भाषा और विज्ञापनों में बदलाव के जरिये लैंगिक समानता की ओर दुनिया, भारत को भी करनी होगी पहल

समाज विज्ञानी लंबे समय से कहते रहे हैं कि भाषा से समाज में बड़े बदलाव आ सकते हैं। समाज को आगे ले जाने के लिए लैंगिक समानता की जरूरत है, पर इसके लिए नए प्रयास करने होंगे। एक रिपोर्ट के अनुसार परंपरागत तरीके से इसे समाप्त करने में विश्व को अभी 130 साल लगेंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

ऑक्सफोर्ड रिसर्च इन इनसाइक्लोपीडिया ऑफ कम्युनिकेशन में कार्यरत मिशेल मेनेगात्ति और मोनिका रुबिनी के अनुसार, “भाषा समाज में लैंगिक असमानता को बढाने का सबसे सशक्त माध्यम है, भाषा से ही समाज में लैंगिक असमानता पनपती है और फिर बढ़ती जाती है। जिन देशों में भाषा लिंग सूचक नहीं है या कम है, वहां लैंगिक समानता अधिक है।”

शायद इसी कथन से प्रभावित होकर अब बहुत सारे पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों में भाषा में ऐसा बदलाव करने की बात की जा रही है, जिससे लिंग का पता नहीं चलता हो। कैलिफ़ोर्निया के बर्कले शहर में शहरी निकाय, बर्कले सिटी काउंसिल ने भी अब उन शब्दों को बदलने का निर्णय लिया है, जिससे पुरुष या स्त्री की भनक लगती है।

बर्कले सिटी काउंसिल के नए आदेश के अनुसार अब सीवरेज तंत्र के जो मैनहोल होते हैं उन्हें मेंटेनेंस होल कहा जाएगा, मैनपॉवर को वर्कफोर्स या ह्यूमन एफर्ट, पोलिसमेन या पोलिसवीमेन को पुलिस ऑफिसर, फायरमेन को फायरफाइटर्स कहा जाएगा। कौंसिल के सदस्य, रिगेर रॉबिनसन, के अनुसार भाषा बहुत महत्वपूर्ण है और यह कदम हालांकि समाज में व्याप्त लैंगिक असमनाता की दृष्टि से बहुत छोटा है, पर इसका प्रभाव होगा।

रॉबिनसन ने ही इस पूरे आदेश को लिखा है। इस आदेश पर प्रतिक्रिया भी मिली-जुली रही है। अधिकतर नागरिकों ने जहां इसका स्वागत किया है, वहीं कुछ लोग इससे नाखुश भी हैं और कुछ तो रॉबिनसन को जान से मारने की धमकी भी दे रहे हैं। बर्कले में वाचमैन अब गार्ड कहे जाते हैं, फ्रेटर्नल अब सोशल है, भाई/बहन अब सिबलिंग (सहोदर) हैं, मैनकाइंड अब ह्यूमैनिटी है, मैनमेड अब सिंथेटिक/ह्यूमनमेड है और ही/शी (he/she) के लिए दे (they) है।

शब्दों की सूची लंबी है। लैंगिक समानता के लिए यह निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण कदम है। समाज विज्ञानी लंबे समय से बताते रहे हैं कि भाषा से आप समाज में बड़े बदलाव ला सकते हैं। लैंगिक समानता की समाज को आगे ले जाने के लिए जरूरत है, पर इसके लिए नए प्रयास करने ही होंगे। पिछले वर्ष वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार परंपरागत तरीके से लैंगिक असमानता समाप्त करने में विश्व को अभी 130 वर्ष लगेंगे।


भाषा में कुछ हद तक तो लैगिक समानता का सभी प्रयास कर रहे हैं, जिसके तहत चेयरमैन अब अधिकतर जगह चेयरपर्सन बन गए हैं, एक्ट्रेस अब एक्टर हैं और पोएटेस अब पोएट हैं। पर बर्कले सिटी काउंसिल जैसे प्रयासों में तेजी लानी होगी। इस वर्ष विंबलडन टेनिस से महिला खिलाड़ियों के लिए मिस और मिसेज संबोधन हटा दिया गया है, फ्रेंच ओपन से यह पहले ही हट चुका है। अधिकतर महिला टेनिस खिलाड़ियों और कुछ पुरुष खिलाड़ियों ने भी इस कदम की सराहना की है।

इंग्लैंड की एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ने विज्ञापनों के लिए नए कानून बनाए हैं। इसके अनुसार आप विज्ञापनों में महिलाओं या पुरुषों को समाज में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार नहीं दिखा सकते हैं। जैसे समाज मानता चला आ रहा है की महिलाएं घर का काम करेंगी, बच्चे देखेंगी या फिर खाना पकाएंगी।

हाल ही में महिलाओं को परंपरागत भूमिका में दिखाने के चलते पहली बार दो विज्ञापनों को रोक दिया गया है। एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी के अनुसार परंपरागत भूमिका में दिखाने पर लोगों की समाज की मानसिकता में बदलाव मुश्किल है और महिलाएं अपने आप को भी उसी नजरिये से देखने लगती हैं और नई भूमिका अपनाने में हिचकिचाती हैं। ऐसे विज्ञापनों को देखकर बच्चे भी महिलाओं और पुरुषों की भूमिका के बारे में वही परंपरागत राय बना लेते हैं।

अफ़सोस यह है कि हमारे देश में इस तरह के कदम नहीं उठाए जाते। मिचेल मेनेगात्ति और मोनिका रुबिनी के अनुसार जिन देशों में भाषा लिंग सूचक नहीं है या कम है, वहां लैंगिक समानता अधिक है। इक्वल मीजर्स-2030 नामक एक गैर-सरकारी संस्था ने सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स जेंडर इंडेक्स नामक रिपोर्ट को जून, 2019 में प्रकाशित किया है। सयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स में लैंगिक समानता भी शामिल है और 193 देशों ने, जिसमें भारत भी शामिल है, इसपर हस्ताक्षर किये हैं।


इसके अनुसार 2030 तक हरेक देश को अपने यहां लैंगिक असमानता समाप्त करना है। इक्वल मीजर्स 2030 ने इसी सन्दर्भ में 2018 के दौरान 129 देशों में लैंगिक समानता के आकलन के आधार पर एक इंडेक्स तैयार किया है। इस इंडेक्स के अनुसार 129 देशों की सूची में भारत 95वें स्थान पर है और इसे 56.2 अंक दिए गए हैं। यहां यह जानना आवश्यक है कि 59 तक अंक पाने वाले कुल 60 देश लैंगिक समानता के सबसे निचले सिरे पर हैं।

अंकों की बात करें तो भारत तो 129 देशों के औसत अंक, 65.7, के आसपास भी नहीं पहुंचता है। सूची में चीन, श्रीलंका और भूटान क्रमशः 74, 80 और 90वें स्थान पर हैं, यानि भारत से अच्छी स्थिति में हैं। म्यांमार, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान भारत से भी नीचे हैं और इनका स्थान क्रमशः 98, 102, 110 और 113 है।

यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम के जेंडर इंडेक्स में कुल 189 देशों में भारत 130वें स्थान पर है, जबकि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के जेंडर गैप इंडेक्स में भारत 149 देशों में 108वें स्थान पर है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के इंडेक्स में महिलाओं के आर्थिक विकास और भागीदारी में तो हम कुल 149 देशों में 142वें स्थान पर पहुंच जाते हैं। जाहिर है, हमारी स्थिति लैंगिक समानता के सन्दर्भ में निकृष्ट स्तर पर पहुंच चुकी है। ऐसे में हरेक संभावित स्थान पर इसकी पहल करनी पड़ेगी, चाहे वह भाषा हो, कला हो, शिल्प हो, बच्चों की पाठ्य पुस्तकें हों या फिर विज्ञापन हो।

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