हिटलर जैसा नव-राष्ट्रवाद फैला रही है बीजेपी सरकार, सेना का भी हो रहा है राजनीतिकरण: ले. जनरल (रिटायर्ड) एच.एस. पनाग

ले. जनरल (रिटायर्ड) एच.एस. पनाग अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए जाने जाते हैं। संडे नवजीवन के लिए संयुक्ता बसु से बात करते हुए उन्होंने बीजेपी के राजनीति क नेतृत्व में देश में सिर उठा रहे नव-राष्ट्रवाद को बड़ा खतरा बताया।

फोटो: सोशल मीडिया
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संयुक्ता बासु

ले. जनरल (रिटायर्ड) एच.एस. पनाग अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए जाने जाते हैं। संडे नवजीवन के लिए संयुक्ता बसु से बात करते हुए उन्होंने बीजेपी के राजनीति क नेतृत्व में देश में सिर उठा रहे नव-राष्ट्रवाद को बड़ा खतरा बताया। उन्होंने कहा कि इसका बुरा असर यह है कि हमेशा से गैर-राजनीति क रही भारतीय सेना में भी खास विचारधारा के प्रति झुकाव हो रहा है। बातचीत के अंशः

हाल ही में आपने नव-राष्ट्रवाद और भारतीय सेना के राजनीतिकरण पर चिंता जताई थी। क्या इसके बारे में साफ शब्दों में कुछ कहना चाहेंगे?

आज हम राष्ट्रवाद को एक नए अंदाज में देख रहे हैं। यह इतिहास, भू-राजनीति वगैरह की परवाह किए बिना नस्ल, धर्म, जातीयता, श्रेष्ठता की भावना और महिमा मंडित दृष्टिकोण से लिपटा हुआ है। हमने पापंपरिक अर्थों में देश भक्ति या राष्ट्रीयता के बारे में जो समझा है, यह उससे बिल्कुल अलग है। अमूमन हम में से हर भारतीय देश से प्यार करता है, देश पर गर्व महसूस करता है। यही देश भक्ति है। राष्ट्रवाद और कुछ नहीं, उच्च स्तर की देश भक्ति है। स्वतंत्रता आंदोलन राष्ट्रवादियों ने लड़ा। लेकिन नव-राष्ट्रवाद वह अवधारणा है जिसे हिटलर ने आगे बढ़ाया। हिटलर का राष्ट्रवाद जर्मन मूल के लोगों की परम श्रेष्ठता की भावना से रंगा है। इसी कारण उसने यहूदियों को प्रताड़ित करना शुरू किया। आज भारत में मैं जो देख रहा हूं, वह राष्ट्रवाद नहीं बल्कि नव-राष्ट्रवाद है।

क्या भारतीय सेना का आज पहले से कहीं अधिक राजनीतिकीकरण हो गया है?

लोग सशस्त्र बलों को बड़े सम्मान के साथ देखते हैं और नेता इसी भावना का फायदा उठाते हैं। यह सकारात्मक या नकारात्मक- दोनों हो सकता है। लाल बहादुर शास्त्री ने “जय जवान जय किसान” का नारा दिया, यानी सैनिक और किसान हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं। आज सशस्त्र बलों और सत्तासीनों के बीच की रेखा धुंधली हो रही है। इतनी कि अगर सरकार की आलोचना करो कि लद्दाख में चीन के खिलाफ उसके कदम अपर्याप्त हैं तो वे कहते हैं कि आप सेना की आलोचना कर रहे हैं।

ऐसे राजनीतिकरण के क्या खतरे हैं?

राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में सशस्त्र बलों को उलझाया जा रहा है। इसे किसी राजनीतिक तमाशे से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। लेकिन हमने सेना को बड़े पैमाने पर योग कार्यक्रमों में शामिल होते देखा। नोटबंदी के बाद, नेताओं को कहते सुना कि अगर सैनिक सीमा पर खड़े हो सकते हैं, तो लोग एटीएम की कतारों में क्यों नहीं। कोविड योद्धाओं और अस्पतालों के सम्मान में उन पर फूलों की पंखुड़ियां बरसाने के पीछे उनकी सदभावना हो सकती है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ठीक उसी समय चीन हमारे क्षेत्र में घुसपैठ कर रहा था। दुर्भाग्य है कि सेना के शीर्ष पदाधिकारियों को सत्तारूढ़ पार्टी की विचारधारा के निकट माना जा रहा है। सीडीएस विपिन रावत के बांग्लादेशी प्रवासियों और सीएए-विरोधी प्रदर्शन के बारे में दिए गए बयान और कश्मीर में मानव ढाल का इस्तेमाल करने वाले अनुशासनहीन अधिकारी का बचाव और उसे सम्मानित करना चिंताजनक हैं। कारण, अधीनस्थ लोगअपने सीनियर अधिकारी के व्यवहार को अपना लेते हैं। इसके अलावा हमारे सैनिकों की पहुंच में सोशल मीडिया है जो जबरदस्त नफरत और चरम दक्षिणपंथी प्रचार से भरा है। लंबे समय तक इन सबके बीच रहने से हमारे सैनिक एक विशेष विचार धारा से प्रभावित हो सकते हैं और राजनीति में हिस्सेदार बन सकते हैं। यह तो सेना का वास्तविक राजनीतिकरण है। भारतीय सेना हमेशा से गैर-राजनीतिक और पेशेवर रही है जो संविधान की शपथ लेती है और सत्तासीन राजनीतिक दल के प्रति उसकी कोई निष्ठा नहीं होती। सेना को इसी स्थिति को बनाए रखना होगा। चीन में सेना कम्युनिस्ट पार्टी पोलित ब्यूरो का हिस्सा है; पाकिस्तान की सेना भी राजनीति में एक हित धारक है। लेकिन भारतीय सेना अब भी गैर-राजनीतिक है। चिंता की बात यह है कि सैन्य-शीर्ष हवा के रुख के साथ झुक रहा है और सोशल मीडिया पर नव-राष्ट्रवाद के माहौल से सैनिक भी धीरे-धीरे प्रभावित हो रहे हैं। अगर इसे नहीं रोका गया तो सेना का भी राजनीतिकरण हो जाएगा।

क्या ऐसा कुछ है जो भारतीय सेना को दूसरों से अलग करता है?

नव-राष्ट्रवादी शासन अपनी विचारधारा को फैलाने के लिए सेना को औजार के तौर पर इस्तेमाल करता है। लेकिन पश्चिम में इसकी रोकथाम के उपाय, पारदर्शिता और निष्पक्षता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ के प्रमुख ने हाल ही में एक सार्वजनिक स्पष्टीकरण जारी किया जिसमें कहा गया था कि एक सैनिक संविधान की शपथ लेता है, न कि किसी नेता, धर्म या पार्टी की। जून में व्हाइट हाउस के पास एक चर्च के बाहर राष्ट्रपति ट्रंप के साथ उनकी फोटो आई और उन्होंने सार्वजनिक रूप से इस पर खेद जताया। भारत में ऐसी रोक थाम से समझौता हो रहा है।

भारत दूसरा सबसे बड़ा हथियार आयातक है और सैन्य खर्च में तीसरा सबसे बड़ा देश। क्या ऐसा इसलिए है कि नेता शांति बनाने में विफल रहे हैं?

पाकिस्तान और चीन के साथ हमारी अनसुलझी सीमा है और हमें विद्रोहियों से भी मुकाबला करना होता है। इसलिए हमारी सुरक्षा चिंताएं वास्तविक हैं और हमें रक्षा पर खर्च करना होगा। लेकिन यह रणनीतिक विफलता है कि हमारी सरकारें शांति सुनिश्चित नहीं कर पाईं और वे सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण में भी विफल रहीं जो सामने वाले में डर पैदा करता। इसके अलावा हम इसलिए काफी आयात करना पड़ रहा है कि हमने रक्षा उपकरणों के निर्माण में अपेक्षित प्रगति नहीं की।

बढ़ते रक्षा खर्च के बावजूद ऐसा क्यों है?

रक्षा बजट में वृद्धि से तो केवल महंगाई की क्षतिपूर्ति हो रही है। बड़े सुधार तो हमने किए ही नहीं। पिछले 30 सालों से सेना का आधुनिकीकरण ठहरा हुआ है। पिछली बार आधुनिकीकरण का प्रयास 1980 के दशक में शुरू हुआ और 1990 के दशक के मध्यमें पूरा हुआ। तब से कोई सुधार नहीं हुआ। जीडीपी के मुकाबले रक्षाबजट घट रहा है और 1962 के बाद यह न्यूनतम है।

आपके मुताबिक क्या किया जाना चाहिए?

हमारी सेना श्रमशक्ति आधारित है जिसके पास निम्न से लेकर मध्यम दर्जे की प्रौद्योगिकी है। जरूरत है कि हम इसे मध्यम से उच्च तकनीक वाली सेना बनाएं। इसके लिए सबसे पहले तो हमारे पास एक औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति होनी चाहिए। यह तय करना होगा कि आगे हमें किस तरह के खतरों का सामना करना पड़ सकता है और उसके लिए सेना की कैसी संरचना की जरूरत होगी। फिर सरकार को उसी के मुताबिक पैसे आवंटित करने चाहिए।

क्या डिफेंस सर्विसेज का चीफ बनाने का प्रयोग कारगर है?

सीडीएस का पद सुधार की दिशा में पहला कदम है। कारगिल युद्ध के ठीक बाद ही यह सिफारिश की गई थी लेकिन नियुक्ति में इतना समय लग गया। इसके बावजूद कि भारत ने 1949 में ही तीनों सेवाओं के लिए एक राष्ट्रीय रक्षा अकादमी और रक्षा सेवा स्टाफ कॉलेज स्थापित किया और ऐसा करने वाला वह पहला देश था, हम 2020 में सीडीएस नियुक्त करते हैं। इतनी देरी? मौजूदा एनडीए सरकार ने भी अपने पहले कार्यकाल में ऐसा नहीं किया।

जनरल रावत को सीडीएस नियुक्त करने को लेकर कुछ असंतोष था?

ऐसी सभी नियुक्तियां कैबिनेट कमिटी अनुमोदित करती है और सरकार आम तौर पर हस्तक्षेप नहीं करती। आम तौर पर यह वरिष्ठता आधारित होती है लेकिन इसमें योग्यता भी एक कारक होता है और इसमें कोई बुराई नहीं। पहले भी आउट ऑफ टर्न नियुक्तियां हुई हैं। ऐसी नियुक्तियों पर सवाल उठाने का कोई कारण नहीं है। हालांकि आप जिस मापदंड और मंशा के साथ नियुक्ति करते हैं, वह जनता की नज़र में ईमानदार और पारदर्शी होनी चाहिए।

लेकिन क्या जनरल रावत कुछ ज्यादा ही विवादास्पद नहीं हैं?

मैं जनरल रावत की नियुक्ति पर सवाल तो नहीं उठाऊंगा लेकिन इतना जरूर है कि सेना प्रमुख और अब रक्षा सेवाओं के प्रमुख के तौर पर उनके कुछ आचरण उम्मीदों के अनुकूल नहीं हैं। गोरखनाथ मठ की उनकी यात्रा को व्यापक तौर पर खास राजनीतिक विचारधारा से जोड़कर देखा गया और ऐसा पहली बार नहीं हुआ। उनकी एक तस्वीर भी आई थी जिसमें वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे थे जबकि अभिवादन का सही तरीका सैल्यूट करना है। सीडीएस के रूप में सेना में सुधार के उनके प्रयास भी असंतोषजनक लगते हैं। उनकी रुचि सरकार को एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति तैयार करने में मदद की जगह खर्चे में कटौती में अधिक दिखती है।

विभिन्न देशों के विपरीत भारतीय सेना को लॉकडाउन के दौरान प्रवासी संकट से निपटने में पूरी तरह नहीं लगाया गया। क्यों?

सरकार में यह दूरदर्शिता होनी चाहिए थी कि सेना को संकट से निपटने में लगाती। हम उस स्थिति को संभालने में पूरी तरह सक्षम थे। सेना रसोई और आइसोलेशन सेंटर तैयार कर सकती थी। प्रवासी जिन रास्तों से लौट रहे थे, उस पूरे रूट में हमारी छावनियां हैं।

2021 में सेना के सामने क्या चुनौतियां हैं?

पूर्वी लद्दाख में जो कुछ हुआ, उसकी सबसे बड़ी सीख यह रही कि सीमा पर मुसीबत के संकेत के उभरने के साथ ही हमारी राष्ट्रीय सुरक्षारणनीति की कमजोरी सामने आ गई। सरकार और सीडीएस यह दावा तो करते रहे हैं कि हम पूरी तरह सक्षम हैं लेकिन तथ्य अलग कहानी कहते हैं। जैसे, हम एहतियाती कार्रवाई नहीं कर सके, घुसपैठियों को पीछे नहीं धकेल सके। हमारी निष्क्रियता से स्पष्ट है कि हमारे पास जरूरी क्षमता नहीं है। हमारी और चीन की तकनीकी सैन्य क्षमताओं का अंतर भयावह है। बालाकोट के हाई प्रोफाइल स्ट्राइक के बावजूद हम पाकिस्तान पर अंकुश नहीं लगा पाए हैं और छद्म युद्ध आज भी जारी है। हमारे पास वैसी अत्याधुनिक तकनीक नहीं है जो युद्ध जीत सके। परंपरागत पूर्ण युद्धों के दिन लद गए हैं। भविष्य के युद्ध कम अवधि वाले और सटीक होने वाले हैं। लेकिन हमारे पास इसकी तकनीक नहीं है। एक और बड़ी चुनौती हैं कि हमें अब भी अपनी तीनों सेवाओं का व्यापक तरीके से एकीकरण करना है।भाजपा के नेता जिस जोश के साथ चुनावी चुनौतियों का सामना करते हैं, अगर उसी तरह सेना के सामने की चुनौतियों को लें तो सभी सुधार पांच वर्षों में पूरे किए जा सकते हैं।

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