हमारे यहां कल्चर सिर्फ पॉलिटिक्स के लिए हैः रतन थियाम

‘नाटक का तो मूल ही विरोध है, अनुचित का, अन्याय का। आदिकाल से नाटकों में दमन के तंत्र का विरोध होता आया है। नाटक इसीलिए लिखे जाते हैं कि आप अच्छाई के पक्ष में बुराई के खिलाफ खड़े हों। आज तक कोई ऐसा नाटक नहीं लिखा गया जो खराब सिस्टम के पक्ष में हो।’

फोटो: प्रभात सिंह
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प्रभात सिंह

प्रसिद्ध रंगकर्मी रतन थियाम सिर्फ अपने प्रयोगधर्मी नाटकों के लिए ही नहीं पहचाने जाते हैं, हमारे समय के सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर गाहे-बगाहे बेबाक दखल के लिए भी उन्हें जाना जाता है। वह मानते हैं कि नाटक हमेशा ही विरोध का स्वर रहे हैं, अनुचित के खिलाफ अभिव्यक्ति का मुखर स्वर। पिछले दिनों इलाहाबाद में हुई मुलाकात के दौरान उन्होंने प्रभात सिंह से लंबी बातचीत की। सांस्कृतिक नीति की जरूरत, मौजूदा नाट्य परिदृश्य और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की भूमिका और कला में राजनीति के दखल के सवालों पर उन्होंने बहुत बेबाकी से अपनी राय रखी। इस दौरान उन्होंने रंगकर्म के अपने लंबे अनुभव पर भी बात की। पेश है उनसे बातचीत के अंशः

कला की दुनिया से वाबस्ता लोगों को अक्सर शिकायत रहती है कि कला-संस्कृति की बेहतरी के लिए कुछ नहीं हुआ। उनकी शिकायत सरकार से तो होती ही है और कई बार समाज से भी। आपने कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी संभाली हैं तो आपको क्या लगता है कि कुछ सार्थक न हो पाने की क्या वजहें हैं?

बहुत पहले जब मैंने प्रोफेशनल रेपर्टरी चलाने का संकल्प किया तो उस समय कला-संस्कृति के मुद्दों को लेकर जो मुश्किलें थीं, मुझे लगता था कि बीस-तीस साल में हम उनसे पार पा लेंगे। लेकिन अभी 70 साल बाद भी हालात जस के तस हैं, बहुत कुछ नहीं बदला है। एक बड़ी वजह तो यही है कि जो बदलाव लाने में समर्थ हैं, सांस्कृतिक सवालों में उनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं है। आजादी के इतने अर्से बाद भी हम अपनी सांस्कृतिक नीति नहीं तय कर पाए हैं। इसके लिए भाभा समिति, खोसला समिति, हक्सर समिति जैसी ना जाने कितनी ही समितियां बनी हैं। कुछ समितियों में मैं भी शामिल रहा हूं। लेकिन सरकारें इन समितियों की संस्तुतियों पर अमल से हमेशा बचती आई हैं। कभी कोई तवज्जो नहीं दी। यह सब शायद यह दिखाने के लिए होता है कि सरकार संस्कृति के बारे में भी सोचती है, मगर इससे आगे कुछ नहीं।

देश में सातवां वेतन आयोग लागू होने के बाद भी अगर किसी कलाकार को छह हजार रुपये महीना मिलता है, तो आप स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगा सकते हैं। इस पर अगर हम कुछ कहेंगे तो कहा जाएगा कि ये तो प्रोटेस्ट करने वाले ही लोग हैं। कलाकारों से उम्मीद यह की जाती है कि जो मिल रहा है, उसी में काम चला लें। इस मंहगाई में इतनी मामूली रकम में कोई कैसे घर चला सकता है, इस पर कोई दिमाग नहीं लगाता। यही कल्चर हो गया है हमारा, दिमाग न लगाने का कल्चर। यही कल्चर हमने आजादी के बाद पाया है कि आर्ट-कल्चर के लिए दिमाग न खपाओ। एक मुल्क जिसकी धरोहर सिर्फ आर्ट और कल्चर है, हजारों सालों की परंपरा है। किसी को परवाह नहीं कि इन परंपराओं को निभाने वाले, अब तक बचाए रखने वाले जिंदा भी हैं या मर गए? कितने गुरू आए, कितने प्रतिभावान आए और चले गए। वे किस हाल में, कैसे रहे, किसी ने नहीं देखा। हमारे यहां कल्चर सिर्फ पॉलिटिक्स के लिए है। जब जरूरत लगती है, इस्तेमाल कर लेते हैं।

और समाज?

वहां भी किसे पड़ी है कि चिंता करे? जरा आज के हालात पर गौर कीजिये। पहले हम वेस्टर्नाइजेशन का सोचते थे, अभी हम ग्लोबलाइजेशन का सोचते हैं। फ्यूजन और रीमिक्स के हमले में वहां भी मौलिकता कितनी सलामत बची है। हमारी परंपराएं निहायत ही खूबसूरत रही हैं, चाहे फोक हो, ट्रेडिशनल या फिर क्लासिकल। उन परंपराओं में निहित सौंदर्यबोध हमारी जिंदगी से गहाराई से जुड़े रहे हैं। समाज ने उसे स्वीकार किया था, अब वही समाज परंपराओं की उपेक्षा करके रीमिक्स-फ्यूजन अपना रहा है। तो हमारी अपनी पहचान खत्म करने के खतरे के सिवा ग्लोबलाइजेशन भला और क्या है? सब लोग एक हो जाएंगे, एक जैसे हो जाएंगे। समाज को हजारों वर्षों की परंपरा की ओर गौर करना जरूरी है, वरना बाद में हम कहीं के नहीं रहेंगे।

रंगकर्म के मौजूदा परिदृश्य में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा या ऐसे दूसरे संस्थानों की सार्थकता को किस तरह देखते हैं?

समय बदल गया है मगर एनएसडी में कुछ नहीं बदला है। मैं बहुत समय से कहता आया हूं कि एनएसडी में भी बदलाव होना चाहिए। इसे सिर्फ दिल्ली तक सीमित रखने की बजाय क्षेत्रीय कैम्पस बनाए जाने चाहिए ताकि देश के अलग-अलग हिस्सों में होनहार युवाओं को प्रशिक्षित किया जा सके। दिल्ली में एनएसडी को थियेटर पर शोध के लिए एडवांस स्टडी सेंटर बना देना चाहिए, जैसे कि नेशनल म्युजियम। इसका पाठ्यक्रम भी तो 50-60 साल पुराना है, इसे बदल देना चाहिए। बदलाव का मतलब यह नहीं कि टेक्नॉलॉजी ओरिएंटेड हो जाएं। एकेडेमिक्स के लिहाज से इसे ज्यादा सृजनोनमुखी होना चाहिए। ज्यादा बेहतर पेशेवर बनाने वाला पाठ्यक्रम आज की जरूरत है। वरना तो ऐसे ही चलता रहेगा। हम सार्थकता के सवाल पर ही सोचते रह जाएंगे।

विश्व रंगमंच के मुकाबले हिन्दुस्तानी रंगमंच की क्या स्थिति है?

इसीलिए मैं बेहतर प्रोफेशनल बनाने के पक्ष में हूं। दुनिया के तमाम देशों में थियेटर प्रोफेशनल तरीके से चलते हैं। बेहतर कलाकार, बेहतर डायरेक्टर के साथ ही प्रोडक्शन में भी खूब पैसा लगता है। अपने यहां बाकी सब तो है मगर पैसे की कमी है। पैसे की कमी का मतलब संसाधनों की कमी है। इसका नतीजा यह है कि जो काम लोग साल भर में कर लेते हैं, हमें उसमें दस साल लग जाते हैं। जब तक असुरक्षा का यह भाव रहेगा, बहुत बेहतर की उम्मीद बेमानी है।

कोरस रेपर्टरी बनाने और काम करने का आपका तजुर्बा कैसा रहा है? अपने मकसद में आपको कितनी कामयाबी मिली है?

कला के जरिये और नाटक करके जो खुशी मिली है, वह जिंदगी में एक मकसद को पूरा करने की खुशी है। पर इस खुशी के लिए संघर्ष भी बहुत करना पड़ा। दो तरह के संघर्ष, एक आर्थिक और दूसरा सृजनात्मकता का। मगर अहम बात यह है कि संघर्ष के दौर में मैं कभी हताश नहीं हुआ, उम्मीद नहीं छोड़ी, कभी पीछे नहीं हटा। प्रोफेशनल रेपर्टरी चलाने का संकल्प तो 1974 का था, मगर अमल में आते-आते दो साल लग गए। मैं यह बात अच्छी तरह जानता था कि नाटकों की दुनिया में फिल्म की तरह संगठित उद्योग या व्यावसायीकरण का ख्वाब बहुत दूर की कौड़ी है। मैंने अपने कलाकारों से यह बात पहले ही बता दी थी। यह भी कि वे मत उम्मीद करें कि उनका बहुत नाम होगा। यह सब असंभव है, यह कभी नहीं हुआ, थिएटर वाला कभी फिल्म स्टार नहीं बन सकता। हां, कुछ हद तक लोकप्रियता ज़रूर मिल जाती है, वह भी जो नाटक की जो कम्युनिटी है, उसी में लोग आपको जानने-पहचानने लगते हैं। तो पहले दिन से मेरे कलाकारों का नजरिया साफ रहा है। अपने बूते पर रेपर्टरी बनाई। सरकार से कोई मदद नहीं ली। चिड़िया की तरह हूं, और ये जो घोंसला बना है, मैं उसी से खुश हूं, बहुत खुश हूं। इसे बनाने में 25 साल लग गए। मेरे पास पैसे नहीं थे। अगर होते तो यही सब साल भर में हो जाता। किसी कार्यक्रम में पर्फॉर्मेंस के बाद कलाकारों की फीस देने के बाद जो बचता, उसी से रेपर्टरी के काम होते। मगर अभी बहुत कुछ बदल गया है। मंहगाई बेहिसाब बढ़ गई है। जो आपको समय देता है, उसके बदले उसे कुछ चाहिए। उसे परिवार चलाना है।

आपकी गिनती प्रयोगधर्मी रंगकर्मियों में होती है। किस तरह के प्रयोग से आपको संतोष मिलता है?

सच कहूं तो वह नौबत अभी नहीं आई है। काम में परफेक्शन कभी नहीं आता, हमेशा कुछ न कुछ रह जाता है। उसे अगले नाटक में पूरा करने की कोशिश करता हूं, तो फिर कुछ और छूट जाता है। हर नाटक में मेरे साथ ऐसा ही हुआ है। प्रशंसा तो मिलती है मगर कुछ छूट जाने का असंतोष मुझमें बना रहता है। नाटक को हर बार नयापन देना अनिवार्यता है और यह नयापन केवल स्टेज क्राफ्ट में बदलाव से नहीं आता है, अभिनेताओं को हर बार अलग और नया करने के लिए प्रशिक्षित करने से आता है। नई डिजाइन, नई लाइटिंग पर काम करता हूं। दरअसल थियेटर हमेशा एक प्रयोग ही है, लैबोरेट्री में चलने वाले प्रयोग की तरह। हालांकि इसके लिए बहुत से संसाधनों की जरूरत होती है।

समाज और राजनीति के सवालों पर आप काफी मुखर रहते हैं। कला में या कला के बहाने राजनीति की बहसों पर क्या कहेंगे?

देखिए, नाटक का तो मूल ही विरोध है, अनुचित का, अन्याय का। दमन के तंत्र का विरोध नाटकों में आदिकाल से होता आया है। थियेटर को तीन हजार साल हो गए। दुनिया भर में लाखों नाटक लिखे गए। सोफोक्लीज, एस्काइलस से लेकर हमारे यहां के भास, कालीदास, शूद्रक, हर्ष और वहां शेक्सपियर, इब्सन और भी कितने अच्छे नाटककार हमारे बीच आए। सब ने सिस्टम की बुराइयों को नकारा है, विरोध किया है। नाटक इसीलिए लिखे जाते हैं कि आप अच्छाई के पक्ष में बुराई के खिलाफ खड़े हों। आज तक कोई ऐसा नाटक नहीं लिखा गया जो खराब सिस्टम के पक्ष में हो। नाटक में सत्य और सौंदर्य एक साथ चलते हैं और गलत का विरोध करते हैं। किसी भी नाटक में आप सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक तत्वों की मौजूदगी जरूर पाएंगे। और इंसान में ये सब तत्व समाहित होते हैं। आपका किरदार भी तो आखिर इंसान है तो उसे राजनीति से निजात कहां?

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