जन्मदिन विशेषः जगजीत सिंह वाया जालंधर, जिसकी मिट्टी की खुश्बू आखिरी वक्त तक खींचती रही
बेशक जगजीत सिंह का जन्म गाने के लिए हुआ था और सिवा इसके वह कुछ और कर भी न पाते। जालंधर ने उनकी शास्त्रीय संगीत की बुनियाद को पुख्ता करते हुए उन्हें बाकायदा गजल गायकी की ओर ऐसा मोड़ा कि अंततः जो मंजिल उन्हें हासिल हुई वह बेमिसाल और नायाब है।
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हिंदुस्तान में ग़ज़ल गायकी को नए आयाम और मुकाम देने वाले जगजीत सिंह की जिंदगी के सफर में जालंधर अहम पड़ाव बनकर न आता तो शायद वह ग़ज़ल गायकी की शोहरत के आसमां के इतने बड़े सितारे नहीं बन पाते। बेशक उनका जन्म गाने के लिए हुआ था और सिवा इसके वह कुछ और कर भी न पाते। वह विशुद्ध शास्त्रीय गायन की राहों पर थे। जालंधर ने उनकी शास्त्रीय संगीत की बुनियाद को पुख्ता करते हुए उन्हें बाकायदा गजल गायकी की ओर ऐसा मोड़ा कि अंततः जो मंजिल उन्हें हासिल हुई वह बेमिसाल और नायाब है। लाखों में किसी एक के हिस्से में आती है।
यह श्रेय पंजाब की उन दिनों की सांस्कृतिक राजधानी शहर जालंधर को है। इसी शहर ने उन्हें 'जगमोहन' से 'जगजीत' बनाया और उस महानगर मुंबई (तब बंबई) जाकर अथक संघर्ष करने का जज्बा दिया। जहां आगे जाकर उन्हें ग़ज़ल गायकी का महानायक बनना और बुलंदी के शिखर पर मुद्दतों बैठना था।
हर बड़ी शख्सियत की मानिंद जगजीत सिंह भी बहुत कुछ भूले, लेकिन नहीं भूले तो जालंधर को। इसकी अमिट यादें उनके दिलो-दिमाग पर सदैव सुरूर-सा छाई रहीं। जालंधर वासियों को भी नहीं मालूम कि जीवन के आखिरी सालों में वह गुपचुप जालंधर आते रहे। अकेले-अपने निजीत्व को साथ लेकर। ये खामोश यात्राएं थीं। अपने कुछ मर गए, छूट गए दोस्तों की मिट्टी को टटोलने की। जालंधर किसी न किसी रूप में आखिरी वक्त तक उनके भीतर सोया-जागता और खोया रहता रहा।
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सत्तर के दशक में जगजीत सिंह, जो तब जगमोहन सिंह होते थे, राजस्थान के श्रीगंगानगर शहर से जालंधर के डीएवी कॉलेज में बीएससी करने आए थे। उम्र 20 साल थी। लड़कपन का हर मिजाज वजूद पर तारी था, लेकिन संगीत के प्रति गंभीरता विलक्षण थी। सोते-जागते, उठते-बैठते, घूमते-फिरते संगीत साधना में ही रत रहते थे। मौका कोई भी हो, संग-साथ किसी का भी हो, संगीत का लिबास उन पर से नहीं उतरता था। उनकी रूह से लेकर जिस्म तक को संगीत ढके रहता था।
ऐसी संगीतमय दीवानगी और फकीरी में अकादमिक पढ़ाई कहां होनी थी? किताबों की बजाए संगीत के तमाम साज इर्द-गिर्द रहते थे। बतौर होनहार (शास्त्रीय) गायक उन्हें डीएवी के प्रिंसिपल डॉक्टर सूरजभान ने हॉस्टल में अलग एक कमरा अलॉट कर दिया था। वहीं एकांत या आसपास के शोर के बीच रियाज होता था और मुतवातर महफिलें भी सजती थीं। जगजीत लतीफेबाजी खूब करते थे। उसमें भी शानदार लयकारी होती थी। नामधारी परिवार से वाबस्ता जगजीत सिंह जालंधर आए तो परंपरागत सिख वेशभूषा में रहते थे। जब तक इस शहर में रहे उसी वेशभूषा में रहे।
वह तलत महमूद के बेहद शिद्दती मुरीद थे। तलत के तकरीबन हर गीत-ग़ज़ल को वह अपने रंग, अपने अंदाज और अपने रियाज़ के साथ बखूबी गाते थे। कॉलेज में खाली समय के ऐन पहले प्रिंसिपल सूरजभान रोजाना 5 मिनट के लिए अपने कार्यालय से पब्लिक अड्रेस सिस्टम के जरिए विद्यार्थियों से संबोधित होते थे। पब्लिक अड्रेस के बाद प्रिंसिपल साहब लंच के लिए चले जाते थे और पीछे उनके कार्यालय से पब्लिक के अड्रेस सिस्टम पर जगजीत सिंह काबिज हो जाते थे और हारमोनियम पर 25 मिनट वह माइक पर गाते थे। इन पलों में तलत महमूद का गाया कुछ न कुछ जगजीत की आवाज में कॉलेज परिसर में चौतरफा गूंजना रोजमर्रा की बात थी। बाजरिया रियाज़ उन्होंने तलत महमूद के गाए को अपने शास्त्रीय गायन के अंदाज में ढाला होता था।
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विद्यार्थी काल में उनकी पहचान (नवोदित) शास्त्रीय गायक की थी। डीएवी कॉलेज जालंधर की ओर से वह बतौर क्लासिकल सिंगर प्रतियोगिताओं में प्रतिभागी होते थे और अक्सर पहली तीन श्रेणियों में से किसी एक में रहते थे। संभवत: जगजीत सिंह गजल गायकी की ओर न मुड़ते और शास्त्रीय गायक ही बने रहते, अगर जालंधर के पुरुषोत्तम जोशी नामक विद्यार्थी डीएवी में उनको शास्त्रीय संगीत में चुनौती देने के लिए न होते।
दोनों के सहपाठी रहे सुरेंद्र मोहन पाठक याद करते हैं, “संगीत मानो पुरुषोत्तम जोशी को घुट्टी में पिलाया गया था। सिर्फ 8 साल की उम्र में वह ऑल इंडिया रेडियो, जालंधर का रेगुलर स्टाफ आर्टिस्ट था और तब भी रेडियो पर उसका शास्त्रीय गायन नियमित रूप से प्रसारित होता था और शौक से सुना जाता था। किसी भी संदर्भ में जब कभी डीएवी के ओपन एयर थिएटर में उसके गायन का कार्यक्रम होता था तो थिएटर गेट क्रशिंग की मिसाल बन जाता था। सारे जालंधर के संगीत प्रेमी बिन बुलाए पुरुषोत्तम जोशी का गायन सुनने के लिए दौड़े चले आते थे और कॉलेज उनकी आमद पर अंकुश नहीं लगा पाता था। तब थिएटर हमेशा ऐसा खचाखच भर जाता था कि तिल धरने की जगह नहीं होती थी। संगीत प्रेमी नगर समुदाय पुरषोत्तम जोशी नामक छोटे से लड़के को यूं सुनता था जैसे किसी बड़े मकबूल उस्ताद को सुन रहा हो।”
पाठक आगे कहते हैं, “ये हाल तब था जबकि ये कहने वालों की कोई कमी नहीं थी कि जगजीत सिंह और पुरुषोत्तम जोशी की गायन प्रवीणता में उन्नीस बीस का भी फर्क नहीं था। ये स्थापित था कि जब कभी भी दोनों एक कंपटीशन में हिस्सा लेंगे तो यकीनी तौर पर जोशी प्रथम आएगा और जगजीत द्वितीय। हमेशा यही होता था। नतीजतन जगजीत सिंह को ऐसा कंपलेक्स हुआ कि उन्होंने क्लासिकल में कंटेस्ट करना ही बंद कर दिया और लाइट म्यूजिक में, सुगम संगीत में रुचि लेनी शुरू कर दी। उसके ऐसा करने की देर थी कि उसके लिए सफलता के जैसे चौतरफा द्वार खुल गए। हर कंटेस्ट में, हर कंपटीशन में जगजीत सिंह ने झंडे गाड़े।
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पाठक के अनुसार, “उन्होंने कॉलेज के वक्त में ही बहुत नाम कमा लिया लेकिन उस दिशा में जो हुआ, सिर्फ इसलिए हुआ कि कॉलेज में पुरषोत्तम जोशी नाम का एक जन्मजात शास्त्रीय संगीत विशारद मौजूद था, शास्त्रीय संगीत में जिसके आगे जगजीत सिंह की कभी पेश न चली। पुरुषोत्तम जोशी न होता तो एशियन उपमहाद्वीप का हरदिलअजीज ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह कभी न बन पाया होता। ग़ज़ल का ऐसा शहंशाह कभी न बन पाया होता जिससे मेहंदी हसन भी रश्क करते थे।” जालंधर में इन पंक्तियों के लेखक ने कई लोगों से बात की तो उन्होंने इसकी पुष्टि की लेकिन कोई भी ऐसा नहीं मिला जो बता पाता कि पुरुषोत्तम जोशी गुमनामी के अंधेरों में कैसे खो गए और अब कहां हैं, क्या कर रहे हैं?
जालंधर के जगजीत सिंह के कुछ पुराने सहपाठियों को वह तब भी किवदंती लगते थे। उनकी अद्भुत प्रतिभा की एक मिसाल यह दी जाती है कि वह दुनिया का कोई भी साज, बेशक वह जर्मनी का, सऊदी अरब का, कजाकिस्तान, टर्की का--तारोंवाला साज, जिसको बजाया होना तो दूर, कभी जिसकी जगजीत ने सूरत भी न देखी हो, उन्हें थमाया जाए और महज आधे घंटे के लिए उन्हें उसके साथ अकेला छोड़ दिया जाए, फिर जगजीत सिंह कोई भी गाना उस पर बजाकर दिखा सकते थे। ऐसा कई बार हुआ।
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एक लोहड़ी पर जगजीत सिंह ने विद्यार्थियों की महफिल में गाया, 'एह तां जग दियां लोहड़ियां/साडी कादी लोहड़ी अक्खां सजना ने मोड़ियां...।' दो साल लोहड़ी पर यह गीत जगजीत ने गाया और फरमाइश पर कई बार बगैर त्योहार के भी। इसे सुनते हुए कई आंखें पनीली हो जाती थीं। उस दौर के डीएवी कॉलेज के कई जालंधरी विद्यार्थियों को आज भी वह मंजर बखूबी याद है। इस गीत में जगजीत बिरहा की ऐसी हूक डालते थे कि अनेक छात्र-छात्राएं बरबस सुबकने लगते थे।
उसी कॉलेज में पढ़ने वालीं और बाद में अमृतसर के एक कॉलेज में प्रिंसिपल रहीं एक मोहतरमा के अनुसार जगजीत ने गाकर रूहों पर छाना जालंधर में ही साध लिया था। जगजीत सिंह बीएससी में फेल हो गए थे और दूसरी बार इम्तिहान देकर पास हुए क्योंकि संगीत ही उनके लिए सब कुछ था, कोर्स की किताबें तो मजबूरी थीं। (बाद में उन्होंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में एमए किया)।
संगीत उनकी खूबी थी (कमजोरी नहीं- जैसा कि मुहावरे में कहा जाता है)। उच्च पाए के संगीत वाली फिल्में उन्हें बेइंतहा पसंद थीं। 1960 में 'मुग़ल-ए-आज़म' रिलीज हुई तो जगजीत सिंह डीएवी कॉलेज जालंधर में ही पढ़ते थे। किसी वजह से वह फिल्म पहले हफ्ते जालंधर में नहीं लगी। जगजीत ने लुधियाना जाकर वह फिल्म देखी और कई हफ्तों तक उसके गीत गाते-सुनाते रहे।
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डीएवी कॉलेज जालंधर के पीछे अब पॉश कॉलोनियों की कतार है। जगजीत काल में तब यह इलाका जंगल हुआ करता था। जब वह शोर से आजिज आ जाते थे तो अपना हारमोनियम लेकर इसी जंगल के बीच कहीं बैठकर घंटों रियाज किया करते थे। वहां वह रियाज के साथ-साथ एक काम और किया करते थे जिसे वह बतौर सिख सार्वजनिक तौर पर करने से गुरेज करते थे। वह काम था सिगरेटनोशी! सिगरेट की लत उन्हें जालंधर आकर लगी थी। अलबत्ता तब तक शराब शायद नहीं पीते थे। सिगरेट और रसरंजन की जुगलबंदी मुंबई जाकर उन्होंने आखिरी वक्त तक जमकर की।
खैर, सिगरेट की बाबत एक वाकया जालंधर में उनके साथ पढ़े और गहरे दोस्त रहे लेखक शैलेंद्र शैल के जरिए अर्ज है: “एक शाम मैं हॉस्टल मैं जगजीत के कमरे पर गया। दीवारों पर तलत महमूद के पोस्टर चस्पां थे। थोड़ी देर बाद उसने दरवाजा बंद कर लिया और अलमारी से सिगरेट का पैकेट निकाला और मेरी और बढ़ा दिया। मुझे हल्का झटका लगा पर जल्दी ही संभल गया। मैंने कहा, तुम पियो, मैं नहीं पीता। उसने सिगरेट सुलगाई और आराम से कश लगाने लगा। मुझे लगा वह अभी बेतहाशा खांसने लगेगा। पर वह तलत का गीत- 'ये हवा ये रात, ये चांदनी...'गुनगुनाने लगा। हम दोस्तों को अंदाजा भी नहीं था कि वह संगीत की इतनी बुलंदियों को छू लेगा। अक्सर हम उसे तानसेन की औलाद या सहगल की आत्मा कहकर चिढ़ाते। जगजीत कहा करता था कि तलत उसके आदर्श हैं। पता नहीं, कभी उन जैसा गा पाऊंगा या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास उस समय नहीं होता था। बाद में समय ने ही इसका उत्तर दिया।”
जालंधर में जगजीत सिंह के सबसे गहरे दोस्त सुदर्शन फाकिर थे। वह भी डीएवी कॉलेज के विद्यार्थी थे। पहले-पहल जगजीत ने फाकिर के अल्फाजों से ही गजल गायन का सफर शुरू किया। फाकिर की लिखी बेशुमार गजलें जगजीत ने गाईं और उनकी दोस्ती अंत तक गहरी से गहरी होती चली गई। दोनों एक-दूसरे के पूरक थे। दोनों ने एक दूसरे को 'बनाया'। सुदर्शन फाकिर की गजलें गाने का सिलसिला जगजीत ने जालंधर से शुरू किया था और मुंबई में आखिर तक इसे बदस्तूर कायम रखा।
साल 2008 में जालंधर में सुदर्शन फाकिर की मौत हुई तो जगजीत एकबारगी टूट-से गए थे। उनकी याद में फफक-फफक कर रोते थे। फाकिर के जाने के बाद जगजीत का संपर्क उनके जालंधर रहते परिवार से लगातार बना रहा। फाकिर मजाहिया लहजे में कहा करते थे कि, "जगजीत सिंह पूरा मुंबईकर बन पाया हो या नहीं लेकिन पूरा जालंधरी वह आज भी है!"
प्रसंगवश, जगजीत सिंह की यारबाशी का एक किस्सा उनके एक जालंधरी दोस्त बेहद भावुक होकर सुनाते हैं। डीएवी जालंधर में वह जगजीत के सहपाठी और दोस्त थे। जगजीत गरीब परिवार से थे और पैसे की किल्लत रहती थी। उक्त दोस्त बावक्त उन्हें आर्थिक मदद देते थे। समय का पहिया घूमा। मुंबई जाकर जगजीत खासे दौलतमंद हो गए और इधर जालंधरी दोस्त व्यापार में हुए घाटे के चलते दाने-दाने को मोहताज हो गए। बेटी की शादी थी। किसी तरह मुंबई में जगजीत सिंह से मुलाकात करने में कामयाब हो गए। पुराने दिनों को याद करते हुए जगजीत ने उस जालंधरी दोस्त की खूब शाही खातिरदारी की। वह अपने दोस्त की आर्थिक दुश्वारियों को भांप गए। पता चला कि बेटी की शादी सिर पर है और पैसे के नाम पर खाली हैं। जगजीत ने तत्काल 15 लाख का बंदोबस्त करके दिया। जब की यह बात है तब 15 लाख रुपए बहुत बड़ी रकम मानी जाती थी, लेकिन जगजीत सिंह ने बाखुशी अपने दोस्त को इस तरह संभाला।
इन पंक्तियों का लेखक जब जालंधर में जगजीत सिंह के उस दोस्त से 6 फरवरी को रूबरू बात कर रहा था तो वह उनकी याद में फूट-फूटकर रोने लगे। जगजीत के लिए पैसे से बेटी की शादी ही नहीं हुई बल्कि परिवार को नए सिरे से जिंदगी भी हासिल हो गई। जरूरत पड़ने पर जगजीत सिंह ने अपने जालंधरी दोस्तों को अच्छे से 'संभाला।' उक्त दोस्त के मुताबिक जगजीत कहा करते थे कि मैं कर्ज नहीं दे रहा बल्कि ऐसा करके जालंधर का कर्ज उतार रहा हूं। वैसे भी यह मानवीय फर्ज है। खैर, 'जालंधर के दत्तक पुत्र' जगजीत सिंह की सांसें 10 अक्टूबर, 2011 को थम गईं। लेकिन वाया जालंधर शुरू हुआ उनकी जादुई आवाज का सफर तब तक जारी रहेगा, जब तक संगीत जिंदा रहेगा और संगीत तो रहती दुनिया तक रहेगा ही! और जगजीत का नाम भी!
(इस आलेख में दिए गए कुछ संदर्भ सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा के प्रथम खंड 'न बैरी न कोई बेगाना' और शैलेंद्र शैल के संस्मरण-संग्रह 'स्मृतियों का बाइस्कोप' से लिए गए हैं)
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