भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगांठ: जब मातंगिनी हाजरा ने तिरंगे की आन पर जान कुर्बान कर लिखी आजादी की अमर गाथा
भारत छोड़ो आंदोलन की वीरांगना मातंगिनी हाजरा आज भी साहस और बलिदान की मिसाल हैं। सितंबर 1942 में, 73 वर्ष की आयु में उन्होंने पुलिस की तीन गोलियां खाकर भी हाथ में थामे तिरंगे को भूमि पर नहीं गिरने दिया।

“आओ और कहो/ यह तिरंगा लाल किले का नहीं है सिर्फ/ नहीं है किसी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का/ इसके रंगों में घुला मिला है जलियांवाले बाग का रंग/ भगत सिंह-आजाद-अशफाक की/ शहादतों का खून मिला है इसमें/ बिस्मिल के सपनों का रंग लहरा रहा है यहां/मंसूबे फहरा रहे हैं इसमें खुदीरामों और/मातंगिनी हाजराओं के/ मंगल पांडे का गुस्सा उफन रहा है/ कचोट रहा है बहादुर शाह जफर का दर्द/ आओ और पकड़ तय करो इस पर अपनी/ तय करो अपना अपना मुकाम।”
हिंदी के वरिष्ठ कवि और आलोचक विजय बहादुर सिंह की एक बहुत पुरानी लंबी कविता का यह अंश न सिर्फ बताता है कि हमें आजादी ऐसे ही सस्ते में नहीं, लंबे संघर्षों और असंख्य बलिदानों की बिना पर हासिल हुई, आगे बढ़कर इस आजादी और उसके प्रतीक तिरंगे पर अपनी पकड़ मजबूत करने को भी प्रेरित करती है।
यहां उन्होंने जिन शहीदों के नाम लिए हैं, उनमें अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन (जो हमारे आजादी की मंजिल तक पहुंचने में सबसे निर्णायक सिद्ध हुआ) के ब्याज से उसकी बंगाल की वीरांगना मातंगिनी हाजरा को याद करें, जो सितंबर 1942 में 73 साल की उम्र में पुलिस की तीन गोलियां खाकर शहीद हुईं, तो आज भी मुट्ठियां भींचे बगैर नहीं रहतीं।
अपने अंचल में ‘गांधी बूड़ि’ (बूढ़ी गांधी) के नाम से प्रसिद्ध मातंगिनी की यह शहादत इस अर्थ में और अनमोल हो जाती है कि तीन-तीन गोलियां लगने के बावजूद उन्होंने शरीर में प्राण रहते अपने हाथ में थामे हुए तिरंगे की आन पर आंच नहीं आने दी थी, उसको लगातार ऊंचा किए रखा था और भूमि पर नहीं गिरने दिया था।
यहां जान लेना चाहिए कि बंगाल में उन दिनों फजलुल हक की कृषक प्रजा पार्टी के नेतृत्व में बने गठबंधन की सरकार थी। गठबंधन में हिन्दू महासभा भी शामिल थी, जिसने आधिकारिक तौर पर ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन का बहिष्कार कर रखा था। उसके नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी (जो फजलुल हक की सरकार में मंत्री भी थे) ने बाकायदा पत्र लिखकर देश के ब्रिटिश शासकों को आश्वस्त कर रखा था कि फजलुल हक सरकार और हिन्दू महासभा दोनों कुछ भी करेंगे और राज्य में इस आंदोलन को विफल करके ही दम लेंगे।
लेकिन लगता है, यह आश्वासन देते हुए उन्होंने आजादी के दीवानों के जज्बे को बहुत कम करके आंका था, क्योंकि जैसे ही जनाक्रोश का ज्वार आया, आंदोलन को दबाने और विफल करने के फजलुल हक सरकार के सारे दमनकारी उपाय फीके पड़ गए। आंदोलनकारियों ने ऐसा जीवट दिखाया कि अगस्त 1942 में शुरू हुआ यह आंदोलन उसके अगले महीने सितंबर में धीमा पड़ने के बजाय और जोर पकड़ गया।
स्वाभाविक ही इससे फजलुल हक सरकार झुंझला उठी। देश के गोरे शासक तो वैसे भी आंदोलनकारियों से जले-भुने बैठे थे। आंदोलनकारी भी इससे अंजान नहीं थे। इसलिए 8 सितंबर को मिदनापुर जिले में शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों पर पुलिस फायरिंग करा दी गई तो भी न वे भड़के, न ही उग्र हो कर सत्ता को सत्ता के ही अंदाज में तुरंत जवाब देने की सोची। उन्होंने विवेक नहीं खोया, दूरंदेशी से काम लिया और अगले 20 दिनों तक सरकारी दमन के प्रतिरोध की अपनी तैयारियों में लगे रहे।
फिर 28 सितंबर को उन्होंने एकजुट होकर जिले के तामलुक इलाके का अन्य जगहों से संपर्क पूरी तरह काट दिया। इसके अगले दिन 29 सितंबर को मातंगिनी हाजरा के नेतृत्व में कोई 6,000 आंदोलनकारियों का जत्था (जिसमें अधिकतर महिलाएं थीं) प्रदर्शन करने निकला। जैसे ही वह शहर पहुंचा और अदालत की ओर जाने लगा, पुलिस ने निषेधाज्ञा का हवाला देकर उसे रोकने की कोशिशें शुरू कर दी।
प्रदर्शनकारियों की अगुआई कर रही मातंगिनी हाजरा हाथ में तिरंगा लिए ‘वंदेमातरम’ का उदघोष करती हुई जत्थे के साथ आगे बढ़ती रहीं। उन्होंने तितर-बितर हो जाने के पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के आदेश की भी अनसुनी कर दी।
फिर क्या था, पुलिस ने उन पर गोलीबारी शुरू कर दी। दो गोलियां मातंगिनी के दोनों हाथों में, जबकि एक माथे पर आ लगी। लेकिन वह तिरंगे को मजबूती से पकड़े रहीं और निष्प्राण होने तक उसे भूमि पर नहीं गिरने दिया। जिसने भी उनका ऐसा अद्भुत साहस देखा, दांतों तले उंगलियां दबाईं।
इस पुलिस फायरिंग में उनके जत्थे के स्त्री-पुरुषों ने भी कुछ कम दृढ़ता का प्रदर्शन नहीं किया। उनमें से 43 को अपने प्राणों की आहुति देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी, लेकिन जो बच गए, उनका मनोबल नहीं टूटा। उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और अंततः तामलुक और कोनताई में अपनी मर्जी की ‘ताम्रलिप्ता जातीय सरकार’ गठित करने में सफल रहे, जो 1945 तक चली। दरअसल, आंदोलन के दौरान उनकी एक मांग यह भी थी कि स्वशासन के लिए वहां एक ऐसी सरकार गठित की जाए। 1869 में बंगाल के पूर्वी मेदिनीपुर जिले में तामलुक के निकट स्थित होगला गांव में एक बेहद गरीब और साधारण किसान परिवार में मातंगिनी का जन्म हुआ। 12 साल की छोटी-सी उम्र में ही बाल-विवाह का अभिशाप झेला। इसके चलते जरूरी शिक्षा-दीक्षा से भी वंचित रहना पड़ा था। जब तक वयस्क होतीं, उम्र में उनसे काफी बड़े जिस व्यक्ति से उन्हें ब्याह दिया गया था, वह संसार छोड़ गया और 18 साल की होते-होते वह विधवा हो गईं।
लेकिन जिजीविषा इतनी अदम्य थी कि न वह इस सब से टूटीं और न ही किसी से दया की याचना की। ससुराल से मायके वापस लौटकर सामाजिक कार्यों और स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित हो गईं।
कुछ ही वर्षों में वह न सिर्फ अपने गांव, बल्कि उसके आसपास के बड़े क्षेत्र के ग्रामीणों की विश्वासपात्र बन गईं। ग्रामीण उनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार रहने लगे। अनंतर, महात्मा गांधी से प्रभावित होकर वह उनकी ऐसी प्रतिबद्ध अनुयायी बन गईं कि जैसे ही उम्रदराज हुईं, क्षेत्र के लोग स्थानीय भाषा में उन्हें ‘गांधी बूड़ि’ कहने लगे, जिसका अर्थ होता है बूढ़ी गांधी। 1905 के स्वदेशी आंदोलन, फिर नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञाआंदोलनों में भी उन्होंने सक्रिय हिस्सेदारी की और 6 माह का सश्रम कारावास भी झेला।
60 वर्ष की होने तक आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों के सिलसिले में कई बार जेल गईं। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो जेलयात्राओं के दौरान मिलने वाली हर यातना स्वतंत्रता के लिए जूझती रहने के उनके संकल्प को और मजबूत कर देती थी।
1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू होने तक वह 70 पार कर चुकी थीं। फिर भी न तो उम्र को खुद पर हावी होने दिया, न स्वतंत्रता के प्रति अपना संकल्प और प्रतिबद्धता कमजोर पड़ने दिया। उल्टे उनकी आत्मबलिदान की भावना और मजबूत होती गई थी। अपनी शहादत से 9 साल पहले 1933 में भी उन्होंने अपने शरीर पर पुलिस के हमले झेले थे। एक बार तब, जब सेरमपुर में उनकी देखरेख में आयोजित कांग्रेस के उपखंड स्तर के सम्मेलन पर बर्बर पुलिस लाठीचार्ज हुआ और दूसरी बार जब वह मिदनापुर में लाट साहब यानी गवर्नर के खिलाफ मार्च निकाल रही थीं।
कहते हैं कि जब ‘लाट साहब वापस जाओ’ के नारे लगाता हुआ उनका मार्च चिलचिलाती गर्मी में लाट साहब के निवास की ओर बढ़ रहा था, तो लाट साहब अपने छज्जे से उसे देखकर कुछ इस तरह मजे ले रहे थे, जैसे पिकनिक पर आए हों। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस ने मार्च पर लाठियां बरसानी शुरू कर दीं। उसकी लाठियों से मातंगिनी हाजरा को कई गंभीर चोटें आईं, लेकिन वह लाट साहब का मजा किरकिरा करने में सफल रहीं।