पुण्यतिथि विशेषः भारत के संविधान में गांधी की आत्मा

हमें यह हिसाब लगाना चाहिए कि कोई 70 साल पहले हमने जो गणतंत्र बनाया और उसके साथ जो सपने देखे, वे कहां तक पूरे हुए और कितनों तक पहुंचे? सवाल यह कि हमारा गणतंत्र 70 साल जवान हुआ है या 70 साल बूढ़ा? यह सवाल हम अपने संविधान से ही पूछते हैं कि भैया, कैसे हो तुम?

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

वह आजादी का उष:काल था। किसी ने महात्मा गांधी से पूछा- बापू, अब तो अंग्रेज चले गए! अब अपना देश है, अपना शासन है और अपने लोग हैं। अपने लोगों को जिन हथियारों से लड़ना सिखलाया है- हड़ताल, प्रदर्शन, धरना, जुलूस, जेल- क्या यही हथियार आगे भी काम आएंगे? आजाद भारत में आपकी लड़ाई के हथियार क्या होंगे?

बापू हंसे, “हथियार ही बदलते हैं, लड़ाई कहां रुकती है ! मैं अब आगे की लड़ाई एक नए हथियार से लडूंगा- जनमत का हथियार- वीपन ऑफ पब्लिक ऑपीनियन!” वे जनमत को लड़ाई के अमोघ हथियार के रूप में देखते थे। आज उस जनमत को एक भोथर और बिकाऊ माल की तरह देखा जा रहा है और यह भी कहा जा रहा है कि जनमत जैसी कोई चीज होती नहीं है; होती है भीड़ जिसे चाहे जैसे, जो अपने बस में कर ले! कभी गरीबी हटाओ तो कभी विकास लाओ और सब मिल के, छककर माल खाओ ! लेकिन जो आदमी को भीड़ समझते हैं वे लोकतंत्र को समझते हैं?

एक घुटा हुआ माहौल सब ओर है। चार साल पहले देश कई स्तरों पर हिचकोले खा रहा था और लगता था कि जिन्हें देश का जहाज संभालना है वे देश तो दूर, खुद को ही संभाल नहीं पा रहे हैं। यदि महावत हाथी पर अंकुश न रख सके तो हाथी के सामने जो कुछ आता है उसे ध्वस्त कर देता है और पीठ पर जो बैठा है उसे भी जमीन पर पटक देता है। हमने यह होते देखा।

यह भी देखा कि नया महावत, नई ध्वज के साथ हाथी पर सवार हुआ। लेकिन इतना ही हुआ कि वह सवार हुआ, फिर कुछ नहीं हुआ। बातें हुईं, लच्छेदार जुमले हुए, इतनी घोषणाएं हुईं कि हम गिनना भी भूल गए कि किसने, कब, कहां, क्या कहा। एक कहावत है कि जंगल में जब एक गीदड़ बोलता है तो सभी हुआं-हुआं करने लगते हैं। फिर आप किसे गिनेंगे और किसकी सुनेंगे?

और इसके बाद से हम देख रहे हैं गणतंत्र का महाभंजक स्वरूप तंत्र किसी अंधे हाथी की तरह उत्पात मचा रहा है और गण किसी महावत की भूमिका में तो दूर, किसी हरकारे की भूमिका में भी नहीं है। यह हमारे लोकतंत्र के लिए अपशकुन की घड़ी है। लोक की स्वतंत्रता और किसी एक गुट या जमात की निरंकुशता में फर्क होता है। लोकतंत्र में तंत्र की प्राथमिक जिम्मेवारी है, बल्कि उसके होने की कसौटी भी है कि वह निरंकुशता को कैसे काबू में रखता है।

कानून का राज कहते ही उसे हैं जिसमें कानून हाथ में लेने की इजाजत किसी को नहीं होती। नये तंत्र ने देश को अनुशासित करने की अपनी यह जिम्मेवारी छोड़ नहीं दी है, समझ-बूझ कर इसे कहीं गहरे दफना दिया है। अब तंत्र कानून को या संविधान को या इन सबसे ऊपर के मनुष्यता के विधान को नहीं देखता, वह देखता है कि जिसे अनुशासित करने की जरूरत है उसका धर्म क्या है, उसकी जाति क्या है और यह भी कि उसका दल क्या है? बल्कि यह भी देखा जा रहा है कि इस अपराधी की संभावना क्या है- क्या यह भविष्य में किसी भी तरह अपने खेमे में आ सकता है? अगर यह सब संभावना है तो राज्य अपनी नजर भी बदल लेता है और अपनी दिशा भी।

इतिहास फिर कुछ उन्हीं गलियों से, कुछ उसी तरह गुजर रहा है जिनसे तब गुजरा था जब गुलामी का अंधेरा घना था। वक्त की उस संकरी गली के अंधेरे में मुहम्मद अली जिन्ना ने ऐसा ही अंधा उत्पात मचा रखा था और राज- ब्रितानी साम्राज्य- लकड़ी की तलवार भांजता हुआ, उनका मुकाबला करने का स्वांग कर रहा था। लहूलुहान देश अंग्रेजों की मिली-भगत से निष्प्राण हुआ जा रहा था और आजादी की पार्टी कांग्रेस उस धुंध में खोती जा रही थी। एक अकेले गांधी थे जो अपने मन-प्राणों का पूरा बल जोड़ कर इस दुरभिसंधि के खिलाफ तब तक आवाज उठाते रहे जब तक तीन गोलियों से बींध नहीं दिए गए।

यह वह इतिहास है जो हम पढ़ते रहे हैं लेकिन जो इतिहास हम गढ़ रह हैं वह क्या इससे अलग है? क्या वह हमें किसी दूसरी दिशा में ले जा सकेगा? और फिर यह हिसाब भी हमें लगाना चाहिए कि कोई 70 साल पहले हमने जो गणतंत्र बनाया और उसके साथ जो सपने देखे, वे कहां तक पूरे हुए और कितनों तक पहुंचे?

सवाल आकंड़ों का नहीं है और न इस या उस सरकार को जिम्मेवार ठहराने या बचाने का है। सवाल यह कि हमारा गणतंत्र 70 साल जवान हुआ है या 70 साल बूढ़ा? जवानी और बुढ़ापे में उम्र का फर्क नहीं होता है, उम्मीदों और आत्मविश्वास का फर्क होता है! तो हम यह सवाल अपने गणतंत्र की गीता संविधान से ही पूछते हैं कि भैया, कैसे हो तुम? हमने तुम्हारे हवाले जिस गणतंत्र को किया था, वह आज कितना स्वस्थ है और कितनी संभावनाओं से भरा है?

इसका एक जवाब और कहूँ तो दो टूक जवाब- बाबा साहब अंबेडकर ने विधानसभा की कार्रवाई को समेटते हुए दिया था: “हमने संविधान तो बना दिया है और अपनी तरफ से अच्छा ही बनाया है लेकिन यह याद रखें कि कोई भी संविधान उतना ही अच्छा या बुरा होता है जितना उसे चलाने वाले लोग होते हैं!” ….तो हमारे संविधान का पहला ही वाक्य कहता है कि, “हम भारत के नागरिक अपने लिए यह संविधान बनाकर, इसे अपने ऊपर लागू करते हैं…”! आज यह ‘भारत का नागरिक’ कहां है?

संविधान लिखता है कि भारत का राज्य धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि के आधार पर अपने नागरिकों में भेदभाव नहीं करेगा। संविधान का यह पन्ना बंद कर जब हम देश की तरफ देखते हैं तो पाते हैं कि संविधान चलाने वालों ने धीरे-धीरे ऐसी हालत बना दी है कि साबूत, निखालिस नागरिक तो देश में कहीं है ही नहीं, जो हैं वे बहुसंख्यक हैं या अल्पसंख्यक हैं; और बहुसंख्या का आधार क्या है तो धर्म है और जाति है। हमारे लोकतंत्र का यही ध्रुव सत्य है!

संविधान सामने धरा हुआ है, संसद सारा कुछ देख रही है, न्यायपालिका चहुंओर से आती आवाजें सुन रही है और देश को सांप्रदायिकता और जातीयता का अखाड़ा बनाने वाली ताकतें सब कुछ तार-तार किए दे रही हैं। पहले राजनीति के दल थे जो राजनीतिक लाभ के लिए कभी सांप्रदायिक या जातीय खेल खेलते थे लेकिन उन्हें भी इसमें शर्म आती थी और देश के सार्वजनिक जीवन में इतना बल संचित था कि ऐसी प्रवृत्तियां दुत्कारी भी जाती थीं और हाशिए पर रहती थीं। वहां से चलकर हम आज ऐसी स्थिति में पहुंचे हैं कि सांप्रदायिकता-जातीयता के आधार पर दल बनाए गए हैं, जातीय आधार पर बहुजन का निर्माण होने लगा है और इतिहास को फिर से लिखने की घोषणाएं की जाने लगी हैं।

किसी भी स्वतंत्र और स्वायत्त देश को इस बात का अधिकार है ही कि वह अपनी समीक्षा करे और अपना इतिहास खोजे! लेकिन वह खुद ही इतिहास बनने की दिशा में दौड़ पड़े तो संविधान क्या कहेगा और क्या करेगा? बाबा साहब होते तो जरूर कहते कि यह दस्तावेज तुम्हारे हाथ में सौंपते समय ही मैंने कहा था कि यह उतना ही अच्छा या बुरा साबित होगा जितने अच्छे या बुरे बनने की तुम्हारी तैयारी होगी!

और महात्मा गांधी ने तो संविधान बनाने की प्रक्रिया से ही खुद को अलग कर लिया था, क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि देश का मन जब तक नया नहीं बनेगा, तब तक उसके हाथ में सौंपी हर किताब पुरानी पड़ जाएगी। अंबेडकर समेत देश के सारे बड़े राजनीतिक नेताओं ने मिलकर वह किताब तैयार की जिसकी स्थापनाओं के बारे में उनकी अपनी ही आस्था नहीं थी। दस्तावेज इसलिए ही तो खतरनाक माने जाते हैं क्योंकि वे अपने निर्माताओं को ही आईना दिखाने लगते हैं।

संविधान कहता है कि यह बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुजातीय और स्त्री-पुरुष के बीच करीब-करीब बराबर-बराबर बंटा हुआ समाज बहुसंख्यावाद के नारों से न चलाया जा सकता है, न संभाला जा सकता है। ऐसी कोशिश से यह टूट-बिखर जाएगा! हमने इसे नहीं समझा और सांप्रदायिक ताकतों की रस्साकशी ऐसी मची कि देश टूट गया- सैकड़ों सालों की गुलामी में, अंग्रेज भी जो करने की हिम्मत न कर सके, हमने खुद कर लिया!

इतिहास को इतिहास की नजर से देखेंगे तो पाएंगे कि इस आत्मघाती खेल में वे सब भी शामिल थे जो संविधान बना रह थे। हजारों साल के अथक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रयास से भारतीय समाज की संरचना ऐसी हुई है कि इसे संभालो तो यह कालजयी बन जाएगी; तोड़ो तो रेशा-रेशा बिखर जाएगी। यह उस चादर जैसी है कि फैला दो तो हर किसी को पनाह देगी, एक धागा खींचो तो सारी चादर उखड़ जाए। इसलिए बहुसंख्यावाद चाहे जाति के नाम से हो कि धर्म के नाम से कि भाषा के नाम से या किसी दूसरे भी नाम से, वह भारतीय समाज को तोड़ेगा, कमजोर करेगा।

बहुसंख्यावाद भारत की संकल्पना के मूल पर ही चोट करता है। यह अकारण नहीं था कि गांधी ने ताउम्र, बार-बार अपनी जान देकर भी इन ताकतों का मुकाबला करने की कोशिश की- चाहे वह लंदन के गोलमेज सम्मेलन में हो या पुणे के यरवदा जेल में या दिल्ली में या कोलकाता में या नोआखली में या बिहार में हो।

आज की तारीख में भी किसी को देखना हो कि जाना किधर है, पाना क्या है, छोड़ना क्या है और करना क्या है तो उसे संविधान का विधान देख लेना चाहिए! संविधान हम चाहें जितनी बार बदलें, खतरा नहीं है लेकिन इसकी आत्मा बदली तो देश हमारे हाथ से निकल जाएगा। इसलिए हम गांठ बांध लें कि गणतंत्र में गण पहला तत्व है, तंत्र दोयम है। अपनी अ‍हर्निश सेवा-साधना से गण को जितना मजबूत बना सकेंगे, गणतंत्र भी उतना ही मजबूत और फलदायी बनेगा। यह गांधी-तत्व ही संविधान की आत्मा है।

(कुमार प्रशांत, वरिष्ठ पत्रकार, अध्यक्ष, गांधी शांति प्रतिष्ठान)

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