खरी-खरी: महिलाओं ने नामुमकिन को कर दिखाया मुमकिन, आखिरकार ईरानी मुल्ला शासकों ने टेक दिए घुटने

अधिकांश मुस्लिम देशों में महिलाएं भी आधुनिक शिक्षा-दीक्षा से जुड़ती जा रही हैं। स्पष्ट है कि सामंती व्यवस्था टूट रही है। मुस्लिम औरत को भी बराबरी की लालसा है। वह हिजाब छोड़कर पुरुष के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलना चाहती है।

फोटो: Getty Image
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ज़फ़र आग़ा

जो बात कल तक असंभव लग रही थी, वह अब संभव हो चुकी है। ईरानी मुल्ला शासकों ने अंततः घुटने टेक दिए और वह भी महिलाओं के आगे। पिछले लगभग दो महीने से ईरानी महिलाओं का जो हिजाब विरोधी संघर्ष चल रहा था, उससे घबराकर ईरानी सरकार ने यह घोषणा कर दी कि वह मोरैलिटी पुलिस खत्म कर रही है। यह वही मोरैलिटी पुलिस है जिसने सितंबर में महसा अमीनी नामक 22 वर्षीय महिला को इस आरोप में गिरफ्तार किया था कि उसने हिजाब ठीक से नहीं पहना हुआ था। पुलिस हिरासत में उस महिला की मृत्यु हो गई थी।

इसके साथ ही देखते-देखते ईरानी महिलाओं का गुस्सा फूट पड़ा। पूरे देश में हिजाब विरोधी आंदोलन शुरू हो गया। हद तो उस समय हुई जब कतर में चल रही फीफा वर्ल्ड कप प्रतियोगिता में पूरी ईरानी टीम ने ईरानी राष्ट्रगान गाने से इनकार कर अपने देश में चल रहे महिलाओं के हिजाब विरोधी आंदोलन के साथ अपना सहयोग प्रकट किया। ऐसा कर सऊदी अरब की टीम की ऐतिहासिक जीत से एक रोज पहले ईरानी टीम ने वह कर दिखाया जो कोई सोच भी नहीं सकता था। उसके एक सप्ताह के भीतर ईरानी अधिकारियों ने यह घोषणा कर दी कि सरकार अब मोरल पुलिस नामक संस्था समाप्त कर रही है।

ऐसी घोषणा किसी इस्लामी देश में कोई मामूली बात नहीं है। यह ऐतिहासिक घोषणा है जो केवल ईरान ही नहीं बल्कि पूरे इस्लामी जगत के लिए एक अनोखी बात है। सब इस बात से परिचित हैं कि मुस्लिम जगत में महिलाएं सबसे अधिक दबी-कुचली हैं। सच तो यह है कि उनको लगभग किसी प्रकार के अधिकार हैं ही नहीं। यदि हैं भी तो बस कागज पर। सामाजिक तौर पर महिला लगभग एक चहारदीवारी में बंदी का जीवन व्यतीत करने पर मजबूर है। यदि बाहर निकले तो बुरका एवं हिजाब जरूरी है। अभी कुछ समय पहले तक सऊदी अरब में महिलाएं बगैर किसी पारिवारिक पुरुष सदस्य को साथ लिए बाहर भी नहीं निकल सकती थीं जबकि इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद ने महिलाओं को जितने अधिकार दिए, उनसे पहले किसी और धार्मिक गुरु अथवा धर्म ने महिलाओं का ऐसा सशक्तीकरण नहीं किया था।

कुरान ने महिलाओं को ‘खुला’, अर्थात तलाक का अधिकार दिया। महिला को पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा दिया। आज जिस प्रकार का बुरका अथवा हिजाब मुस्लिम समाज में प्रचलित है, उसका कुरान में कहीं जिक्र तक नहीं है। इतिहास बताता है कि स्वयं मोहम्मद साहब अपनी पत्नियों सहित महिलाओं को फौज के साथ जंग के मैदान तक ले जाते थे। मोहम्मद साहब की मस्जिद में औरत-मर्द साथ नमाज पढ़ते थे। मक्का में काबे में हज के समय यह प्रथा आज भी जारी है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस्लाम वह पहली धर्म व्यवस्था है जिसने दुनिया को लैंगिक न्याय की अवधारणा दी थी। लेकिन उसी मुस्लिम समाज में आज महिला को लगभग कोई भी अधिकार नहीं है। ऐसा क्यों! 


इसका पहला कारण यह है कि इस्लाम एक प्रकार का समाज सुधार आंदोलन था जिसने अपने समय के अनुसार महिलाओं सहित हर सामाजिक वर्ग का सशक्तीकरण किया। यह एक सामाजिक क्रांति थी। यही कारण था कि इस्लाम देखते-देखते एशिया, यूरोप और अफ्रीका तक फैल गया। लेकिन मोहम्मद साहब की मृत्यु के लगभग सौ वर्ष बाद यह सामाजिक क्रांति एक साम्राज्य में बदल गई। देखते-देखते बगदाद, दमिश्क, कुस्तुनतुनिया एवं आगरा तथा दिल्ली जैसे मुस्लिम साम्राज्य उत्पन्न हो गए। यह साम्राज्य आर्थिक एवं राजनीतिक तौर पर एक सामंती एवं कबीलाई व्यवस्था से जकड़े हुए थे। इस तरह देखते-देखते मोहम्मद साहब के समय के अधिकांश मूल्य खत्म होते गए। मुस्लिम समाज धीरे-धीरे सामंती एवं कबीलाई मान्यताओं में जकड़ता चला गया। हर सामंती व्यवस्था पुरुष प्रधान होती है जिसमें महिला घर की चहारदीवारी तक सीमित होती है। यही कारण है कि मुस्लिम समाज में आज भी महिला बुर्के और हिजाब में जकड़ी है। 

लेकिन 21वीं सदी के अपने तकाजे हैं। भले ही अधिकांश इस्लामी देशों में आज भी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं हो लेकिन आर्थिक व्यवस्था हर जगह बदली है। अधिकांश मुस्लिम देशों में महिलाएं भी आधुनिक शिक्षा-दीक्षा से जुड़ती जा रही हैं। स्पष्ट है कि सामंती व्यवस्था टूट रही है। अब मुस्लिम औरत को भी बराबरी की लालसा है। वह हिजाब छोड़कर पुरुष के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलना चाहती है। सामंती जंजीरें तोड़कर 21वीं शताब्दी की आधुनिकता से जुड़ना चाहती है। ईरान में चल रहा हिजाब विरोधी आंदोलन इसी सामाजिक परिवर्तन का प्रतीक है। दरअसल, मुस्लिम समाज में भी सामंती मूल्य टूट रहे हैं। ऐसे में मुस्लिम महिला भी खुली हवा में सांस लेने को बेचैन है। ईरानी महिला आंदोलन इस बात का प्रतीक है कि कट्टरपंथी मुस्लिम शासक वर्ग कितना भी दमन करे, अब मुस्लिम समाज में बहुत समय तक सामाजिक परिवर्तन को रोका नहीं जा सकता। इस बात का अहसास सबसे पहले सऊदी अरब के युवा शासक प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को हुआ। उन्होंने सत्ता संभालते ही युवा पीढ़ी की लालसा को समझ देश में बहुत सारी रूढ़िवादी प्रथाएं तोड़ दीं। उन्होंने जिस प्रकार सऊदी समाज को आधुनिकता से जोड़ा, उसने सऊदी युवा पीढ़ी में एक नई ऊर्जा उत्पन्न कर दी। यह वही ऊर्जा थी जो कतर में अर्जेंटीना की टीम के खिलाफ फीफा मैच के दौरान दिखाई पड़ रही थी। यह भी इसी बात का संकेत है कि सऊदी समाज भी अंगड़ाई ले रहा है और वह अब नई शताब्दी में एक नया आधुनिक जीवन जीने को व्याकुल है।  

वैसे तो सऊदी अरब में आज भी महिलाओं को हिजाब पहनना अनिवार्य है। लेकिन वे अब बगैर किसी मर्द के कहीं भी आ-जा सकती हैं। किसी भी विभाग में नौकरी कर सकती हैं। इसी प्रकार अभी हाल तक सऊदी अरब में सिनेमा हॉल बंद थे। अब वहां सिनेमा हॉल एवं बार तक चल रहे हैं। मोहम्मद बिन सलमान युवा पीढ़ी में लोकप्रिय हैं। 

ईरान सन 1979 की इस्लामी क्रांति से पूर्व महिला अधिकारों के मामले में बहुत स्वतंत्र था। महिलाओं पर हिजाब या ऐसी कट्टरपंथी कोई भी प्रथा प्रचलित नहीं थी। लेकिन मुल्ला शासक वर्ग ने 1983 में महिलाओं पर हिजाब की पाबंदी लगा दी। आज ईरानी महिलाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग हिजाब को छोड़कर बाहर निकलने को व्याकुल है। नौबत यह है कि इस अधिकार के लिए महिलाएं जान दे रही हैं। फीफा वर्ल्ड कप में ईरानी टीम ने राष्ट्रीय गान न गाकर यह स्पष्ट कर दिया कि ईरानी युवा पुरुष भी इस आंदोलन में महिलाओं के साथ हैं। जिस प्रकार मुल्ला शासकों ने मोरैलिटी पुलिस पर पाबंदी लगाई है, उससे यह स्पष्ट है कि ईरानी युवा वर्ग अब सामंती प्रथाओं को तोड़कर दुनिया के दूसरे देशों के समान आधुनिकता से जुड़ने को तैयार है। अब इस परिवर्तन को नहीं रोका जा सकता है। इतिहास बताता है कि सामाजिक परिवर्तन से ही राजनीतिक क्रांति भी फूटती है। इसलिए ईरानी हिजाब विरोधी आंदोलन इस्लामी जगत में बहुत बड़ी राजनीतिक क्रांति की दस्तक भी हो सकता है। मुस्लिम जगत की युवा पीढ़ी अब व्याकुल है और शासक उनको बहुत समय तक अब दबा नहीं सकते हैं। 

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