अमृता प्रीतमः एक लेखिका जिसने इश्क लिखा, इश्क जिया

अमृता प्रीतम ने टूट कर प्रेम किया लेकिन ऐसा प्रेम जिसमें डूब कर इंसान खुद को पा लेता है, जो बांधता नहीं आजाद करता है। उन्होंने अनाम रिश्तों को बेहद अपनेपन से जिया, लीक से लगे-बंधे रिश्तों में जो विरोधाभास थे, उनकी कशमकश को अपनी रचनाओं में उभारा।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

‘परछाइयां बहुत बड़ी हकीकत होती हैं। चेहरे भी हकीकत होते हैं। पर कितनी देर ? परछाइयां, जितनी देर तक आप चाहें... चाहें तो सारी उम्र। बरस आते हैं, गुजर जाते हैं, रुकते नहीं, पर कई परछाइयां, जहां कभी रुकती हैं, वहीं रुकी रहती हैं...।’

लेकिन कुछ परछाईयां हमसाये की तरह होती हैं। अमृता प्रीतम उसी एक साये की तरह हैं जो हमेशा मेरे साथ-साथ जिंदगी के तमाम मुकामात पर साथ चलता रहा। उम्र रही होगी 16 की जब ‘रसीदी टिकट’ पढ़ा। वही उम्र जब अमृता को एहसास हुआ था कि ‘सोचों का शाप’ उनके पीछे पड़ गया है। मेरा सोलहवां साल भी अवश्य ही ईश्वर की साजिश रहा होगा, क्योंकि इसने मेरे बचपन की समाधि तोड़ दी थी। मैं कविताएं लिखने लगी थी और हर कविता मुझे वर्जित इच्छा की तरह लगती थी। किसी ऋषि की समाधि टूट जाए तो भटकने का शाप उसके पीछे पड़ जाता है- ‘सोचों’ का शाप मेरे पीछे पड़ गया…।

इस उम्र को वो एक असफल प्रेम की तरह मानती थीं, “जिसकी कसक हमेशा के लिए वहीं पड़ी रह जाती है। शायद इसीलिए ये सोलहवां साल मेरी जिंदगी के हर साल में कहीं ना कहीं शामिल है।” इसी उम्र में अमृता प्रीतम से जो परिचय हुआ उसका अंश मेरी जिंदगी और विचार प्रक्रिया के हर साल में कहीं ना कहीं शामिल रहा है।

अक्सर अमृता प्रीतम को उनके प्रेम प्रसंगों और उन्हें लेकर बतौर औरत उनकी बेबाकी के लिए याद किया जाता है। बेशक, असफल शादी को बरसों निभाने, साहिर लुधियानवी के साथ अपने अनूठे जहनी लगाव में जूनून की हद तक डूबने, सज्जाद हैदर से अपने निराले रिश्ते और इमरोज के साथ अपने गहरे प्रेम के लिए उन्हें याद किया ही जाना चाहिए, खास तौर पर इस वक्त में जब नफरत और प्यार दोनों को हिंसा और ज्यादती का ही पहलू समझा जा रहा है और प्यार करने से पहले जात-धर्म और नस्ल वगैरह पर ध्यान देना जरूरी हो चला है।

लेकिन अमृता को इससे भी कहीं ज्यादा उस शिद्दत के लिए याद किया जाना चाहिए जिस शिद्दत से उन्होंने अपने आसपास के सामाजिक, राजनीतिक ताने-बाने को जिया। उस साहस के लिए याद किया जाना चाहिए जिसके साथ उन्होंने अपने हर विचार हर जज्बात को पेश किया। उस नफासत और खूबसूरती के लिए भी याद किया जाना चाहिए जिसके साथ उन्होंने अपनी जिंदगी के संघर्षों का सामना किया और उन्हें अभिव्यक्त किया। कहीं कोई कच्चापन, रूखापन या खुरदुरापन नहीं।

एक तबका उनकी आलोचना करता रहा है कि एक मां के तौर पर शायद वो उतनी खरी नहीं उतरीं। लेकिन वो एक ऐसे वक्त में जी रही थीं जब औरत होने का मतलब मां, बीवी, बहन, बेटी और प्रेमिका होना था और इस भूमिका से वे बाहर निकलने को तड़प रही थीं। अमृता प्रीतम की रचनाओं में और उनकी शख्सियत में वो तड़प साफ तौर पर झलकती है।

हकीकत और कल्पना के बीच संघर्ष से ही जन्म लेती हैं, वो रचनाएं जो हर वक्त के समाज में जद्दोजहद करती इंसानी किस्मत की कहानी कहती हैं। अमृता प्रीतम ने ये माना भी है: “मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उनके वर्जित मेल से यह सब रचनाएं पैदा हुईं। जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की किस्मत इसकी किस्मत है और इसे सारी उम्र अपने साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगतने हैं। मन का सपना क्या था, इसकी व्याख्या में जाने की आवश्यकता नहीं है। यह कमबख्त बहुत हसीन होगा, निजी जिंदगी से लेकर कुल आलम की बेहतरी तक की बातें करता होगा, तब भी हकीकत अपनी औकात को भूलकर उससे इश्क कर बैठी और उससे जो रचनाएं पैदा हुईं, हमेशा कुछ कागजों में लावारिस भटकती रहीं…।”

ना तो ही किसी दुनियावी फायदे के लिए उन्होंने प्रेम किया और ना ही किसी ईनाम की इच्छा से लेखन किया। साहित्य की राजनीति में भी बहुत मुखर नहीं रहीं। हां, लेकिन जिस राजनीति का सिला नफरत और हिंसा हो, उसके खिलाफ उनकी रचनाएं प्रेम का पुरजोर समर्थन करती रहीं। उनकी रचना ‘अज अक्खां वारिस शाह नूं..’ इसी की एक मिसाल है।

अमृता प्रीतम ने नारी मुक्ति का झंडा लेकर कभी आक्रामक रुख इख्तियार नहीं किया, बहुत कोमलता लेकिन दृढ़ता से वो एक व्यक्ति के तौर पर अपनी आजादी पर अडिग रहीं। वो आजादी की पक्षधर थीं और इस पर कभी समझौता नहीं किया। टूट कर प्रेम किया लेकिन ऐसा प्रेम जिसमें डूब कर इंसान खुद को पा लेता है, जो बांधता नहीं आजाद करता है, अनाम रिश्तों को बेहद अपनेपन से जीया, लीक से लगे-बंधे रिश्तों में जो विरोधाभास थे, उनकी कशमकश को अपनी रचनाओं में उभारा।

जिंदगी के आखिरी पड़ाव में कहते हैं वो बहुत अध्यात्मिक हो चली थीं। ठीक भी है, एक प्रेम मग्न स्त्री जिसे पिता मीराबाई जैसा कवि बनाना चाहता था, जिसने ईश्वर पर अपनी आस्था को इस बिना पर दरकिनार कर दिया कि उसने उनकी गुहार अनसुनी कर दी, एक प्रेम रहित शादी बरसों निभाई तो एक शख्स से इतना प्यार किया जिससे शादी मुमकिन ना थी और फिर अपने से छोटे पुरुष के साथ बाकी जिंदगी गुजार दी, जिससे उनके लगाव को शब्दों में बांधना असंभव है। अपनी रौ में पूरी जिंदगी जी, लेकिन ना तो उसकी नुमाइश की और ना ही उसे छिपाया। ऐसे व्यक्ति का अध्यात्मिक हो जाना मुनासिब ही है;

‘आज मैंने

अपने घर का नम्बर मिटाया है

और गली के माथे पर लगा

गली का नाम हटाया है

और हर सड़क की

दिशा का नाम पोंछ दिया है...

पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है

तो हर देश के, हर शहर की,

हर गली का द्वार खटखटाओ

यह एक शाप है, यह एक वर है

और जहां भी

आज़ाद रूह की झलक पड़े

समझना वह मेरा घर है।‘

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