जेएनयू में हमला एबीवीपी के गुंडों के साथ दिल्ली पुलिस की मिलीभगत से हुआः विभूति नारायण राय

पूर्व आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय का कहना है कि जेएनयू प्रशासन और एबीवीपी के गुंडों के साथ दिल्ली पुलिस की मिलीभगत थी और उसने एबीवीपी के गुंडों को जेएनयू में खुलकर हिंसा करने की खुली छूट दी। और यह सब पुलिस ने राजनीतिक आकाओं के कहने पर किया।

फोटोः सोशल मीडिया
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राहुल गुल

साल 1987 में उत्तर प्रदेश के मेरठ में जब हाशिमपुरा नरसंहार हुआ, उस समय वहां यूपी कैडर के 1975 बैच के आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय एसएसपी थे। राहुल गुल से खास बातचीत में विभूति नारायण राय ने भारतीय पुलिस से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी।

इस आरोप पर आप क्या कहेंगे कि 6 जनवरी को जेएनयू में हिंसा के बेरोकटोक चलने के पीछे दिल्ली पुलिस का हाथ था?

मेरे मन में इस बात को लेकर जरा भी संदेह नहीं कि दिल्ली पुलिस की जेएनयू प्रशासन और एबीवीपी के गुंडों के साथ मिलीभगत थी और उसने एबीवीपी के गुंडों को कैंपस में अपने विरोधियों के खिलाफ हिंसा करने की खुली छूट दी। यहां तक कि जब इन गुंडों ने अपने विरोधियों को आतंकित करने का अपना लक्ष्य पा लिया तो उन्हें आराम से निकल जाने भी दिया।

क्या आपको लगता है कि यह सब राजनीतिक आकाओं के इशारे पर हुआ होगा?

बिल्कुल। यह साफ है कि उन्हें अनौपचारिक तरीके से, ज्यादा संभावना है कि मौखिक तौर पर इस तरह का निर्देश दिया गया होगा। बीजेपी के लोगों ने जो चाहा, उन्हें करने दिया गया और पुलिस मुंह फेरकर दूसरी ओर देखती रही।

राजनीतिक आकाओं की बात मानने से इनकार कर सके, क्या ऐसा कोई रास्ता पुलिस के पास नहीं है?

उदाहरण के तौर पर जेएनयू या जामिया में हुई हिंसा को लें। अगर सत्तारूढ़ दल ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक को कोई निर्देश दिया होगा, तो उनके लिए इनकार करना मुश्किल हो गया होगा। अमूल्य पटनायक इसी माह रिटायर होने वाले हैं और चंद महीनों का एक्सटेंशन भी वह अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करके ही पा सकते हैं, ऐसी स्थिति में वह वही करेंगे जो उन्हें कहा जाएगा। उनकी जगह पर जो लोग भी रहे, बिना सवाल किए राजनीतिक वरिष्ठों के आदेशों का पालन करते रहे जिससे रिटायरमेंट के बाद उन्हें कोई नियुक्ति वगैरह मिल जाए। आपको समझना चाहिए कि खाकी पहन चुके व्यक्ति के लिए बिना खाकी जीवन की कल्पना भी मुश्किल होती है। ऐसा भी नहीं कि यह सब केवल तभी से हो रहा है जबसे बीजेपी सत्ता में आई है। ऐसा पहले भी होता था, इतना जरूर है कि तब इतना नहीं हुआ करता था।


क्या आपको लगता है कि एक आम पुलिसवाला भी अल्पसंख्यकों को लेकर एक तरह के पूर्वाग्रह से ग्रसित रहता है और जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में पुलिस के अत्याचार के पीछे यह एक बड़ी वजह थी?

अगर पुलिसवाला हिंदू है तो काफी कुछ ऐसा ही होता है। ऐतिहासिक रूप से इस तरह का पूर्वाग्रह तो रहा है और यह बात जबलपुर से लेकर आजादी बाद के तमाम दंगों में सामने भी आई है। लेकिन अगर पुलिस के उच्च अधिकारी चाहें तो ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है। लेकिन जामिया और एएमयू में ऐसा नहीं हुआ।

देश में हिरासत में मौत के इतने सारे मामले क्यों हैं?

इसकी वजह यह है कि थाना स्तर पर तैनात पुलिसकर्मियों से अपेक्षा की जाती है कि संदिग्ध अपराधियों के साथ वे थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करेंगे। एक तरह से इसे सामाजिक तौर पर स्वीकृति प्राप्त है, इसलिए यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं।

पुलिस को प्रोफेशनल और स्वतंत्र बनाने के लिए क्या करने की जरूरत है?

समस्या यह है कि पुलिस का बुनियादी ढांचा अंग्रेजों के जमाने से वैसा ही रहा है। पुलिस जिस मैन्युअल का पालन करती है, जैसे- आईपीसी (इंडियन पुलिस कोड), सीआरपीसी (आपराधिक प्रक्रिया संहिता), भारतीय साक्ष्य कानून- इन सबमें आजादी के बाद कोई बदलाव नहीं आया। जैसे कहा जाता है कि जनता वैसा ही राजा पाती है, जिसकी वह हकदार होती है, वैसे ही मेरा मानना है कि लोग वैसी ही पुलिस पाते हैं, जिसके वे हकदार होते हैं।

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