न्यायपालिका के हाल पर ज़फ़र आग़ा का लेख: लोकतंत्र पर मंडराते गंभीर खतरे के बादल

जस्टिस के एम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट का जज न बनाए जाने के बारे में कानून मंत्री ने चीफ जस्टिस को जो पत्र लिखा है, उससे वह डर और मजबूत होता है कि मोदी सरकार न्यायपालिका पर नियंत्रण करना चाहती है।

फाइल फोटो : सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

जैसा डर था, वही हुआ। सबसे बड़ा डर यही था कि सरकार न्यायपालिका पर नियंत्रण करना चाहती है, और यह डर सच साबित हुआ। जिस भाव से कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने चीफ जस्टिस को एक अहंकारपूर्ण पत्र लिखकर बताया है कि सरकार को जस्टिस के एम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने में क्या दिक्कत है, वह दुस्साहस के सिवा कुछ नहीं। इसके बाद किसी के मन में कोई संदेह नहीं रहा कि मोदी सरकार जजों की स्वतंत्रता और स्वायतता सहन नहीं कर सकती।

यह सर्वविदित है कि सुप्रीम कोर्ट कोलीजियम ने सुप्रीम कोर्ट में जज पद पर नियुक्ति के लिए दो लोगों के नामों की सिफारिश की थी। इनमें से के इंदु मल्होत्रा थीं, जिन्हें सीधे बार से जज बनाने की संस्तुति की गई थी, और दूसरे उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस के एम जोसेफ का नाम था। सरकार ने इंदु मल्होत्रा के नाम की तो मंजूरी दे दी, लेकिन के एम जोसेफ के लिए इनकार कर दिया।

यह आम चर्चा है कि जस्टिस के एम जोसेफ से मोदी सरकार तभी से नाराज है जबसे उन्होंने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के फैसले को पलट दिया था। दूसरी तरफ इंदु मल्होत्रा, कार्पोरेट विवादों की वकील हैं और कहा जाता है कि उनकी वित्त मंत्री अरुण जेटली से नजदीकियां हैं। लेकिन वे एक बहुत अच्छी वकील हैं और महिला अधिकारों के लिए काम करती रही हैं। लेकिन कुछ वरिष्ठ वकीलों का मत है कि इंदु मल्होत्रा हिंदुत्व के मुद्दे पर थोड़ा नर्म रहती हैं, जबकि जस्टिस जोसेफ को एक स्वतंत्र और उदार विचारधारा वाला माना जाता है। लेकिन, इसी उदार शब्द से ही सत्तारुढ़ पक्ष को मानो चिढ़ सी है।

अभी तक तो यही प्रक्रिया रही है कि सरकार कोलीजियम द्वारा दिए गए नामों को मंजूर कर लेती है। सरकार इस नियम से भी बंधी है कि वह या तो कोलीजियम द्वारा भेजे गए सारे नाम स्वीकार कर ले या सारे खारिज कर दे। लेकिन, कानून मंत्री ने अपनी पूरी काबिलियत का इस्तेमाल कर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को सूचना भर दी कि सरकार चाहती है कि इंदु मल्होत्रा को जज पद की शपथ दिलाई जाए, और जस्टिस जोसेफ के मामले में कोलीजियम दोबारा विचार करे।
यह कोलीजियम के प्रस्तावों और स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन ही नहीं, बल्कि सीधे-सीधे देश की उच्च अदालतों के कामकाज में दखल देने का मामला है। सरकार का संदेश साफ है: हम ऐसा सुप्रीम कोर्ट चाहते हैं जो सिर्फ हमारी सुने, संविधान की नहीं। यह न सिर्फ न्यायपालिका की आजादी के लिए खतरा है, बल्कि लोकतंत्र के उन बुनियादी उसूलों के लिए भी गंभीर चुनौती है, जिसमें न्यायपालिका को स्वतंत्र रूप से काम करने की आजादी मिलती है।

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने उस अर्जी को भी खारिज कर दिया जिसमें अपील की गई थी कि जब तक जस्टिस के एम जोसेफ के नाम को मंजूरी न मिले इंदु मल्होत्रा को जज पद की शपथ न दिलाई जाए। लेकिन लगता है कि जस्टिस दीपक मिश्रा उस विचार के अनुयाई हैं जिसमें जजों की नियुक्ति में सरकारी दखल को गलत नहीं माना जाता। होना तो यह चाहिए था कि जैसे ही सरकार ने जस्टिस के एम जोसेफ के नाम को नामंजूर किया था, जस्टिस दीपक मिश्रा कोलीजियम की बैठक बुलाते। लेकिन ऐसा हो न सका। यह बात भी खुली हुई है कि कोलीजियम के चार अन्य सदस्य जज चीफ जस्टिस से बात तक नहीं करते हैं। इन्हीं चारों जजों ने जनवरी में खुली प्रेस कांफ्रेंस कर देश को चेताया था कि सुप्रीम कोर्ट में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है।

हां, सुप्रीम कोर्ट में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। वहां एक ऐसे चीफ जस्टिस बैठे हैं जिनके खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव आ चुका है और उसे चंद दिन पहले ही राज्यसभा के सभापति ने खारिज किया है। अब सरकार ने हाईकोर्ट के एक जज को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त करने से इनकार कर दिया है। इन हालात से साबित नहीं होता कि देश की न्यायिक आजादी खतरे में हैं?

सुप्रीम कोर्ट में जो कुछ भी चल रहा है, उस पर लोकतंत्र के अलमबरदारों को गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। साथ ही जरूरत इस बात की है, कि जो गलतियां हुई हैं उन्हें सुधारा जाए। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र पर छाया खतरा और गहरा हो जाएगा।

(लेखक नवजीवन, नेशनल हेरल्ड और कौमी आवाज के एडिटर-इन-चीफ हैं)

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