पर्यावरण के मामले में दुनिया भर में आन्दोलन का साल रहा 2018, लेकिन भारत में नहीं हुआ कुछ विशेष

2018 को दुनिया के कई देशों में पर्यावरण से जुड़े आन्दोलनों के लिए लंबे समय तक याद किया जाएगा। लेकिन दुनिया का सबसे प्रदूषित देश होने के बाद भी भारत में आन्दोलन के नाम पर सिर्फ किसानों के एक आन्दोलन और तूतीकोरिन पर प्रदर्शन को छोड़कर कुछ विशेष नहीं हुआ।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

साल 2018 को दुनिया में पर्यावरण से संबंधित आन्दोलनों के लिए लंबे समय तक याद किया जाएगा। इस साल इंग्लैंड समेत अनेक यूरोपीय देशों में और ऑस्ट्रेलिया में पर्यावरण बचाने में सरकार की विफलता के विरुद्ध बड़े आन्दोलन किये गए। ऑस्ट्रेलिया में प्रधानमंत्री के अनुरोध को नकारकर स्कूली बच्चे आन्दोलन के नायक बन गए। पोलैंड में दिसंबर में जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए विश्व सम्मलेन के दौरान जितने गैर-सरकारी संगठन एकत्रित हुए थे, उन्होंने सामूहिक तौर पर कहा कि इस मुद्दे पर अब दुनिया भर में आन्दोलन किया जाएगा।

इन सबके बीच, दुनिया के सबसे प्रदूषित देश होने के बाद भी भारत में आन्दोलन के नाम पर किसानों के एक बड़े आन्दोलन और तूतीकोरिन के खिलाफ आन्दोलन को छोड़कर कुछ विशेष नहीं हुआ। हमारे देश में आन्दोलन के बदले गंगा सफाई के नाम पर साल भर अनशन होते रहे। कुल 112 दिनों के अनशन के बाद स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद की मौत हो गयी, लेकिन सरकार सोती रही। इसके बाद 24 जून 2018 से लगातार अनशन कर रहे संत गोपालदास 5 दिसंबर से लापता हैं और उनका अबतक कोई पता नहीं है।

खेती पर तापमान वृद्धि का असर स्पष्ट होने लगा है। बाढ़ और सूखा दोनों देश भर में असर दिखाने लगे हैं। कुल मिलाकर अब खेती फायदे का सौदा नहीं है और यह किसानों के लिए भी बोझ बनती जा रही है। साल 2018 के दौरान किसानों ने संघर्ष और आन्दोलनों का एक नया दौर शुरू किया है। इस साल महाराष्ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा और दिल्ली में बड़े किसान आन्दोलन और प्रदर्शन आयोजित किये गए, लेकिन सरकार की ओर से किसानों को किसी राहत की उम्मीद दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है।

नोएडा और दिल्ली में पेड़ों को कटने से बचाने के लिए, हरियाणा में अरावली की पहाड़ियों और बची-खुची हरियाली को बचाने के लिए छोटे, लेकिन सफल आन्दोलन हुए, जिनकी वजह से कुछ परियोजनाएं रद्द की गयीं। अनेक जगहों पर हाईवे प्रोजेक्ट्स का विरोध भी किया गया, इसमें चार-धाम आल वेदर रोड भी शामिल है, हालांकि इनका काम पहले की तरह बदस्तूर चलता रहा।

पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा उठाने वाले दुनिभर में मारे जाते रहे। ग्लोबल विटनेस नामक संस्था के साथ मिलकर ब्रिटेन का प्रतिष्ठित समाचारपत्र, द गार्डियन, ऐसे लोगों के नामों का संकलन करता है। इसके अनुसार 2018 में अब तक 83 लोग पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा उठाते हुए मारे गए हैं, जिनमें से 19 व्यक्ति भारत के हैं। इसके अनुसार 2015 से 2018 के बीच कुल 661 व्यक्ति पर्यावरण का मुद्दा उठाने के लिए मारे गए हैं, जिनमें से 34 व्यक्ति भारत से हैं। सबसे अधिक 145 व्यक्ति ब्राजील में मारे गए, फिलीपीन्स में 102 और इसके बाद कोलंबिया में 95 व्यक्ति मारे गए। इस सूची में भारत चौथे स्थान पर है।

इस साल तमिलनाडु के तूतीकोरिन में स्टरलाइट कॉपर के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे लोगों पर 22 मई को पुलिस ने गोलियां चलाईं और खबरों के मुताबिक कुल 13 लोग मौके पर ही मारे गए। लगातार प्रदूषण उगलने वाला, बंद के दौरान भी अम्लीय गैस उगलने वाला, तमिलनाडु पुलिस के साथ मिलकर 13 व्यक्तियों का हत्यारा- स्टरलाईट कॉपर फिर से जहर उगलने के लिए आजाद कर दिया गया था। यह आजादी और किसी ने नहीं बल्कि देश में पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए स्थापित नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने दी है और साथ ही यह संदेश भी दिया कि हम पूंजीपतियों के सामने नतमस्तक हैं। फिलहाल एनजीटी के आदेश पर तमिलनाडु उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है, लेकिन स्टरलाईट कॉपर अब इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे रहा है। इसमें किसी को शायद ही संदेह हो कि यह उद्योग जल्दी ही उत्पादन शुरू कर देगा।

वेदांता समूह के उद्योग स्टरलाइट कॉपर से फैलते प्रदूषण से परेशान लोग जब आंदोलन कर रहे थे, तब उन्हें किस बर्बरता से मारा गया, इसके बारे में लन्दन से प्रकाशित समाचार पत्र, इंडिपेंडेंट, में एक लेख 25 दिसंबर को प्रकाशित किया गया है। इसके अनुसार आज तक एक भी पुलिसकर्मी के खिलाफ कोई भी आरोप नहीं लगाया गया है और न ही किसी को निलंबित या नौकरी से हटाया गया है। सरकारी अस्पताल द्वारा जारी किये गए ऑटोप्सी रिपोर्ट के अनुसार मारे गए 13 लोगों में से 12 लोगों को गोली माथे पर लगी या पीछे से मारे गयी। सबसे कम उम्र की मृतक 17 वर्षीय स्नोव्लिन को गोली मुंह के अंदर मारी गयी थी। जब किसी पत्रकार ने उसकी मां से यह पूछा कि क्या आप इन्साफ के लिए लड़ेंगी, तब उनका जवाब था, “नहीं, हम आज तक जिन्दा हैं और यही हमारे लिए बहुत है।”

पुलिस मैन्युअल के अनुसार पुलिस को किसी को जान से मारने के लिए गोली नहीं चलानी है। सिली भी स्थिति में अपना निशाना हमेशा कमर से नीचे रखना है और भीड़ के केवल उस हिस्से में गोली चलानी है जो हिस्सा सबसे अधिक हिंसक है। लेकिन इस पूरे प्रकरण में तो भीड़ हिंसक थी ही नहीं फिर भी सारे लोगों की मौत सर या छाती में गोली लगने से हुई। आश्चर्य तो यह है कि इन सब तथ्यों के बावजूद इस मामले में कोई पुलिस अधिकारी आज तक निलंबित भी नहीं किया गया है। 34 साल के मणि राजन को कपाल पर गोली मारी गयी और 40 वर्षीय जान्सी को कान पर गोली मारी गयी। मारे गए लोगों में एक व्यक्ति 50 साल से अधिक का था, 6 की उम्र 40 वर्ष के आसपास थी और 3 की उम्र 20 वर्ष से भी कम थी।

रायटर्स के एक संवाददाता ने 11 मृतकों के परिवार वालों से मिलकर पूछा कि क्या ये लोग आगे कोई कानूनी कार्यवाही करेंगे, इसपर 10 परिवारों ने इससे साफ इनकार कर दिया। सिर्फ एक परिवार आगे लड़ाई लड़ने का मन बना रहा है। निश्चित तौर पर पुलिस के खौफ के कारण आगे की कार्रवाई से लोगों के मन में डर है। इस गोलीकांड में पुलिस की तरफ से कुल 15 शस्त्रों से 69 गोलियां दागी गई थीं। इनमें 3 सेल्फ-लोडिंग राइफल्स (एसएलआर) से 30 गोलियां चलाई गयीं, थ्की नॉ थ्री राइफल से 4 राउंड फायरिंग की गयी और .410 राइफल से 12 गोलियां दागी गयीं। लेकिन पुलिस मैन्युअल के अनुसार .303 और .410 राइफल केवल अंतिम हथियार के तौर पर ही इस्तेमाल किये जा सकते हैं।

तमिलनाडु पुलिस का कारनामा यहीं तक सीमित नहीं है। कुछ समय पहले फ्रांस की एक संस्था के दो रिपोर्टर्स को पुलिस जासूस करार दे चुकी है और दो स्थानीय पत्रकारों को इनके सहयोग करने के नाम पर पकड़कर जेल में डाल चुकी है। फ्रांस की यह संस्था विश्व में उन पत्रकारों की मदद करती है जो पुलिस या प्रशासन के दखल के कारण अपना काम पूरा नहीं कर पाते। तमिलनाडु के कन्याकुमारी क्षेत्र के आसपास अवैध रेत खनन का धंधा खूब जोरों से किया जाता है और इसमें स्थानीय प्रशासन और पुलिस दोनों अवैध खनन माफियाओं के सहयोगी रहते हैं। अनेक स्थानीय रिपोर्टर इस कारोबार की तह तक पहुंचने में असफल रहे, तब फ्रांस की संस्था ने यह काम अपने जिम्मे लिया था। अच्छी बात यह रही कि फ्रांस के रिपोर्टर्स फ्रांस सुरक्षित लौटने में सफल रहे और स्थानीय रिपोर्टर भी जेल के बाहर आ चुके हैं।

तूतीकोरिन हिंसा की गूंज संयुक्त राष्ट्र के अनेक मंचों पर भी सुनाई दी, जहां मानवाधिकार से जुड़े अनेक समूहों ने इसकी कड़े शब्दों में निंदा की। फिर भी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण की ओर से प्रधानमंत्री मोदी को सबसे बड़ा पुरस्कार दिया गया। इससे कम से कम इतना तो स्पष्ट होता है कि मानवाधिकार में पर्यावरण संरक्षण को शामिल करने की मांग करने वाले संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण को न तो पर्यावरण से मतलब है और न ही मानवाधिकार से। इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण के कार्यकारी निदेशक एरिक सोल्हीम को भी अपने पद से हटना पड़ा क्योंकि उनपर तमाम अनिमितताओं के आरोप लगे थे।

कुल मिलाकर वर्ष 2018 का सन्देश यह रहा कि उद्योग प्रदूषण करते रहेंगे और उन्हें सरकार और न्यायालयों का संरक्षण मिलता रहेगा। लोग प्रदूषण से मरते रहेंगे और इसके विरुद्ध आवाज उठाने पर मार दिए जाएंगे।

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