (जेंडर दशा सूचक फेहरिस्त) की मानें तो महिलाओं के खिलाफ पुरुषों में नकारात्मक पूर्वाग्रह भी बढ़ा है। 2016 तक राष्ट्रीय लैंगिक औसत में 1000 लड़कों के बरक्स लड़कियों का अनुपात 896 पर आ गया था जबकि इस बीच तमाम तरह की सरकारी महिला समृद्धि और विकास योजनाएं घोषित होती रहीं।

दरअसल जैसा बीरबल ने कहा, जो चीज जहां खोई है, उसे उसी जगह पर जाकर खोजने से बरामदगी होगी। चुनाव काल में या संसदीय चर्चाओं के बीच सरकार तथा विपक्ष के कई लैंगिक पूर्वाग्रह ग्रस्त बयानों से महिला वर्ग असंतुष्ट हुआ। क्योंकि इसी बीच उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश जैसे राज्य लव जिहाद या वैलेंटाइन डे पर युवाओं के खिलाफ मारपीट और कानूनी निषेध पर उतारू दिखते रहे। रेप के नृशंस मामलों में पुलिस की पड़ताल में कई छेद उजागर हुए। लड़कियों के संचरण पर पुलिसिया निगरानी रखी जाने लगी। कुछ युवा महिला पत्रकारों को शक की बिना पर बिना जमानत के जेल में भेजा गया जो बाद को रिहा की गईं। इस घटनाक्रम से परिवारों में भी महिलाओं को लेकर सदियों पुराने मनुवादी विचार बल पा रहे हैं। और नए कानूनों, योजनाओं के बावजूद लड़कियों या महिलाओं पर परिवारों की पारंपरिक और अलोकतांत्रिक दकियानूस जकड़ बढ़ रही है।


बेशक लड़कियों की बेहतरी के लिए सरकार द्वारा आवंटित विशेष आर्थिक मदद, लैपटॉप, सिलाई मशीन या सायकिल जैसी मदद घोषित हो रही है। पर अधिकतर कम आय वाले परिवार तुरत उनको लपक कर उसका प्रयोग शादी ब्याह या दहेज के लिए कर रहे हैं। इधर जब से नोटबंदी और तालाबंदी की वजह से नौकरियों की तादाद में और असंगठित क्षेत्र से महिलाओं को मिल रही कमाई में कमी आई है, तब से बेटों-बेटियों को लेकर माता-पिता, दादा-दादी सभी का सोच दोबारा कठोर, पितृसत्ताक और पक्षपाती बन रहा है। एक तरह का पूर्वाग्रह कम दिखे भी, तो हम पाते हैं कि एक अन्य तरह का पूर्वाग्रह सतह पर झलकने लगा है। शिक्षा को ही लें। छात्रों के अधबीच पढ़ाई छोड़ने की बाबत सरकार से अपेक्षित आंकड़े तो उपलब्ध नहीं, पर अशोका विश्वविद्यालय के ताजा शोध के अनुसार, कोविड की तालाबंदी के बाद परिवारों की तंगी बढ़ी तो पहली कटौती का शिकार बना है लड़कियों का स्कूल-कॉलेज जाना। इसी तरह हरियाणा सरकार ने आबादी कम करने की मुहिम (देवी रूपक योजना) की तहत प्रति परिवार एक ही बच्चा पैदा करने पर एक लड़की वाले परिवारों को 500 रुपये प्रतिमाह और एक लड़के वाले परिवारों को 200 रुपये प्रतिमाह की प्रोत्साहन राशि देने की घोषणा की थी। इसके बाद भी अधिकतर पारंपरिक मानसिकता से ग्रस्त लाभार्थी परिवारों ने उनके घर का इकलौता बच्चा तो बेटा ही हो, इस कामना से लिंग परीक्षण का सहारा लिया। प्रमाण यह, कि (विश्वबैंक के) 2018 के आंकड़ों के अनुसार वहां कुल एक बेटे वाले परिवार 11 फीसदी निकले जबकि एक बेटी वाले परिवार 5 फीसदी पर थे। यही हाल ‘अपनी बेटी अपना धन’ तथा ‘हमारी बेटी’ योजना का हुआ। उनकी तहत 18 वर्ष तक अनब्याही हर बेटी के माता-पिता को उसके शैक्षिक भविष्य को संवारने के लिए 25 हजार रुपये की राशि आवंटित करने का फैसला लिया गया। पाया यह गया कि 18 की होते ही अभिभावक राशि तो ले लेते थे, पर उसे लड़की की शादी के वक्त होने वाले खर्चे के लिए जमा कर देते थे।

महिला सुरक्षा सशक्तीकरण मुहिम की सफलता के लिए लोकल पुलिस-प्रशासन द्वारा सही कार्यान्वयन तथा फालोअप का कितना महत्व होता है, यह रेखांकित करने की जरूरत नहीं। महिलाएं आसानी से यौन उत्पीड़न या पारिवारिक हिंसा की वारदात दर्ज करा सकें इसलिए महिला पुलिसवाले थाने भी खोले गए। लेकिन हाल की शोध में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने पाया कि लोकल पुरुषों तथा पुलिस विभाग के कुछ रसूखदार लोगों के दबाव से थानों में अधिकतर गरीब महिलाओं की शिकायतों पर प्राथमिकी दर्ज नहीं होती। हाथरस केस भी इसकी तसदीक करता है। ऐसी कुल वारदातों में से महिलाएं सिर्फ 30 फीसदी मामले ही दर्ज करा पाती हैं। और वे सभी सामान्य महिलाएं भी नहीं। हाल में तमिलनाडु से खबर आई कि वहां एक आईपीएस महिला पुलिस कर्मी द्वारा अपने बॉस के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत को विभागीय पुरुषों ने दबवा दिया। इसके बाद भी जब प्रिया रमानी की तरह कोई महिला चरित्रहनन और सामाजिक लोक-लाज पर छींटाकशी के तमाम खतरे उठा कर अपने साथ हुई वारदात को कुछ बरस बाद दर्ज कराएं तो बचाव पक्ष के वकील पूछते हैं कि कथित घटना और उसकी रपट लिखवाई में इतना विलंब क्यों हुआ? यानी कि जबरा मारे भी, और रोने भी नदे। सो इस 8 मार्च को हमारी पाठकों से यही अपील है कि अगर वे महिलाओं की बराबरी और मानवाधिकार बहाली के सच्चे हिमायती हैं, तो बीरबल के मूर्ख की तरह जहां घटना हुई है, उससे दूर जाकर सुविधावादी फुर्सती पड़ताल से बाज आएं। एक सीधा संदेश लोकतांत्रिक राज-समाज को मिले कि आज की कामकाजी महिलाएं पुरानी पीढ़ी से फर्क हैं। वे पारिवारिक या सरकारी दबाव से अपना मुंह बंद नहीं रखेंगी, भले ही उत्पीड़क कितने ही बड़े ओहदे पर क्यों न हो।

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