उत्तराखंड को उंगलियों पर नचा रहे बिल्डर, पर्यावरण की किसी को कोई फिक्र ही नहीं

तथाकथित सामरिक कारणों से चार-लेन हाईवे बनाकर गढ़वाल क्षेत्र के संवेदनशील पर्यावरण को खतरे में डाला जा रहा है। दूसरी ओर, चारधाम यात्रा को धार्मिक पर्यटन के रूप में पेश कि या जा रहा है। यह और कुछ नहीं, बस धार्मिक भावनाओं को भुनाने के लिए है।

फोटो : Getty Images
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पुष्पेश पंत

ऐसे वक्त में जब उत्तराखंड इस बात के लिए सुर्खियों में है कि बीजेपी ने चार माह के भीतर राज्य को तीन मुख्यमंत्री दे डाले, राज्य के हताश-निराश पर्यावरणविदों को राज्य सरकार के रवैये में और संभावित पर्यावरणीय संकट के प्रति नजरिये में कोई फर्क दिखाई नहीं देता। दरअसल, पर्यावरण पर आश्रित इस राज्य में पर्यावरण कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। शायद इसकी वजह यह रही कि नेताओं ने पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं।

तेजी से होते शहरीकरण और अंधाधुंध विकास गतिविधियों ने पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील हिमालयी राज्य उत्तराखंड में खतरे की घंटा बजा दी है। गंगा और अन्य नदियों में प्रदूषण के कारण हिमालय की झीलें सूख रही हैं। मौसम में बदलाव की वजह से पक्षियों, तितलियों की तमाम प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं। दरकते पहाड़ के भूस्खलन के रूप में भरभरा कर नीचे गिरने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं और जंगल की आग तो जैसे आम बात हो गई है। खतरे के संकेत हर ओर से मिल रहे हैं। फिर भी अलग राज्य के तौर पर दो दशक का समय अंतराल बीतने के बाद देखें तो सियासत और पर्यावरण के बीच का रिश्ता आज भी टूटा हुआ ही है।

कुमाऊं क्षेत्र में सरकार की विकास योजनाओं के खिलाफ स्थानीय लोगों का विरोध- प्रदर्शन रोजमर्रा की बात हो गई है। सत्तल में स्थानीय लोग चिल्ड्रेन्स पार्क, पक्षी उद्यान, व्यूप्वाइंट वगैरह बनाने का विरोध कर रहे हैं। रियल एस्टेट विकास से जुड़ी गतिविधियों में धड़ल्ले से इस्तेमाल हुई जेसीबी मशीनों के कारण क्षेत्र की पारंपरिक वनस्पति और वन्य जीव के नष्ट हो जाने के तमाम मामलों के सामने आने के बाद चटोला के लोग विरोध प्रदर्शन के लिए कमर कस रहे हैं।

पारंपरिक तरीके से जीवन-यापन कर रहे लोगों का जंगल के साथ अलग ही रिश्ता होता है। दोनों एक दूसरे को सहारा देते हैं। लेकिन रियल एस्टेट डेवलपर ऊंची-ऊंची दीवारों और उस पर बिजली के तार लगाकर फाटक लगे रिहायशी कॉलोनी बनाने में मशगूल हैं। दिल्ली के लोग यहां प्रॉपर्टी खरीद रहे हैं। वे इसलिए पहाड़ों में नहीं आ रहे हैं कि उन्हें यहां का रहन- सहन पसंद है, पहाड़ों से लगाव है बल्किइ सलिए कि वे शहर के प्रदूषण से जान बचाकर भागना चाहते हैं।


राज्य के तौर पर 20 साल पूरा कर चुके उत्तराखंड में विकास हमेशा ही पर्यावरण पर भारी पड़ा है। अमेरिकी राजनीतिक विज्ञानी हैरोल्ड लासवेल की प्रसिद्ध उक्ति है कि राजनीति की सीधी-सी परिभाषा यह है कि ‘किसे क्या, कब और कितना मिलता है’। जब भी विकास की कोई परियोजना चलेगी, सभी दल के हाथ में पैसे आएंगे। केंद्र के सामने दलील रखी गई है कि गंगोत्री क्षेत्र में और विकास परियोजनाएं चलनी चाहिए।

आज गिनती के गैरसरकारी संगठन और पद्मभूषण अनिल जोशी-जैसे चंद एक्टिविस्ट हैं जो पर्यावरण को वापस विमर्श में लाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन नेताओं की इन तर्कसंगत बातों को सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं। पूर्व मुख्य सचिव और मुनस्यारी इलाके के आर. एस. तोलिया नौकरी में रहते हुए हमेशा पर्यावरण की बात करते रहे लेकिन जब से रिटायर हुए हैं, पर्यावरण संरक्षण के काम को मिलने वाली सरकारी मदद भी जैसे सूख ही गई है। नेता तीन वजहों की आड़ में पर्यावरण से पल्ला झाड़ लेते हैं- धार्मिक भावना, सामरिक महत्व और विकास।

तथाकथित सामरिक कारणों से चार-लेन हाईवे बनाकर गढ़वाल क्षेत्र के संवेदनशील पर्यावरण को खतरे में डाला जा रहा है। कौन कहता है कि इस इलाके में चीन हम पर हमला करने वाला है? दूसरी ओर, चारधाम यात्रा को धार्मिक पर्यटन के रूप में पेश किया जा रहा है और यह और कुछ नहीं, बस धार्मिक भावनाओं को भुनाने का उपक्रम है। मजेदार बात तो यह भी है कि इस यात्रा की स्थानीय अर्थव्यवस्था में कोई खास भूमिका भी नहीं है। लगातार दो साल आई आपदाओं ने बता दिया है कि नदियों के रास्ते में अवैध निर्माण कितना खतरनाक हो सकता है।

उत्तराखंड को रियल एस्टेट डेवलपरों ने जैसे अगवा कर लिया है और रोजगार के मौके पैदा करने के और किसी भी तरीके पर विचार ही नहीं किया जा रहा है। नैनीताल आज कंक्रीट का जंगल बनकर रह गया है और जरूरी है कि जितना जो बचा हो, उसे ही बचा लें। लेकिन नेता लोग तो इस विषय पर बात भी क्यों करने लगे भला?

(संयुक्ता बसु से बातचीत पर आधारित)

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