पुण्यतिथि विशेषः दो अविस्मरणीय प्रसारण

ऑल इंडिया रेडियो ने साठ साल पहले दिल्ली केंद्र से प्रसारण आरंभ किया था। इस दौरान देश के इतिहास ने नई करवट ली। देश आजाद हुआ और देश विभाजित हुआ। भीषण हिंसा हुई। लाखों ने जान गंवाई। लेकिन, जिस घटना ने मुझे सबसे ज्यादा आंदोलित किया, वह थी गांधी जी की हत्या।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

साठ साल पहले ब्रॉडकास्टिंग हाउस से ऑल इंडिया रेडियो (तब आकाशवाणी नामकरण सोचा भी नहीं था)- के दिल्ली केंद्र ने प्रसारण आरंभ किया था। साथ ही साथ पहले ब्रॉडकास्टिंग हाउस से मैंने ऑल इंडिया रेडियो के दिल्ली केंद्र से अपनी सेवा आरंभ की। दिन था नवंबर 1, 1943। लगभग एक दशक तक मैं यहां कार्यरत रहा। इस अवधि में देश के इतिहास ने नई करवट ली। देश स्वतंत्र हुआ। देश विभाजित हुआ। भीषण हिंसा हुई। लाखों ने जान गंवाई। अनगिनत विस्थापित हुए। लेकिन, जिस घटना ने मुझे सबसे ज्यादा आंदोलित किया, वह थी गांधी जी की हत्या।

उस घटना से जुड़े, ब्रॉडकास्टिंग हाउस से हुए दो प्रसारणों का उल्लेख करना चाहता हूं। आधी सदी से अधिक के अंतराल के बाद भी उनकी स्मृति मेरे मन-पटल पर अमिट रूप से अंकित है।

30 जनवरी 1948- शाम के पांच बज चुके थे। दिल्ली केंद्र की सायंकालीन सभा चल रही थी। ब्रॉडकास्टिंग हाउस के स्टूडियो नं. 5 से प्रसारित हो रहे नाटक का मैं निर्देशन कर रहा था। पास ही रिकार्डिंग कक्ष था। वहां रोज बिड़ला भवन से, गांधीजी की प्रार्थना रिकार्ड की जाती थी। उस दिन गांधीजी को आने में देर हो गई। अनहोनी बात थी। इंजीनियर पूछने गया, क्या कारण है, इतने में गोलियां दग गई। एक... दो... तीन...। कोहराम मच गया। मैंने गोलियां सुनीं और नहीं समझा और नाटक का प्रसारण चलता रहा।

इतने में कोई चिल्लाया: गांधीजी को गोली मार दी गई... गांधीजी को!

मैं समझा और स्तंभित रह गया। निर्देशन के लिए हाथ और इशारे यंत्रवत् चलते रहे। वे मात्र अभिनय कर रहे थे। उनके स्वर कानों में पड़ रहे थे। लेकिन मैं जो सुन और सोच रहा था, वह कुछ और ही था। गांधीजी की मृत्यु की पुष्टि हुई। शोक संगीत बजने लगा। उसके बीच, रह-रहकर मेलविल डि मेलो घोषणा कर रहे थेः

“अब एक गंभीर समाचार की प्रतीक्षा कीजिए।”

शाम के 6 बजे के समाचार बुलेटिन में हमने दुनिया को ऐलान कर दिया-

किया कत्ल मोहसिन-ए-आज़म को हमने, बताओ तो मोहसिनकुशी की भी हद है।

उस रात जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल स्टूडियो आए, और दो दिन बाद सरोजिनी नायडू। दोनों अवसर पर मैं वहां उपस्थित था।

पं. जवाहर लाल नेहरू का चेहरा सूजा हुआ था। आंखें भारी और भटकती हुईं। मुद्रा, जैसे सब कुछ लुट गया हो। उन्होंने स्टूडियो में प्रवेश किया। कुर्सी पर बैठे। अवरुद्ध कंठ से बोलना शुरू किया:

‘दोस्तो और साथियों, हमारे जीवन से प्रकाश लोप हो गया है। सब ओर अंधेरा है। मैं नहीं जानता, मैं आपसे क्या कहूं! हमारे प्रिय नेता, जिन्हें हम बापू कहते थे, हमारे राष्ट्रपिता, वे नहीं रहे।’

”वे नहीं रहे“। ये शब्द सुनते ही जैसे, सब बांध टूट गए, कोई दबा हुआ ज्वालामुखी फूट पड़ा। जो वहां थे, सबकी आंखें झरने लगीं, झरती रहीं।

मैंने सरोजिनी नायडू को सदा हंसते, खिलखिलाते देखा था। एकमात्र वही थीं, जो गांधीजी का उपहास कर सकती थीं। वह उन्हें ‘मिकी माउस’ कहती थीं। कटाक्ष करती थीं-‘बापू को गरीबी में रखना कितना महंगा पड़ता है!’ उस दिन वह बिल्कुल मौन, उदास और गंभीर थीं। उनके पास कोई आलेख नहीं था जैसे ही स्टूडियो में लाल बत्ती आई, उन्होंने अपनी आंखें बंद की और बोलना आरंभ किया। वह अपनी घनी वेदना को यों वाणी दे रही थीं-

“मृत्यु क्या है? मेरे अपने पिता ने, जीवन के अंतिम क्षणों में, जब मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था, कहा था- न कोई जन्म है, न कोई मरण। सत्य की खोज में आत्मा की उच्च से उच्चतर अवस्था प्राप्त करने के ये चरण मात्र हैं। महात्मा गांधी सदा सत्य के लिए जिए। एक हत्यारे ने उन्हें सत्य की उच्चतर अवस्था तक पहुंचा दिया है, जिसकी खोज में वे थे।”

उनकी बंद आंखों से आंसू रिस रहे थे, लगातार। बोली भी कांप रही थी।

“मेरे आचार्य, मेरे नेता, मेरे पिता की आत्मा को शांति न मिले। हां, शांति न मिले, बल्कि उसकी भस्मी से ऐसी जीवंत शक्ति जागृत हो, उसकी चिता के चंदन की राख से, उसकी अस्थियों की चूरी से सारे देश में ऐसे प्राण पड़ें, ऐसी प्रेरणा मिले कि उस मृत्यु के बाद, स्वतंत्रता की वास्तविकता में फिर से जी उठे।” लगता था, अपनी आंखों के मुंदे कपाटों के परे, वह गांधीजी को अपने सम्मुख साकार देख रही थीं।

‘मेरे पिता, तुम विश्राम न करना, मरण में भी विश्राम न करना, न हमें विश्राम करने देना। हमें अपने पथ पर बनाए रखना।’

उस घनीभूत पीड़ा के स्वर से मैं अंतरतम तक सिहर उठा। मेरे लिए वहां खड़े रहना असह्य हो गया। फिर भी, जब तक सरोजिनी नायडू बोलती रहीं, मैं वहां से न डिगा, न हिला।

(आकाशवाणी के पूर्व वरिष्ठ प्रसारक, निदेशक गोपाल दास का संस्मरण। प्रसारण भवन, आकाशवाणी, नई दिल्ली की हीरक जयंती पर प्रकाशित स्मारिका साक्षी- 2003 से साभार)

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